हाँ, नजरिया ही खो जाए तो लोग यही कहेंगे. दरअसल नित गुम होते हादसों से आक्रोशित लोग चाहते हैं कि कारकों को अंजाम मिलता देखें, और अंजाम वही हो जो उनका दिल चाहता है मसलन किये की कठोर से कठोर सजा मिले. लेकिन फिल्म लॉस्ट का मकसद लॉस्ट को लॉस्ट दिखाने का है, मैसेज देने का है कि गायब होने वालों की शायद यही नियति है. और इस पॉइंट ऑफ़ व्यू को रखने में फिल्म कामयाब होती है बावजूद कई तकनिकी खामियों के.
कोलकाता पुलिस के पास दो हफ्ते से मिसिंग एक लड़के ईशान का केस आता है, फोन भी उसका बंद है. लेकिन पुलिस ईशान को ढूंढने की बजाए उसके परिवार से ही सवाल जवाब करने लगती है, पूछताछ के नाम पर परेशान भी करती है. पुलिस एक प्रभावशाली राजनेता के दबाव में है, थ्योरी बनती है कि लड़का लापता नहीं हुआ बल्कि स्वयं ही भाग कर एक नक्सल ग्रुप में शामिल हो गया है. इसी बीच विधि नाम की क्राइम रिपोर्टर इंटरेस्ट लेने लगती है इस केस में. हालांकि शुरुआत में वह अपने प्रोफेशन में नेम फेम के लिए इसे एक स्टोरी के रूप में लेती है, परंतु अंततः घटते घटनाक्रमों में उसकी खुद की जद्दोजहद ईशान को खोज निकालने के लक्ष्य में तब्दील हो जाती है.
बावजूद अनेकों लूप होल के, कहानी में सस्पेंस है, थ्रिल है और फिर राजनीति वाला एंगल भी दिलचस्प बन पड़ा है. कसी हुई पटकथा है, उद्वेलित करने वाले कई प्रसंग भी हैं जैसे एक खोजी पत्रकार/रिपोर्टर के रास्ते में आने वाली बाधाओं से रूबरू कराती है, एक न्यूज़ एंकर पर राजनेता की अनुकंपा का चित्रण भी है, पुलिस-नेता की मिलीभगत से उपजी तमाम कूट रचनाएं भी हैं जो शिकायतकर्ता या उसके करीबी को ही अपराधी बता देती है . पूरी फिल्म देखते हुए एक पल भी बोरियत नहीं होती. हाँ, दूसरे हाफ में कहानी के सिरों को खोलते हुए बिखरा दिया गया...
हाँ, नजरिया ही खो जाए तो लोग यही कहेंगे. दरअसल नित गुम होते हादसों से आक्रोशित लोग चाहते हैं कि कारकों को अंजाम मिलता देखें, और अंजाम वही हो जो उनका दिल चाहता है मसलन किये की कठोर से कठोर सजा मिले. लेकिन फिल्म लॉस्ट का मकसद लॉस्ट को लॉस्ट दिखाने का है, मैसेज देने का है कि गायब होने वालों की शायद यही नियति है. और इस पॉइंट ऑफ़ व्यू को रखने में फिल्म कामयाब होती है बावजूद कई तकनिकी खामियों के.
कोलकाता पुलिस के पास दो हफ्ते से मिसिंग एक लड़के ईशान का केस आता है, फोन भी उसका बंद है. लेकिन पुलिस ईशान को ढूंढने की बजाए उसके परिवार से ही सवाल जवाब करने लगती है, पूछताछ के नाम पर परेशान भी करती है. पुलिस एक प्रभावशाली राजनेता के दबाव में है, थ्योरी बनती है कि लड़का लापता नहीं हुआ बल्कि स्वयं ही भाग कर एक नक्सल ग्रुप में शामिल हो गया है. इसी बीच विधि नाम की क्राइम रिपोर्टर इंटरेस्ट लेने लगती है इस केस में. हालांकि शुरुआत में वह अपने प्रोफेशन में नेम फेम के लिए इसे एक स्टोरी के रूप में लेती है, परंतु अंततः घटते घटनाक्रमों में उसकी खुद की जद्दोजहद ईशान को खोज निकालने के लक्ष्य में तब्दील हो जाती है.
बावजूद अनेकों लूप होल के, कहानी में सस्पेंस है, थ्रिल है और फिर राजनीति वाला एंगल भी दिलचस्प बन पड़ा है. कसी हुई पटकथा है, उद्वेलित करने वाले कई प्रसंग भी हैं जैसे एक खोजी पत्रकार/रिपोर्टर के रास्ते में आने वाली बाधाओं से रूबरू कराती है, एक न्यूज़ एंकर पर राजनेता की अनुकंपा का चित्रण भी है, पुलिस-नेता की मिलीभगत से उपजी तमाम कूट रचनाएं भी हैं जो शिकायतकर्ता या उसके करीबी को ही अपराधी बता देती है . पूरी फिल्म देखते हुए एक पल भी बोरियत नहीं होती. हाँ, दूसरे हाफ में कहानी के सिरों को खोलते हुए बिखरा दिया गया है ताकि व्यूअर्स दिमाग लगाएं और अपने अपने अंत सोच लें, विजुलाइज कर लें. कहानीकार का मकसद ही है लास्ट में ढूंढें जा रहे तमाम सवालों के जवाब के लिए व्यूअर्स को सच से सामना भर करा दिया जाए. कुल मिलाकर एक हिडन मैसेज है जो रियल लाइफ से जुड़ा हुआ है कि अक्सर खासकर गुमसुदगी के मामलों में सच के दबे रहने में ही हित है.
बात करें मेकर्स की, कलाकारों की. कमोबेस टीम "पिंक" वाली ही है, अनिरुद्ध रॉय चौधरी निर्देशक है. हाँ, कहानीकारों में बदलाव है लेकिन रितेश शाह कॉमन है. कह सकते हैं एक इंटेलिजेंट मूवी है, पावरफुल कहानी है, कुछ हट के देखने की ललक रखने वालों के लिए है. यामी गौतम सॉलिड है, हर सिचुएशन के लिए अलग एक्सप्रेशन हैं उसके, किंचिंत भी कहीं भी ओवर नहीं होती, इतने कॉम्प्लिकेटेड किरदार को आसानी से निभा ले जाती है. पंकज कपूर इंस्पायरिंग नानू के किरदार में लाजवाब हैं, कब क्या कैसे कर जाते हैं, अप्रत्याशित ही हैं. स्पेशल मेंशन क्वालीफाई करती है अंकिता के रोल में पिया वाजपेई. राहुल खन्ना भी ठीक हैं. ईशान का किरदार प्रतिभाशाली तुषार पांडे ने निभाया है लेकिन वे लापता हो गए सो करने को ज्यादा कुछ था ही नहीं.फिल्म की सिनेमेटोग्राफी और बेहतर हो सकती थी.
एक इंटेलीजेंट व्यूअर इस रोमांचक फिल्म को मिस करना अफोर्ड नहीं कर सकता. छोटी मोटी गलतियां जरूर हैं लेकिन मिस किया जान क्वालीफाई करती हैं. गाने वगैरह नहीं हैं और ना ही कोई जबरिया कॉमेडी है. कुल मिलाकर मास सिनेमा से परे हटकर कुछ हट के देखने के लिए एक पावरफुल फिल्म है. सो फिल्म अच्छी है लेकिन हर किसी के लिए नहीं हैं.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.