हाल ही में रिलीज हुई फिल्म इत्तेफाक, साठ के दशक में बनी इत्तेफाक का रीमेक है. जिसे बीआर चोपड़ा ने निर्मित और उनके भाई यश चोपड़ा ने निर्देशित किया था. उस इत्तेफाक में सुपरस्टार राजेश खन्ना और अभिनेत्री नन्दा ने अपनी अदाकारी से कहानी में जान डाली थी. फिल्म परत दर परत राज खोलते हुए दिखती है. और अंत तक दर्शकों को जोड़े रखती है. गीत संगीत के युग में यश चोपड़ा की इस बिना गीत वाली फिल्म को बनाने का फैसला काफी कठिन माना गया था. थ्रिलर फिल्मों के शौकीन दर्शकों को यह फिल्म देख लेनी चाहिए जिससे नयी इत्तेफाक को समझने में आसानी हो जाएगी. यह फिल्म अमेरिकन मूवी 'साइनपोस्ट: टू मर्डर' की रीमेक थी.
थ्रिलर फिल्मों के मास्टर निर्देशक विजय आनंद अपने जीवन में कई बड़ी और खूबसूरत फिल्मों का निर्माण कर गयें. जिनमें ज्वेल थीफ, तीसरी मंजिल जॉनी मेरा आदि है. इन्हे भी दर्शकों को दोहरा लेना चाहिए. रीमेक के तौर पर निर्देशकों और निर्माताओं ने एक अच्छी पहल शुरू की है. जिससे दोहरा फायदा होता भी दिखता है. पहला अपने सिने इतिहास को दोहराया जाना और दूसरा जो फिल्म बनी है वह और पहले वाली फिल्म का विश्लेषण और तुलनात्मक अध्ययन. ऐसी फिल्मों के सहारे औसतन दर्शक पहले की बनी फिल्मों को भी देखने में दिलचस्पी दिखा रहे है.
बात करते है नयी इत्तेफाक की
तीन बड़े निर्माताओ धर्मा प्रॉडक्शन, रेड चिली और बीआर चोपड़ा प्रॉडक्शन ने 48 साल पहले की फिल्म को फिर से नए जमाने के दर्शकों के लिए बनाई है. नए दर्शकों के हिसाब से कास्टिंग भी की है. जिसमें अक्षय खन्ना,सिद्धार्थ मल्होत्रा और सोनाक्षी सिन्हा है. फिल्म एक विलेन की नकारात्मक छवि के आधार पर ही शायद सिद्धार्थ को इस फिल्म...
हाल ही में रिलीज हुई फिल्म इत्तेफाक, साठ के दशक में बनी इत्तेफाक का रीमेक है. जिसे बीआर चोपड़ा ने निर्मित और उनके भाई यश चोपड़ा ने निर्देशित किया था. उस इत्तेफाक में सुपरस्टार राजेश खन्ना और अभिनेत्री नन्दा ने अपनी अदाकारी से कहानी में जान डाली थी. फिल्म परत दर परत राज खोलते हुए दिखती है. और अंत तक दर्शकों को जोड़े रखती है. गीत संगीत के युग में यश चोपड़ा की इस बिना गीत वाली फिल्म को बनाने का फैसला काफी कठिन माना गया था. थ्रिलर फिल्मों के शौकीन दर्शकों को यह फिल्म देख लेनी चाहिए जिससे नयी इत्तेफाक को समझने में आसानी हो जाएगी. यह फिल्म अमेरिकन मूवी 'साइनपोस्ट: टू मर्डर' की रीमेक थी.
थ्रिलर फिल्मों के मास्टर निर्देशक विजय आनंद अपने जीवन में कई बड़ी और खूबसूरत फिल्मों का निर्माण कर गयें. जिनमें ज्वेल थीफ, तीसरी मंजिल जॉनी मेरा आदि है. इन्हे भी दर्शकों को दोहरा लेना चाहिए. रीमेक के तौर पर निर्देशकों और निर्माताओं ने एक अच्छी पहल शुरू की है. जिससे दोहरा फायदा होता भी दिखता है. पहला अपने सिने इतिहास को दोहराया जाना और दूसरा जो फिल्म बनी है वह और पहले वाली फिल्म का विश्लेषण और तुलनात्मक अध्ययन. ऐसी फिल्मों के सहारे औसतन दर्शक पहले की बनी फिल्मों को भी देखने में दिलचस्पी दिखा रहे है.
बात करते है नयी इत्तेफाक की
तीन बड़े निर्माताओ धर्मा प्रॉडक्शन, रेड चिली और बीआर चोपड़ा प्रॉडक्शन ने 48 साल पहले की फिल्म को फिर से नए जमाने के दर्शकों के लिए बनाई है. नए दर्शकों के हिसाब से कास्टिंग भी की है. जिसमें अक्षय खन्ना,सिद्धार्थ मल्होत्रा और सोनाक्षी सिन्हा है. फिल्म एक विलेन की नकारात्मक छवि के आधार पर ही शायद सिद्धार्थ को इस फिल्म में जगह मिली होगी. लेकिन यहां वह अपने किरदार के साथ न्याय नहीं कर पाते.
