ऐसा कहना कि एक समय सरकारी नौकरियों के लिए लोगों में जिस तरह का क्रेज रहा होगा लगभग वैसा ही क्रेज सिनेमा के लिए भी हमेशा से रहा है. शायद ही यह बात गलत सिद्ध हो. देश का हर नौजवान सिनेमा की वजह से भी, अलग-अलग क्षेत्रों में अपनी क्षमता के मुताबिक़ दौलत और शोहरत कमाने के सपने को जीने निकला है. यह अलग बात है कि कुछ 'सपने भर' रह जाते हैं और कई लंबी प्रक्रिया तय करने के बावजूद अंत तक पूरा नहीं हो पाते. मगर जो उसे पूरा करता है और अपनी प्रतिभा साबित करता है- रातोंरात सामूहिक चर्चाओं के केंद्र में होता है. केवल इसी बिंदु से समाज के प्रति उसके अंजान मकसद का दूसरा दौर शुरू होता है. केके (कृष्णकुमार कुन्नथ) को लेकर ऐसा कुछ नहीं दिखता. केके "हाजिर होकर भी गायब" नजर आते हैं.
पृथ्वीराज चौहान, महाराणा प्रताप, शिवाजी महाराज, महात्मा गांधी, डॉ. भीमराव अंबेडकर, भगत सिंह, भाभा, मानेक शॉ, अब्दुल हमीद, ध्यानचंद, अब्दुल कलाम, नीतीश कुमार, लालू यादव, मायावती, सचिन तेंदुलकर, विनोद कांबली जैसे असंख्य नायक हैं जिन्होंने प्रेरणा दी है. अपनी सहमति असहमति के साथ भारत हमेशा ऐसे ही नायकों का पीछा करता रहा है और आज का जो कुछ भी हासिल है वह उन्हीं के नायकत्व की प्रेरणा से हुआ है. सिनेमा ने ना जाने कितने गुमनाम धर्मेंद्र, जैकी श्राफ, गोविंदा, मिथुन, गुलशन कुमार, उदित नारायण, कुमार शानू, नवाजुद्दीन सिद्दीकी और राजकुमार राव जैसे लोगों को जमीन से उठाकर आसमान पर पहुंचा दिया. तमाम नायकों का बैकग्राउंड और उनके पीछे से निकले संदेश में ठीक आज के भारत का तमाम हासिल नजर आ जाता है.
दीवार पर केके का पोस्टर भी नहीं लगा पाए, कितना कोसेंगे खुद को?
और जब अचानक मौत की वजह से केके दुनिया से चले गए, उन्हें ऐसे हाजिर किया जा रहा है कि लगभग हर कोई बार-बार अपनी ही याददाश्त पर शक करने को मजबूर है. हर कोई खुद को कोसते दिख रहा कि केके तुम्हारे पोस्टर भी हमारी दीवार पर होने चाहिए थे. तुम तो डिजर्व करते थे. सिनेमा को लेकर कोई कितना सिद्ध है यह बाद की बात है. मगर उसके...
ऐसा कहना कि एक समय सरकारी नौकरियों के लिए लोगों में जिस तरह का क्रेज रहा होगा लगभग वैसा ही क्रेज सिनेमा के लिए भी हमेशा से रहा है. शायद ही यह बात गलत सिद्ध हो. देश का हर नौजवान सिनेमा की वजह से भी, अलग-अलग क्षेत्रों में अपनी क्षमता के मुताबिक़ दौलत और शोहरत कमाने के सपने को जीने निकला है. यह अलग बात है कि कुछ 'सपने भर' रह जाते हैं और कई लंबी प्रक्रिया तय करने के बावजूद अंत तक पूरा नहीं हो पाते. मगर जो उसे पूरा करता है और अपनी प्रतिभा साबित करता है- रातोंरात सामूहिक चर्चाओं के केंद्र में होता है. केवल इसी बिंदु से समाज के प्रति उसके अंजान मकसद का दूसरा दौर शुरू होता है. केके (कृष्णकुमार कुन्नथ) को लेकर ऐसा कुछ नहीं दिखता. केके "हाजिर होकर भी गायब" नजर आते हैं.
