चौरासी के उन मनहूस दिनों की जब भी याद दिलाई जाती है, तकलीफ़देह ही होती है और एक ख़ास राजनीतिक पार्टी के लिए तो निरंतर ही सबब है. जब भी ज़िक्र ए चौरासी होता है, फ़िक्रमंद हो जाते हैं संभावित हानि के लिए. चौरासी की पृष्ठभूमि पर आधारित ज्यादा फ़िल्में या कंटेंट्स नहीं बने हैं. जो भी बने हैं या मुखरता से आये हैं विगत आठ सालों में ही आये हैं चूंकि अनुकूलता ही तब से हुई. जब कभी सच्ची घटना पर आधारित रचना होती हैं. अक्सर पूर्वाग्रह या एजेंडा हावी हो जाता है. परंतु अली अब्बास जफ़र ने नेक नीयत से 'जोगी' बनाई हैं और फोकस किया है उनपर जो इस पूर्व नियोजित आकस्मिक नरसंहार में भी जिंदा बचे. जिंदा भाग्य भरोसे या राम भरोसे नहीं बचे थे बल्कि 'जोगी' सरीखी दोस्ती, साथ और उम्मीद की अनेकों कहानियां यथार्थ थी उस मनहूस घड़ी में. जफ़र ने तीन वीभत्स दिनों की कटु सच्चाई का सच्चा डॉक्यूमेंट बिना किसी अतिरंजना के दर्शाया है और उसी डॉक्यूमेंट में एक मार्मिक और रुमानियत से ओतप्रोत सिख, हिंदू और मुस्लिम के साथ की उम्मीद जगाती जज्बाती सुन्दर कहानी पिरो दी है.
काश ! चौरासी ना होता, गोधरा ना होता , कश्मीरी पंडितों का नरसंहार ना होता ; लेकिन हुए. कारणों में जाएं तो राजनीति कॉमन है जो हर मुश्किल घड़ी में लोगों में वैमनस्य जगाती है, पारस्परिक भरोसा तोड़ती हैं और फिर उम्मीदें दम तोड़ती है, जज्बा लुप्त हो जाता है. नेताओं को तो सिखाने की, बताने की जुर्रत नहीं की जा सकती, विश भर कर सकते हैं लेट गुड सेंस प्रिवेल. आज के समय में जरूरत भी थी कि ‘जोगी’ जैसी फिल्म आये सो कह सकते हैं समय भी सही है, कहानी भी सही है और कहने वालों ने सही तरीके से कह भी दिया है.
अली अब्बास की कहानी इस लिहाज...
चौरासी के उन मनहूस दिनों की जब भी याद दिलाई जाती है, तकलीफ़देह ही होती है और एक ख़ास राजनीतिक पार्टी के लिए तो निरंतर ही सबब है. जब भी ज़िक्र ए चौरासी होता है, फ़िक्रमंद हो जाते हैं संभावित हानि के लिए. चौरासी की पृष्ठभूमि पर आधारित ज्यादा फ़िल्में या कंटेंट्स नहीं बने हैं. जो भी बने हैं या मुखरता से आये हैं विगत आठ सालों में ही आये हैं चूंकि अनुकूलता ही तब से हुई. जब कभी सच्ची घटना पर आधारित रचना होती हैं. अक्सर पूर्वाग्रह या एजेंडा हावी हो जाता है. परंतु अली अब्बास जफ़र ने नेक नीयत से 'जोगी' बनाई हैं और फोकस किया है उनपर जो इस पूर्व नियोजित आकस्मिक नरसंहार में भी जिंदा बचे. जिंदा भाग्य भरोसे या राम भरोसे नहीं बचे थे बल्कि 'जोगी' सरीखी दोस्ती, साथ और उम्मीद की अनेकों कहानियां यथार्थ थी उस मनहूस घड़ी में. जफ़र ने तीन वीभत्स दिनों की कटु सच्चाई का सच्चा डॉक्यूमेंट बिना किसी अतिरंजना के दर्शाया है और उसी डॉक्यूमेंट में एक मार्मिक और रुमानियत से ओतप्रोत सिख, हिंदू और मुस्लिम के साथ की उम्मीद जगाती जज्बाती सुन्दर कहानी पिरो दी है.
