कृति सेनन और पंकज त्रिपाठी की फिल्म 'मिमी' को भले ही बहुत सारे दर्शक पसंद कर रहे हों, मगर फिल्म देखने के बाद वैचारिकता के आधार पर कुछ लोगों विरोध भी किया है. लक्ष्मण उटेकर के निर्देशन में बनी मिमी को लोगों ने नारीवादी विरोधी मानसिकता पर आधारित फिल्म करार दिया है. तर्क है कि बॉलीवुड की परंपरागत कहानियों में हमेशा से ही औरत को मातृत्व के लिए अपने सपनों और जीवन से समझौता करने वाली स्त्री के रूप में चित्रित किया गया है. मिमी की कहानी में ऐसे समझौतों से बचने की गुंजाइश थी, लेकिन सरोगेसी पर आधारित एक कहानी अंत में स्त्री को लेकर अपनी पुरानी धारणाओं का ही शिकार हो गई. कई ने इसे सरोगेसी की अच्छी कहानी भी नहीं माना. फिल्म में अविश्वसनीय नाटकीयता पर भी सवाल हुए हैं. सबकुछ अचानक से हो जाता है. जैसे- मिमी का सरोगेसी के लिए तैयार होना. फिर अकेले ही बच्चे को जन्म देने का फैसला लेना, उसे पाल-पोसकर थोड़ा बड़ा करना. और भी बहुत कुछ.
जिन तर्कों के आधार पर मिमी को नारी विरोधी फिल्म कहा जा रहा है क्या उसे स्वीकार कर लेना चाहिए? और यह भी क्या मिमी सरोगेसी के लिहाज से एक बेहतर फिल्म नहीं है?
पहली बात ये कि मिमी पॉपुलर धारा की फिल्म है जहां नाटकीयता के बिना काम नहीं चलता. ये सच है कि कई बार बेसिरपैर की नाटकीयता तर्क की कसौटी पर खरे नहीं उतरते, लेकिन मुख्य धारा के सिनेमा में ड्रामा और इमोशन दिखाने के लिए ये निहायत जरूरी हो जाता है. कॉमेडी फिल्मों में तो इसकी भरमार रहती है. थ्री इडियट एक कमाल की फिल्म है. उसमें एक सीक्वेंस है जो गले के नीचे नहीं उतरता. वायरस बोमन ईरानी), रेंचो (आमिर खान) को कमतर आंकता है. आवारा समझता है. उसकी क्षमताओं को उसकी सोच को खारिज करता रहता है. वायरस की नजर में रेंचो की क्षमताओं को सही साबित करने के लिए एक सीक्वेंस बनाया गया.
सीक्वेंस था वायरस...
कृति सेनन और पंकज त्रिपाठी की फिल्म 'मिमी' को भले ही बहुत सारे दर्शक पसंद कर रहे हों, मगर फिल्म देखने के बाद वैचारिकता के आधार पर कुछ लोगों विरोध भी किया है. लक्ष्मण उटेकर के निर्देशन में बनी मिमी को लोगों ने नारीवादी विरोधी मानसिकता पर आधारित फिल्म करार दिया है. तर्क है कि बॉलीवुड की परंपरागत कहानियों में हमेशा से ही औरत को मातृत्व के लिए अपने सपनों और जीवन से समझौता करने वाली स्त्री के रूप में चित्रित किया गया है. मिमी की कहानी में ऐसे समझौतों से बचने की गुंजाइश थी, लेकिन सरोगेसी पर आधारित एक कहानी अंत में स्त्री को लेकर अपनी पुरानी धारणाओं का ही शिकार हो गई. कई ने इसे सरोगेसी की अच्छी कहानी भी नहीं माना. फिल्म में अविश्वसनीय नाटकीयता पर भी सवाल हुए हैं. सबकुछ अचानक से हो जाता है. जैसे- मिमी का सरोगेसी के लिए तैयार होना. फिर अकेले ही बच्चे को जन्म देने का फैसला लेना, उसे पाल-पोसकर थोड़ा बड़ा करना. और भी बहुत कुछ.