पृथ्वीराज चौहान, महाराणा प्रताप, शिवाजी महाराज, महात्मा गांधी, डॉ. भीमराव अंबेडकर, भगत सिंह, भाभा, मानेक शॉ, अब्दुल हमीद, ध्यानचंद, अब्दुल कलाम, नीतीश कुमार, लालू यादव, मायावती, सचिन तेंदुलकर, विनोद कांबली जैसे असंख्य नायक हैं जिन्होंने प्रेरणा दी है. अपनी सहमति असहमति के साथ भारत हमेशा ऐसे ही नायकों का पीछा करता रहा है और आज का जो कुछ भी हासिल है वह उन्हीं के नायकत्व की प्रेरणा से हुआ है. सिनेमा ने ना जाने कितने गुमनाम धर्मेंद्र, जैकी श्राफ, गोविंदा, मिथुन, गुलशन कुमार, उदित नारायण, कुमार शानू, नवाजुद्दीन सिद्दीकी और राजकुमार राव जैसे लोगों को जमीन से उठाकर आसमान पर पहुंचा दिया. तमाम नायकों का बैकग्राउंड और उनके पीछे से निकले संदेश में ठीक आज के भारत का तमाम हासिल नजर आ जाता है.
दीवार पर केके का पोस्टर भी नहीं लगा पाए, कितना कोसेंगे खुद को?
और जब अचानक मौत की वजह से केके दुनिया से चले गए, उन्हें ऐसे हाजिर किया जा रहा है कि लगभग हर कोई बार-बार अपनी ही याददाश्त पर शक करने को मजबूर है. हर कोई खुद को कोसते दिख रहा कि केके तुम्हारे पोस्टर भी हमारी दीवार पर होने चाहिए थे. तुम तो डिजर्व करते थे. सिनेमा को लेकर कोई कितना सिद्ध है यह बाद की बात है. मगर उसके बनने-बिगड़ने, आचार-व्यवहार में सिनेमा और ऐसे माध्यम ही गाइड फिलासफर साबित होते हैं. सिर्फ दो दशक पहले तक जब गांव कस्बे के कम पढ़े लिखे युवकों को अपने परिवेश की वजह से लगता था कि पारले जी बिस्कुट और कोलगेट का पाउडर भी सरकारी फैक्ट्रियों में तैयार किया जाता है- उस समूह को सिनेमा ने ही राह दिखाई और शहर पहुंचा दिया.
भले शहर पहुंचकर उसकी पहली पीढ़ी चाय बेंच रही हो, लेकिन दूसरी पीढ़ी के सपनों में चाय और पानीपुरी की शर्मनाक ठिकानों से अलग और कहीं ज्यादा बड़ी दुनिया के लक्ष्य हैं. उसे ठीकठीक पता है कि पानीपुरी और चाय बेचना उसकी क्षमता में बिल्कुल शर्मनाक नहीं है. शर्मसार तो हम आप हैं. हम लोगों की पीढ़ी ने भी तो सिनेमा-क्रिकेट और दूसरे अलग-अलग क्षेत्रों से निकलकर आए नायकों से प्रेरित होकर कच्चे पक्के सपने लेकर ही आगे बढ़ी है. जब भी किसी केके या गुलशन कुमार की कहानी आती है- कोई कमजोर भी अपने भविष्य को लेकर उत्साह से भर उठता है.
गांव-देहात में अखबारों का मिलना मुश्किल था. हमारी पहुंच केबल तक थी नहीं और समाचार माध्यमों के नाम पर हमारे पास या तो रेडियो/अखबार होते थे, या फिर पत्रिकाएं और टीवी पर दूरदर्शन के समाचार. इसकी पहुंच भी एकाध घर तक होती थी. लेकिन उसकी मौजूदगी सामूहिक थी. हक़- जो नहीं खरीदते थे उनका भी कुछ कम नहीं था. आज के डिजिटल दौर को देखता हूं तब समझ में आता है कि इन चीजों को कितनी आसानी से कंट्रोल किया जाता रहा होगा उस वक्त तक. हो सकता है कि शहरों की तरह तमाम सुविधाओं की पहुंच गांवों-कस्बों में हुई होती तो शायद आज की तस्वीर कुछ ज्यादा चमकीली हो सकती थी और समाज में आर्थिक सामजिक सुधारों का एक चक्रण कायदे से पूरा हो चुका होता. 90 के दशक में बिजली और फोन पहुंचने भर का असर केस स्टडी है.
