बॉलीवुड में रीमेक फिल्में बनाने का चलन बहुत पुराना है. हॉलीवुड और साउथ सिनेमा की कई सफल फिल्मों का हिंदी रीमेक बनाया जा चुका है. इनकी सफलता की दर को देखते हुए आने वाले समय में कई रीमेक फिल्मों को सिनेमाघरों में रिलीज करने की तैयारी चल रही है. इन सबके बीच ओटीटी प्लेटफॉर्म नेटफ्लिक्स पर एक फिल्म 'लूप लपेटा' स्ट्रीम हो रही है, जो जर्मनी की क्लासिक कल्ट फिल्म 'लोला रेन्नट' का हिंदी रीमेक है. साल 1998 में रिलीज हुई इस फिल्म का अंग्रेजी में टाइटल 'रन लोला रन' है. लेखक-निर्देशक टॉम टायक्वेर की इस फिल्म ने रिलीज के बाद पूरी दुनिया में बहुत अच्छा कारोबार किया था. इसकी कहानी दर्शकों को बहुत पसंद आई थी. यही वजह है कि इसके हिंदी रीमेक के दौरान पटकथा लेखन की जिम्मेदारी एक भारी भरकम लेखन टीम को दी गई. इसमें विनय छावल, अरनव नंदूरी, केतन पेडगांवकर और पुनीत चड्ढा का नाम शामिल है. इस टीम ने जर्मन फिल्म की कहानी को भारतीय परिवेश में ढ़ालने की पूरी कोशिश की है, लेकिन सफल होते नहीं दिख रहे हैं.
सोनी पिक्चर्स इंडिया और एलिप्सिस एंटरटेनमेंट के बैनर तले बनी फिल्म 'लूप लपेटा' में तापसी पन्नू, ताहिर भसीन, दिब्येन्दु भट्टाचार्य, श्रेया धन्वंतरि और राजेन्द्र चावला जैसे कलाकार अहम किरदारों में हैं. इसका निर्देशन आकाश भाटिया ने किया है. आकाश मूलत: विज्ञापन फिल्मों के निर्माण के लिए जाने जाते हैं. इनमें क्रिएटिविटी और सेंसिटिविटी की जरूरत सबसे ज्यादा होती है. लेकिन इस फिल्म को देखने के बाद कहीं भी आकाश की झलक नहीं दिखती. ऐसा लगता है कि सबकुछ कहानी के दम पर सफल होने के लिए छोड़ दिया गया है. इसके साथ ही तापसी पन्नू और ताहिर भसीन जैसे कलाकारों की काबिलियत पर भी मेकर्स ने ज्यादा भरोसा कर लिया है. हालांकि, अपनी अभिनय प्रतिभा के अनुसार तापसी ने अदाकारी से फिल्म को बहुत ढोने की कोशिश की है, लेकिन कहा जाता है न कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता है. यहां निर्देशक और लेखन टीम की कमी साफ नजर आती है. तकनीकी टीम में सिनेमैटोग्राफी को छोड़ दें, तो बाकी किसी का योगदान नजर नहीं आता है.
बॉलीवुड में रीमेक फिल्में बनाने का चलन बहुत पुराना है. हॉलीवुड और साउथ सिनेमा की कई सफल फिल्मों का हिंदी रीमेक बनाया जा चुका है. इनकी सफलता की दर को देखते हुए आने वाले समय में कई रीमेक फिल्मों को सिनेमाघरों में रिलीज करने की तैयारी चल रही है. इन सबके बीच ओटीटी प्लेटफॉर्म नेटफ्लिक्स पर एक फिल्म 'लूप लपेटा' स्ट्रीम हो रही है, जो जर्मनी की क्लासिक कल्ट फिल्म 'लोला रेन्नट' का हिंदी रीमेक है. साल 1998 में रिलीज हुई इस फिल्म का अंग्रेजी में टाइटल 'रन लोला रन' है. लेखक-निर्देशक टॉम टायक्वेर की इस फिल्म ने रिलीज के बाद पूरी दुनिया में बहुत अच्छा कारोबार किया था. इसकी कहानी दर्शकों को बहुत पसंद आई थी. यही वजह है कि इसके हिंदी रीमेक के दौरान पटकथा लेखन की जिम्मेदारी एक भारी भरकम लेखन टीम को दी गई. इसमें विनय छावल, अरनव नंदूरी, केतन पेडगांवकर और पुनीत चड्ढा का नाम शामिल है. इस टीम ने जर्मन फिल्म की कहानी को भारतीय परिवेश में ढ़ालने की पूरी कोशिश की है, लेकिन सफल होते नहीं दिख रहे हैं.