काश ! चौरासी ना होता, गोधरा ना होता , कश्मीरी पंडितों का नरसंहार ना होता ; लेकिन हुए. कारणों में जाएं तो राजनीति कॉमन है जो हर मुश्किल घड़ी में लोगों में वैमनस्य जगाती है, पारस्परिक भरोसा तोड़ती हैं और फिर उम्मीदें दम तोड़ती है, जज्बा लुप्त हो जाता है. नेताओं को तो सिखाने की, बताने की जुर्रत नहीं की जा सकती, विश भर कर सकते हैं लेट गुड सेंस प्रिवेल. आज के समय में जरूरत भी थी कि ‘जोगी’ जैसी फिल्म आये सो कह सकते हैं समय भी सही है, कहानी भी सही है और कहने वालों ने सही तरीके से कह भी दिया है.
अली अब्बास की कहानी इस लिहाज से शानदार है कि दोस्ती, साथ, प्यार और उम्मीद की जज्बाती कहानी की लाइफ भी तीन दिन ही है, कहानी खत्म होती है और साथ साथ ही नरसंहार के उन तीन दिनों की मनहूसियत भी छंटती है, उम्मीदें जगती है कि उखड़कर फिर से खड़े हो जाना ही नियति है. फिल्म की लंबाई सिर्फ एक घंटे और 56 मिनट की है लेकिन एक पल भी आभास नहीं होता कि किसी भी भावनात्मक लम्हे को जल्दबाजी में समेटा गया हो, यही बात जबर्दस्त कनेक्ट करती है व्यूअर्स को. और एक बहुत कसी फिल्म में ऐसा निभा ले गए हैं जफ़र, प्रशंसनीय हैं.
सभी दृश्य बहुत अच्छी तरह से लिखे गए हैं और सभी कलाकारों ने उत्कृष्ट रूप से स्क्रीन पर भावनात्मक दृश्यों को निभाया है, दर्शाया है. दिलजीत दोसांझ ने शायद ही इससे अच्छी परफॉरमेंस कभी दी होगी. जोगी की मजबूरी, बेबसी और दर्द को वे बखूबी उतार लाते हैं, स्क्रीन पर से जोगी ओझल ही नहीं होता और दिलजीत हर पल जोगी के किरदार को जीते हैं. जोगी की क्यूट कमली के किरदार में अमायरा दस्तूर कम क्यूट नहीं लगी है.
मोहम्मद जीशान अयूब के हिस्से संवाद कम आये तो उन्होंने आंखों से ही अभिनय निभा दिया. जोगी के वे पुलिसिया दोस्त बने हैं जो ऊपर से आर्डर की कशमकश से निकलकर अपने सिख दोस्त, उसके परिवार और मोहल्ले की मदद को तत्पर होता है. एक अन्य दुश्मन दोस्त की भूमिका में हितेन तेजवानी स्वयं को रहस्यमयी प्रोजेक्ट करने में सफल रहे हैं. परेश पाहूजा फिर एक बार अपने अभिनय का पिटारा खोलने में कामयाब रहते हैं.
और, अरसे बाद कुमुद मिश्रा को भी ऐसा किरदार मिला है जिसमें वह कुमुद मिश्रा नहीं, घृणित सियासतदां तेजपाल दिखते हैं. फिल्म की सिनेमैटोग्राफी, संकलन और कला निर्देशन भी औसत से ऊपर है. इस वीकेंड का ये घर बैठे अच्छा मनोरंजन है. एक बात और, फिल्म ओटीटी पर ही रिलीज़ हुई हैं , एक अच्छा निर्णय लिया है मेकर ने. उन्हें पता था पूर्वाग्रह रहित और एजेंडा विहीन सच्ची घटना पर आधारित पीरियड ड्रामा सिनेमाघरों पर कुछ ख़ास नहीं कर सकता. हां जफ़र चाहते तो 'द कश्मीर फाइल्स' को फॉलो कर सकते थे, इस बात की काबलियत है उनमें. लेकिन उन्होंने उस तर्ज को नहीं अडॉप्ट किया, ये उनका एजेंडा है.
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