सिनेमा में माधुरी की खूबसूरती ने बताया हम भी कलाकार हो सकते हैं
अखबार भी अक्सर दोपहर में मिलते थे. खेल और सिनेमा के पन्नों के लिए मारामारी होती थी. शनिवार को आने वाला सिनेमा एडिशन का तो शिद्दत से इंतज़ार होता था. पत्रिकाओं में मिले पोस्टर कमरों में चिपकाएँ जाते. तीस साल के नीचे के लिए अखबार और पत्रिकाओं को पीछे से पढ़ते थे. अखबारों में झाककर ही माधुरी और शिल्पा शेट्टी की खूबसूरती समझ आई थी हम लोगों को. और कब वह अखबार से निकलकर गणित और विज्ञान के नोटबुक पर चित्र बनकर उभरने लगीं पता ही नहीं चला. सिनेमा ने हमारे अंदर के कलाकार को आवाजें दीं. अखबार से नायकों की तस्वीरें काट-काटकर निकाले जाते. याद नहीं आता कि केके किसी अखबारी कतरन में कभी दिखे क्या? और अब जब उनके निधन के बाद उनके जीवन से एक से बढ़कर एक रोचक कहानियां सामने आ रही हैं, सिनेमा को लेकर अपनी मोहब्बत में कमियां तलाश रहें कई लोग. हो सकता है कि यह स्मार्टफोन के बहुत ज्यादा इस्तेमाल की वजह से हुआ हो. स्मार्टफोन का हमारी याददाश्त पर बेशुमार अतिक्रमण हुआ है.
सोशल मीडिया पर केके के लिए हर तरह की विचारधारा के लोग लिख रहे हैं. लिख क्या रहे हैं- दुखी हैं, दर्द शब्द के रूप में बह रहे हैं. उनको जितनी स्वीकार्यता मिल रही है- हाल फिलहाल बॉलीवुड का कोई ऐसा सितारा नहीं दिखता, जिसके लिए लोगों में ऐसा क्रेज रहा हो. दशकभर पहले यही क्रेज कभी शाहरुख, कभी आमिर और कभी सलमान के लिए थी. गोविंदा, अजय देवगन, सुनील शेट्टी जैसे सितारे लंबे वक्त तक बी ग्रेड ही बने रहे. बावजूद एक व्यापक वर्ग के आदर्श थे. उसके सपनों में थे. बॉबी देओल जैसे ना जाने कितने नाम गायब हो गए. अच्छा रहा कि अपने बैकग्राउंड की वजह से गायब होने के बावजूद केके की पहचान जिंदा रह गई. केके केस स्टडी हैं.
देसी संगीत संसार के क्रांतिकारी थे गुलशन कुमार, सबसे ज्यादा नायक गढ़े
सत्य व्यास ने फेसबुक पर केके के शुरुआती संघर्ष और 90 के दौर में बॉलीवुड में क्या चल रहा था- उसकी एक झलक साझा की है. गुलशन कुमार की जो उपलब्धियां हैं उन्हें देश में लोकप्रिय संगीत का सबसे बड़ा क्रांतिकारी कहा जाए तो गलत नहीं है. देश के अलग भाषाभाषी, लोकगीतों, धार्मिक सामजिक गायकों के रूप में अकेले टीसीरीज ने कई दर्जन नायक गढ़े. कलाओं को लेकर संगीत जगत के अभिजात्यपन को उन्होंने लगभग तहस-नहस कर दिया. गुलशन कुमार की वजह से ही ना जाने कितने गायकों और संगीतकारों ने अपने जीवन का मकसद पाया और नए नायक दिखे. ना जाने कितने. कई भाषाओं में संगीत का बाजार तैयार हुआ. ढेरों रोजगार के मौके बने. गुलशन से पहले क्या था? कितने सिंगिंग करियर के बारे में सोच सकते थे?
मनोज तिवारी और निरहुआ समेत भोजपुरी के ना जाने कितने नायक शादी ब्याह में सट्टा ही बजाते रहते. फिल्म संगीत की अपनी सीमा थी- लेकिन तब भी स्थानीयता को वैसी तवज्जो नहीं मिली जिस तरह गुलशन की म्यूजिक कंपनी टीसीरीज की वजह से संभव हुआ. टी-सीरीज ने कुछ ही साल में म्यूजिक इंडस्ट्री पर कंपनियों की बादशाहत को ध्वस्त कर दिया.
गुलशन की हत्या 1997 में हुई थी. तब तक वे शिखर पर थे. उनके आसपास कोई नहीं था और हर साल नए-नए नायक गढ़ रहे थे. गुलशन की हत्या मुंबई में समानांतर व्यवस्था चलाने वाले दाउद इब्राहिम के सिंडिकेट ने की थी. गुलशन को गोलियों से भून दिया गया था. सत्य व्यास ने लिखा कि इस घटना की वजह से टी-सीरीज ने जो मुकाम पाया था वह अगले दो साल में बिखर चुका था. गुलशन के बेटे भूषण की उम्र बहुत कम थी. लेकिन जब बॉलीवुड के लिए राजनीतिक हलकों में सक्रियता दिखती है- पिता के साम्राज्य को बचाने के लिए भूषण आगे आते हैं. मुंबई में पुलिस एक्टिव होती है. माफियाओं पर नकेल कसना शुरू हो जाता है. घरेलू कारोबार बांटने के बाद भूषण कुमार म्यूजिक कंपनी बचाने के लिए अच्छे काम की तलाश कर रहे होते हैं. उन्हें पता चलता है कि संजय लीला भंसाली, "हम दिल दे चुके सनम" के लिए किसी अच्छे म्यूजिक कंपनी की खोज कर रहे हैं. भूषण कुमार उनके पास पहुंच जाते हैं.