फिल्म के लेखक (अभय चोपड़ा) ने इस कहानी में जिस लेखक (विक्रम सेठी) की कहानी लिखी है वह शातिर अपराधी है. जिसकी खुद की कहानी की वजह से दो और जिंदगियां प्रभावित होती हैं. ऊपर से मुंबई पुलिस का पूरा खेमा उसके चंगुल में फंस जाता है. और वह चकमा देकर बच निकलता है. इंवेस्टिगेशन पुलिस ऑफिसर विक्रम (अक्षय खन्ना) के जरिये खुद के द्वारा की गयी हत्या को वह केस से बाइज्जत बरी होने के बाद बताता है और फिर लंदन निकल जाता है. यह पूरी कहानी उस (विक्रम सेठी) लेखक के अपराधी कद को और बड़ा करती है, जिसके मुकाबले सिद्धार्थ अभिनय नहीं पाए. मुंबई पुलिस की नाकामी का एक पक्ष भी यह फिल्म पेश करती है.
सोनाक्षी सिन्हा फिल्म में नामी वकील की पत्नी (माया) है जिनका संबंध पति के ही दोस्त से है. फिल्म में इस अफेयर का प्रयोग भी नकारात्मक ढंग से किया गया है. जिसका अपना एक अलग विमर्श है. अक्षय खन्ना की संवाद अदायगी और उनकी पात्र संरचना ही फिल्म में जान डालती है. कहानी की शुरुआत में ही थ्रिलर सस्पेंस की जगह सब कुछ खोल कर रख दिया गया है जिसे प्लाट का नाम दिया जा सकता है. फिल्म में दो मर्डर हुए हैं, लेकिन मुंबई पुलिस का मज़ाकिया अंदाज़ ढंग से पेश करते हुए भी देखा जा सकता है. जो कॉमेडी का ही स्वरूप है. इसकी क्या जरूरत थी यह पता नहीं.
थ्रिलर फिल्म के तौर पर बेचने निकले निर्माता और निर्देशक यह भूल गए कि फिल्म के पात्रों के आपसी संबंध कैसे बनाए जाएं. एक दर्शक का अगर थोड़ा भी आई क्यू लेवल ठीक ठाक है तो वह समझ जाएगा कि फिल्म को बस बनाने के उद्देश को ध्यान में रखकर बनाया गया है. फिल्म में निर्माता ने अलग-अलग प्रोफेशन से जुड़े लोगों को दिखाया है जिसमें एक लेखक, प्रकाशक, वकील और उसकी बीबी तथा उसका सामाजिक माहौल शामिल है जो बता देता है कि लेखक प्रकाशक के बीच कोई झगड़ा होगा तो मामला वकील के जरिये कोर्ट में जाएगा फिर सहमति न बनने पर हत्या जैसी घटना को अंजाम दिया जा सकता है.
इसके लिए सभी पात्रों मे आपसी संयोजन और जुड़ाव बना सस्पेंस या रहस्य पैदा किया जा सकता था. लेकिन ऐसा लगता है कि फ़िल्मकार ने इसमें ज्यादा काम न करते हुए पुरानी इत्तेफाक के नाम पर ही उसे बेचने की बात सोच ली थी.कैमरा एंगल सराहनीय है जिसमें फिल्मकार का कोई योगदान नहीं है. आजकल सभी फिल्मों में प्रायः ऐसे ही सीन शूट किए जा रहे हैं. फिल्म के म्यूजिक पर काम हुआ दिखता है. क्राइम थ्रिल पैदा करने कि जो भी नाकाम कोशिश है वह इसी के बल पर ही है.
50 दिन के नॉन स्टॉप शेड्यूल में बनी इस फिल्म का एक सकारात्मक पक्ष भी है. जिसमें एक ही सीन को तीन अलग अलग लोगों की कहानी के साथ जोड़ कर दिखाया जाना काबिले तारीफ है. दर्शक अपने अन्तर्मन में जो सोच सकता है कि यह खून कहीं इसने, उसके या जिसने भी किया है उसका विजुअल रूप निर्देशक ने सामने रखा है. अन्य फिल्मों में कई बार इसे वॉइस ओवर के जरिये पेश कर दिया जाता है. फिल्म से जुड़ी एक और ख़ास बात यह भी है कि डाक्टर के किरदार में राजकुमार राव को पहले लिया गया था बाद में उन्हे रिप्लेस किया गया. अगर उनकी अभिनय झमता को देखते हुए बात करें तो फिल्म में उनकी उपस्थिती फिल्म को मजबूती दे सकती थी.
सस्पेंस को बरकरार रखने के लिए बिना प्रमोशन और स्पेशल स्क्रीनिंग के रिलीज करने का फैसला एक रोचक है. आगे आने वाले दिनों में प्रमोशन का एक टूल्स यह भी बन सकता है. इत्तेफाकन अगर आप किसी मॉल या मल्टीप्लेक्स के आस पास है तो इस मर्डर मिस्ट्री, क्राइम थ्रिलर के नाम पर बेची जा रही फिल्म को देख पुरानी इत्तेफाक को जरूर देख लें.सिनेमा को शिक्षण प्रशिक्षण का मुख्य बिन्दु इसी आधार पर बनाया जा सकता है.
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