जिन तर्कों के आधार पर मिमी को नारी विरोधी फिल्म कहा जा रहा है क्या उसे स्वीकार कर लेना चाहिए? और यह भी क्या मिमी सरोगेसी के लिहाज से एक बेहतर फिल्म नहीं है?
पहली बात ये कि मिमी पॉपुलर धारा की फिल्म है जहां नाटकीयता के बिना काम नहीं चलता. ये सच है कि कई बार बेसिरपैर की नाटकीयता तर्क की कसौटी पर खरे नहीं उतरते, लेकिन मुख्य धारा के सिनेमा में ड्रामा और इमोशन दिखाने के लिए ये निहायत जरूरी हो जाता है. कॉमेडी फिल्मों में तो इसकी भरमार रहती है. थ्री इडियट एक कमाल की फिल्म है. उसमें एक सीक्वेंस है जो गले के नीचे नहीं उतरता. वायरस बोमन ईरानी), रेंचो (आमिर खान) को कमतर आंकता है. आवारा समझता है. उसकी क्षमताओं को उसकी सोच को खारिज करता रहता है. वायरस की नजर में रेंचो की क्षमताओं को सही साबित करने के लिए एक सीक्वेंस बनाया गया.
सीक्वेंस था वायरस की बड़ी बेटी की डिलीवरी पेन का. भारी बारिश में अस्पताल आने जाने का कोई विकल्प नहीं है. बिजली चली गई है. डिलीवरी में जीवन मृत्यु का प्रश्न खड़ा हो गया है. वायरस हताश है लेकिन ठीक इसी समय रेंचो साथियों के साथ आगे आता है. उसने एक उपकरण बनाया है जो कार की बैटरी से बिजली जेनरेट करने में सक्षम है. वीडियो कॉलिंग के जरिए वायरस की छोटी बेटी जो डॉक्टर है वो रेंचो को गाइड कर रही है. लेकिन बच्चा फंस जाता है. यहां रेंचो के साथी वैक्यूम क्लीनर से आनन फानन में एक और उपकरण बनाते हैं और उसकी मदद से बच्चे को बाहर खींचते हैं. जच्चा और बच्चा दोनों सही सलामत है. वायरस को रेंचो के प्रति अपनी गलती का एहसास होता है और वो उसे सबसे बेशकीमती पेन देता है जिसके लिए वो सालों से एक होनहार छात्र का इंतज़ार कर रहा था.
तर्क की कसौटी पर देखें तो थ्री इडियट का केवल यही सीक्वेंस पूरी फिल्म में सबसे वाहियात है. लेकिन कहानी के फ्लो में मनोरंजक है और दर्शक उसे एकटक देखते हैं. बॉलीवुड फिल्मों में ऐसे सीन्स बहुतायत मिलते हैं. निश्चित ही मिमी में भी कुछ अविश्वसनीय नाटकीयता है जिसे पॉपुलर धारा के लिहाज से नजरअंदाज किया जाना ही ठीक है. क्योंकि कई बार वही नाटकीयता फिल्म के मनोरंजन पक्ष को बढ़ाने लायक होती है. जिसके साथ साधारण सोच समझ वाला व्यापक दर्शक समूह भी खुद को आसानी से कहानी के साथ जोड़ लेता है. वो तर्क वितर्क नहीं करता. अगर दर्शकों का ये समूह मनोरंजन से इतर तर्क-वितर्क करने में सक्षम होता तो बॉलीवुड का 90 प्रतिशत सिनेमा कचरे के डिब्बे में पड़ा होता.
जहां तक बात पॉपुलर धारा में फिल्म के वैचारिक पक्ष की है, मिमी में बेहतर संतुलन नजर आता है. ये साफतौर पर समझना चाहिए कि मिमी नारीवाद पर बनी फिल्म नहीं है जिसकी वजह से कुछ लोग आलोचना कर रहे हैं. हाल में आई विद्या बालन की अपनी वैचारिकता में ज्यादा स्पष्ट है. मिमी या किसी भी फिल्म की वैचारिकता उसके परिवेश, समय और धारा को नजरअंदाज करके तय नहीं की जा सकती. मिमी एक धारा में अपने परिवेश ( करीब 10 साल पहले मला आई व्हायची आई थी जिसकी कहानी पर मिमी आधारित है) को लेकर संतुलित है. जो यह तर्क दे रहे हैं कि मिमी बच्चा पैदा करने के लिए करियर और अपने जीवन को तबाह कर लेती है- इसलिए नारी विरोधी फिल्म है. उन्हें यह भी ध्यान देना चाहिए कि हकीकत में मिमी अपने परिवेश में किसी भी दृष्टिकोण से ज्यादा क्रांतिकारी है.