भंसाली से भूषण कहते हैं- मैं इंडस्ट्री का बच्चा हूं आप सब भी मदद नहीं करेंगे तो कौन करेगा? भंसाली की खामोशी द म्यूजिकल की वजह से सुर्खियों में आ चुके थे. उस दिन भंसाली के साथ एक और लड़का बैठा था. वह केके थे. भंसाली ने उनकी तरफ इशारा करते हुए कहा- आपकी मदद के लिए मैं हमेशा साथ हूं मगर इसकी (केके) मदद कौन करेगा? और इस तरह टीसीरीज को वापसी के लिए हम दिल दे चुके सनम का राइट मिल गया. पांच साल के संघर्ष के बाद केके को ब्रेक भी मिल गया. सत्य व्यास की पोस्ट यहां पढ़ सकते हैं. खूब पढ़े-लिखे और फिल्म इंडस्ट्री से अलग आदर्श छवि लिए केके पर गुलशन की भी नजर नहीं पड़ पाती जबकि केके मुंबई पहुंच चुके थे.
खैर, हम दिल दे चुके सनम जबरदस्त हिट साबित हुई. फिल्म के सभी गाने ब्लॉकबस्टर हुए और केके के रूप में लोगों ने एक ऐसी आवाज सुनी जो सीधे कान से दिल तक पहुंच रही थी. केके ने इसके बाद हिंदी समेत कई भाषाओं में जमकर गाया. और हर तरह से गाया. माना जाता है कि उन्होंने करीब करीब 700 गाने गाए हैं. केके कभी उतनी चर्चा बटोरते नहीं दिखे जितनी कुमार शानू, उदित, सोनू निगम, अभिजीत, शान यहां तक कि कैलाश खेर जैसे लोग पा चुके थे. वैसे जिस दौर में केके का पदार्पण होता है- ईमानदारी से देखें तो बॉलीवुड में गायकों का पुराना प्रभुत्व ख़त्म भी हो चुका था. कम काम होने के बावजूद एक समय में दस-दस दिग्गज गायक संगीतकार नजर आते थे, उनकी संख्या आगे जाकर इक्का दुक्का हो गई. अरिजीत सिंह जैसे एक दो नाम छोड़ दीजिए तो अब कुमार शानू, उदित, सोनू निगम, अभिजीत और शान के रूप में गायकों की फ़ौज या फिर रफ़ी, लता, किशोर, आशा भोंसले जैसे स्टारडम वाले गायक नहीं दिखते.
केके ने अच्छा गाया या उनके गानों के बोल और संगीत बढ़िया थे
जबकि बॉलीवुड में 1995 से पहले तक गायकों का रुतबा किसी स्टार से कम नहीं था. यह रुतबा भी लता, रफ़ी, किशोर और मन्नाडे जैसे दिग्गज गायकों ने बहुत संघर्ष के बाद हासिल किया था. 1995 के बाद संगीतकारों का थोड़ा बहुत असर नजर आता है. जबकि इस दौर के बाद फ़िल्मी गीतकार और गायक स्टारडम के मामले में कहीं नहीं हैं. ऐसा लगता है जैसे आवाज तो केके ही की थी, लेकिन वे बढ़िया गा नहीं रहे थे. बल्कि कोई गीतकार अच्छे बोल लिख रहा था, कोई संगीतकार अच्छा म्यूजिक तैयार कर रहा था, कोई हीरो परदे पर उस आवाज को ढो रहा था, किसी निर्देशक का उस गाने के पीछे आइडिया था और गाना केके का भला कैसे हो सकता है जब कोई निर्माता उसके लिए पैसे दे रहा था?
केके को इसकी जरूरत भी नहीं थी. जहां काम मिला वहां गा दिया. काम और अपनी निजी जिंदगी में वह बहुत खुश थे. उनके चाहने वाले गानों से ही जुड़े थे और गानों की वजह से हमेशा जुड़े रहे. उनका जीवन बहुत संयमी था. उनकी मौत के बाद लग रहा है कि काश अखबार से केके की कुछ कतरनों को काटकर रख लेते. पर कैसे? अखबार में केके पर कभी नजर पड़ी ही नहीं? माफ़ करना केके हम तुम्हें ठीक से पढ़ नहीं पाए.
अलविदा.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.