सोनी पिक्चर्स इंडिया और एलिप्सिस एंटरटेनमेंट के बैनर तले बनी फिल्म 'लूप लपेटा' में तापसी पन्नू, ताहिर भसीन, दिब्येन्दु भट्टाचार्य, श्रेया धन्वंतरि और राजेन्द्र चावला जैसे कलाकार अहम किरदारों में हैं. इसका निर्देशन आकाश भाटिया ने किया है. आकाश मूलत: विज्ञापन फिल्मों के निर्माण के लिए जाने जाते हैं. इनमें क्रिएटिविटी और सेंसिटिविटी की जरूरत सबसे ज्यादा होती है. लेकिन इस फिल्म को देखने के बाद कहीं भी आकाश की झलक नहीं दिखती. ऐसा लगता है कि सबकुछ कहानी के दम पर सफल होने के लिए छोड़ दिया गया है. इसके साथ ही तापसी पन्नू और ताहिर भसीन जैसे कलाकारों की काबिलियत पर भी मेकर्स ने ज्यादा भरोसा कर लिया है. हालांकि, अपनी अभिनय प्रतिभा के अनुसार तापसी ने अदाकारी से फिल्म को बहुत ढोने की कोशिश की है, लेकिन कहा जाता है न कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता है. यहां निर्देशक और लेखन टीम की कमी साफ नजर आती है. तकनीकी टीम में सिनेमैटोग्राफी को छोड़ दें, तो बाकी किसी का योगदान नजर नहीं आता है.
फिल्म की कहानी के केंद्र में दो किरदार सवी ऊर्फ सवीना बोरकर (तापसी पन्नू) और सत्या ऊर्फ सत्यजीत (ताहिर भसीन) हैं. इन्हीं दोनों किरदारों के इर्द-गिर्द पूरी फिल्म घूमती रहती है. सवी एक एथलीट है. वो रेस में दौड़कर गोल्ड जीतना चाहती थी, लेकिन घुटना टूटने की वजह से उसका सपना बर्बाद हो जाता है. उसकी मां की मौत के बाद उसका पिता एक लड़के साथ रिलेशनशिप में रहने लगता है. अपने जीवन से दुखी सवी एक दिन अस्पताल की छत से कूदकर जान देने जाती है. उसी वक्त उसकी मुलाकात सत्या से होती है. सत्या गोवा के ही एक रेस्टोरेंट में काम करता है. लेकिन उसे जुए खेलने की बुरी लत होती है. इसकी वजह से आए दिन उसके साथ मारपीट होती रहती है. अस्पताल की छत पर सवी और सत्या की मुलाकात पहले दोस्ती फिर प्यार में बदल जाती है. सवी और सत्या लिव इन में रहने लगते हैं. दोनों बड़े-बड़े सपने देखते हैं, लेकिन उसके लिए जरूरी कर्म नहीं कर पाते. सत्या शॉर्ट कट के जरिए ढेर सारा पैसा कमाकर अमीर बनाना चाहता है. दुनिया घूमना चाहता है.