मिमी जिस समुदाय और परिवेश से है वहां उसका सरोगेसी के लिए तैयार ही होना क्या क्रांतिकारी कदम नहीं है? एक बिन ब्याही औरत के रूप में बच्चे को जन्म देना और परिवार और समाज की ओर से उसे स्वीकार लेना भी बहुत क्रांतिकारी है. मिमी ही अपने परिवार की मुखिया है. सब उसके ऊपर आश्रित हैं. वो किसी परिवार में पुरुष मुखिया से ज्यादा सशक्त और ताकतवर दिखती है. मिमी किसी को बच्चा देकर, हीरोइन बन ही जाती तो क्या इससे नारीवाद स्थापित हो जाता. मिमी ने अपने करियर को छोड़ा मगर इस बात को क्यों नजरअंदाज किया जाए कि उसने परिवार की जिम्मेदारी लेकर पुरुष वर्चस्व की परंपरागत चुनौती को भी तो तोड़ दिया. असल में जिस तरह के नारीवाद के लिए मिमी की आलोचना की जा रही है वह कायदे से उसी के लिए एक बेहतर आधार तैयार कर रही है. सोचिए कि नारीवाद के लिहाज से मिमी की अगली पीढ़ी कितना ज्यादा मुखर और स्पष्ट होगी. हालांकि इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि अपनी धारा में नाटकीय नजर आता है. मगर मिमी के लिए शायद ये जरूरी था.
मुझे लगता है कि मिमी कई अर्थों में ज्यादा नारीवाद को ही मजबूत करने वाली फिल्म है. जहां बच्चे को पालने के लिए और जीवन जीने के लिए एक जवान लड़की को पुरुष की जरूरत नहीं पड़ती. अपने परिवेश में मिमी की जो हद है वो उसे तोड़ती है. मिमी या मिमी जैसी सामजिक आर्थिक पृष्ठभूमि से आने वाले यहां तक कि अहम और आप भी रोजाना अपने सपनों से समझौता करते हैं, कई बार अनिच्छा से रास्ते भी बदल लेते हैं. मिमी को या हमें ये समझौता क्यों करना पड़ता है? किसी परिवार, समाज और परिवेश में संघर्ष और उससे उपजे बदलाव अचानक से नहीं हो जाते. समाज और मानव विज्ञान में ये चरणबद्ध गुजरने की प्रक्रिया है. इस फेज में मिमी तो बहुत क्रांतिकारी है. क्योंकि अपने परिवेश में वो शुरुआत करने वाली पहली है. पॉपुलर धारा की जो लिमिट है उसमें मिमी नारीवाद के लिए ही जमीन बना रही है. निश्चित ही उसकी अगली पीढ़ी को ऐसा माहौल मिले जहां उसे अपने सपनों के लिए समझौता ना करना पड़े और इस स्थिति में वो स्पष्ट नारीवादी दृष्टिकोण के साथ आगे बढे. मिमी जैसी फिल्मों को उसी आधार पर बैठकर देखनी चाहिए जिस जगह में वो बनाई गई हैं. उसके आधार से अलग हटकर देखने से जो तर्क उपजेंगे उन्हें कसौटी पर कसना असंभव है.
जहां तक बात सरोगेसी की है उसकी विडंबनाओं पर बहुत सारे लेयर फिल्म में हैं. फिल्म के क्लाइमेक्स में एक संवाद है- "माता-पिता बनने के लिए बच्चा पैदा करना जरूरी नहीं है. माता पिता बनाने के लिए बच्चा तुम्हारा होना भी जरूरी नहीं है." क्लाइमेक्स के इस संवाद को ही फिल्म के असल मकसद के रूप में समझना चाहिए.
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