बहराइच में एक बहुत पहुंचे हुए बुजुर्ग की दरगाह है. हर बरस जेठ के महीने भर वहां मेला लगता है. पता नहीं कबसे शुरू हुई इस मेले की परंपरा को एक बार अपने छुटपन में हमने भी अंजाम दिया था. जादू का शो देखा. तब Netflix नहीं था. आज है. लेकिन Netflix पर जादू कौन देखेगा? तो जी, हमीं ने फिर देखा. इस बार कोटा फैक्टरी, पंचायत फेम जितेंद्र कुमार की वजह से देखा. बोनस में फुटबॉल भी देखा. एक फिल्म है 'जादूगर'. बस वहीं.
थीम वही है, बेपरवाह हीरो का आखिरी में ज़िम्मेदार हो जाना. विरासत में मिले फुटबॉल के खेल में. प्यार में भी. बाकी छड़ी घुमा के फूल निकालना, रूमाल से कबूतर निकालना, बक्से में लड़की बंद करके लड़के को निकालने वाला जादू तो है ही.
डायरेक्टर को एक हिट फिल्म में लगने वाली सामग्रियां सारी पता है. थोड़ा इमोशंस, थोड़ा रोमांस, थोड़ा फुटबॉल, खेल में जोश भरने के लिए वीर रस वाला गाना. सब है लेकिन एक दर्शक के तौर पर कोई जादू फील ही नहीं होता.
जितेंद्र कुमार में हीरो जैसी बॉडी, लुक्स वगैरह नहीं है. आम सा चेहरा... जो गुस्से में ढेले जैसी आंखों से सब झुंझलाहट कहता है. उनका चेहरा, दबी मुस्कान ही उनकी यूएसपी है. लेकिन सिर्फ 'बॉय टू द नेक्स्ट डोर' से काम नहीं चलता. एक्टिंग भी करनी पड़ती है. उस पर शर्त यह कि जादूगर के 'मीनू' में आप पंचायत वाले 'अभिषेक सर' नहीं हो सकते.
डायरेक्टर ने उन्हें पुरानी इमेज में क़ैद रखा है. चाचा बने जावेद जाफ़री ने हकलाने की एक्टिंग नेचुरल रखी है. पतले चेहरे वाली हिरोईन के चेहरे पर सारे भाव फ्लैट हैं. फिल्म में वे डिवोर्सी हैं. शायद इसीलिए... लेकिन उदासीनता भी तो एक भाव होता है. वह भी नहीं है. है तो अपील...
बहराइच में एक बहुत पहुंचे हुए बुजुर्ग की दरगाह है. हर बरस जेठ के महीने भर वहां मेला लगता है. पता नहीं कबसे शुरू हुई इस मेले की परंपरा को एक बार अपने छुटपन में हमने भी अंजाम दिया था. जादू का शो देखा. तब Netflix नहीं था. आज है. लेकिन Netflix पर जादू कौन देखेगा? तो जी, हमीं ने फिर देखा. इस बार कोटा फैक्टरी, पंचायत फेम जितेंद्र कुमार की वजह से देखा. बोनस में फुटबॉल भी देखा. एक फिल्म है 'जादूगर'. बस वहीं.
थीम वही है, बेपरवाह हीरो का आखिरी में ज़िम्मेदार हो जाना. विरासत में मिले फुटबॉल के खेल में. प्यार में भी. बाकी छड़ी घुमा के फूल निकालना, रूमाल से कबूतर निकालना, बक्से में लड़की बंद करके लड़के को निकालने वाला जादू तो है ही.
डायरेक्टर को एक हिट फिल्म में लगने वाली सामग्रियां सारी पता है. थोड़ा इमोशंस, थोड़ा रोमांस, थोड़ा फुटबॉल, खेल में जोश भरने के लिए वीर रस वाला गाना. सब है लेकिन एक दर्शक के तौर पर कोई जादू फील ही नहीं होता.
जितेंद्र कुमार में हीरो जैसी बॉडी, लुक्स वगैरह नहीं है. आम सा चेहरा... जो गुस्से में ढेले जैसी आंखों से सब झुंझलाहट कहता है. उनका चेहरा, दबी मुस्कान ही उनकी यूएसपी है. लेकिन सिर्फ 'बॉय टू द नेक्स्ट डोर' से काम नहीं चलता. एक्टिंग भी करनी पड़ती है. उस पर शर्त यह कि जादूगर के 'मीनू' में आप पंचायत वाले 'अभिषेक सर' नहीं हो सकते.
डायरेक्टर ने उन्हें पुरानी इमेज में क़ैद रखा है. चाचा बने जावेद जाफ़री ने हकलाने की एक्टिंग नेचुरल रखी है. पतले चेहरे वाली हिरोईन के चेहरे पर सारे भाव फ्लैट हैं. फिल्म में वे डिवोर्सी हैं. शायद इसीलिए... लेकिन उदासीनता भी तो एक भाव होता है. वह भी नहीं है. है तो अपील नहीं करता.
फिल्म शुरुवात में ठीक ठाक रफ्तार में चलती है. चूंकि कहानी में दो बिन्दू है. फुटबॉल और जादू. दोनों को बैलेंस करने के चक्कर में कई बार फिल्म औंधे मुंह गिर पड़ती है. आखिर में झाड़ पोंछ कर खड़ी होती है. आप मुस्कुरा देते हैं लेकिन वाह नहीं कह पाते.
तो कुल मिलाकर बेदम कहानी में समीर सक्सेना का लचर निर्देशन. जितेंद्र कुमार की वजह से क्लिक की गयी फिल्म सुबह से शाम तक भी ज़ेहन में नहीं ठहर पाती कई बार स्टेज पर पेरफॉरमेंस देता जादूगर नोस्टॉलजिक लगता है.
लेकिन नेटफ्लिक्स पर एक से बढ़कर एक अंतर-राष्ट्रीय फिल्म की मौजूदगी में समीर सक्सेना जीतू भैया के साथ मिलकर वो जादू जगा नही पाए कि आदमी दोबारा फिल्म देखना चाहे.
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