एक दिन सत्या के रेस्टोरेंट का मालिक विक्टर (दिव्येंदु भट्टाचार्य), जो कि आपराधिक प्रवृत्ति का होता है, उसे एक व्यक्ति से 50 लाख रुपए लाने की जिम्मेदारी देता है. सत्या नोटों से भरा बैग लेकर बस से आ रहा होता है. रास्ते में उसे एक नाइजीरियन मिल जाता है, जो गांजे पीलाकर उससे नोटों से भरा बैग लूट लेता है. सत्या अपनी गर्लफ्रेंड सवी को फोन करके हादसे के बारे बताता है. उसके मुताबिक यदि उसे विक्टर को 50 लाख रुपए नहीं दिए तो वो उसकी जान ले लेगा. अब उनके सामने महज 50 मिनट में 50 लाख रुपए की व्यवस्था करने का चैलेंज होता है. इसी पैसे की व्यवस्था के दौरान जो-जो घटनाएं होती हैं, फिल्म की कहानी की आधार होती हैं. क्या सवी अपने ब्वॉयफ्रेंड के लिए पैसों का इंतजाम कर पाती है? क्या सत्या की जान बच पाती है? इन्हीं सवालों के जवाब देने के लिए मेकर्स ने एक ही कहानी को तीन तरह से दिखाया है. इनमें किरदार और संवाद एक ही होते हैं, बस घटनाएं बदलती रहती हैं. जो दर्शकों को उलझा कर रख देती है. उनका इंटरेस्ट खत्म कर देती हैं.
जैसा कि पहले ही बताया गया है कि फिल्म 'लूप लपेटा' जर्मन फिल्म 'लोला रेन्नट' का हिंदी रीमेक है. इसलिए जर्मन फिल्म की कहानी के हिंदीकरण के लिए चार लेखकों की टीम ने पटकथा पर कड़ी मेहनत की है. जर्मन फिल्म का बाहरी फ्रेम ज्यों का त्यों लेते हुए इसे हिंदू पौराणिक आख्यानों में मिलने वाली सत्यवान-सावित्री की कथा में पिरो दिया गया है. इस कथा में मृत्यु के देवता यम सत्यवान के प्राण हरने के बाद उसे यमलोक ले जाने लगते हैं और सावित्री अपनी बुद्धिमत्ता से उनसे पति के प्राणों को वापस लेकर सत्यवान को नया जीवन दिलाती है. कुछ इसी तरह सवी अपने ब्वॉयफ्रेंड की जान बचाने के लिए काल और घटनाक्रम में बदलाव करती है. लेकिन सही मायने में देखें तो कथानक में भारतीय हो जाने के बावजूद 'लूप लपेटा' अपने कैमरा वर्क, कलर और मेकिंग में यूरोपियन फिल्म जैसा आभास देती है. इसे देखकर ये लगता है कि लेखन और निर्देशन टीम की सोच के बीच फासला बहुत अधिक रहा है. जबकि इन दोनों टीमों को एक साथ बैठकर काम करने पर परिणाम बेहतर होता है.
फिल्म में कहानी और किरदार की तरह दृश्य भागते रहते हैं. ऐसे में सिनेमैटोग्राफर का रोल अहम होता है. यश खन्ना ने अपना काम ईमानदारी किया है. हालांकि, कैमरे के सामने इतना कुछ हो रहा है कि कभी-कभी आप भूल जाते हैं कि आप एक ही कहानी को कई बार छोटे-छोटे ट्विस्ट के साथ देख रहे हैं. यश ने अपने तरकस से हर तीर चलाए हैं, जिससे की फिल्म खूबसूरत बन पड़े. इसमें डॉली जूम शॉट के बेहतरीन इस्तेमाल से लेकर कैमरा रोलिंग शॉट्स तक शामिल हैं. ऐसे कुछ सीन उपयुक्त बैकग्राउंड स्कोर के साथ बहुत अच्छे लगते हैं. प्रियांक प्रेम कुमार ने एडीटिंग में अपने सारे एक्सपेरिमेंट किए हैं, लेकिन फिर भी फिल्म जरूरत से ज्यादा लंबी हो गई है. जहां तक कलाकारों के परफॉर्मेंस की बात है, तो तापसी ने हमेशा की तरह पूरी मेहनत की है. अपने अकेले कंधों पर फिल्मों को आगे बढ़ाने की कोशिश भी करती हैं, लेकिन बाद में थकी हुई नजर आती हैं. दिब्येंदु भट्टाचार्य, राजेंद्र चावला, श्रेया धन्वंतरी, के सी शंकर, माणिक पपनेजा और भूपेश बंदेकर जैसे कलाकारों के लिए बहुत ज्यादा स्कोप है नहीं, सो उनसे अपेक्षा करना बेमानी है. कुल मिलाकर, लूप लपेटा ऐसी फिल्म है, जिसमें लूप ही लूप हैं. इसे देखने समय बर्बाद करना है.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.