यूं तो फिल्मों को लेकर तमाम बातें हक सकतीं हैं भांति भांति के तर्क दिए जा सकते हैं मगर सबसे सटीक यही होगा कि हम बस ये कहें कि फ़िल्म सिर्फ दो तरह की होती हैं एक अच्छी फिल्म दूसरी बुरी फ़िल्म. इसके बीच में कुछ नहीं होता. अच्छी फिल्म वो है जो एक दर्शक के रूप में हमें एंटरटेन करती है और बुरी फ़िल्म वो जिसे देखकर सिर्फ और सिर्फ हमारा समय बर्बाद होता है. ओटीटी प्लेटफॉर्म नेटफ्लिक्स पर भी एक फ़िल्म रिलीज हुई है नाम है लूडो. नहीं आप फ़िल्म के नाम पर मत जाइए अनुराग बसु निर्देशित इस फ़िल्म में वो तमाम चीजें हैं जो लूडो को उस पायदान पर पहुंचाती है जहां पहुंचने के बाद हम किसी फिल्म को सिर्फ अच्छे की कसौटी पर रखकर परखते हैं.
यूं तो फ़िल्म में गालियां और आदित्य रॉय कपूर की ओवरएक्टिंग है मगर इन कमियों को तब खारिज किया जा सकता है जब फ़िल्म की बाकी की कास्ट के रूप में हमारे पास राजकुमार राव, पंकज त्रिपाठी, अभिषेक बच्चन, रोहित सराफ, फातिमा सना शेख जैसे मंझे हुए कलाकार मौजूद हों.
फ़िल्म एक नहीं बल्कि कई कहानियों का समायोजन है और स्टोरी को कुछ इस अंदाज में पिरोया गया है कि एक दर्शक के रूप में हमें कहीं भी बोरियत का एहसास नहीं होने वाला. चूंकि फ़िल्म में तमाम कैरेक्टर्स हैं जिन्हें देखकर आपको एहसास होगा कि ये आम आदमी के जीवन से जुड़ी कहानियां हैं. अनुराग बसु की लूडो जिस तरह की फ़िल्म है आपको लगेगा कि फ़िल्म आपके लिए ही बनी है और पर्दे पर जो शख्स दिख रहा है वो और कोई नहीं बल्कि आप हैं.
फ़िल्म को लेकर एक अच्छी बात ये है कि फ़िल्म एक दर्शक के रूप में आपको बिल्कुल भी उलझाती नहीं है. क्योंकि फ़िल्म में एक गैंगस्टर सत्तू भइया के रूप में पंकज त्रिपाठी सेन्टर में हैं इसलिए इस फ़िल्म...
यूं तो फिल्मों को लेकर तमाम बातें हक सकतीं हैं भांति भांति के तर्क दिए जा सकते हैं मगर सबसे सटीक यही होगा कि हम बस ये कहें कि फ़िल्म सिर्फ दो तरह की होती हैं एक अच्छी फिल्म दूसरी बुरी फ़िल्म. इसके बीच में कुछ नहीं होता. अच्छी फिल्म वो है जो एक दर्शक के रूप में हमें एंटरटेन करती है और बुरी फ़िल्म वो जिसे देखकर सिर्फ और सिर्फ हमारा समय बर्बाद होता है. ओटीटी प्लेटफॉर्म नेटफ्लिक्स पर भी एक फ़िल्म रिलीज हुई है नाम है लूडो. नहीं आप फ़िल्म के नाम पर मत जाइए अनुराग बसु निर्देशित इस फ़िल्म में वो तमाम चीजें हैं जो लूडो को उस पायदान पर पहुंचाती है जहां पहुंचने के बाद हम किसी फिल्म को सिर्फ अच्छे की कसौटी पर रखकर परखते हैं.
यूं तो फ़िल्म में गालियां और आदित्य रॉय कपूर की ओवरएक्टिंग है मगर इन कमियों को तब खारिज किया जा सकता है जब फ़िल्म की बाकी की कास्ट के रूप में हमारे पास राजकुमार राव, पंकज त्रिपाठी, अभिषेक बच्चन, रोहित सराफ, फातिमा सना शेख जैसे मंझे हुए कलाकार मौजूद हों.
फ़िल्म एक नहीं बल्कि कई कहानियों का समायोजन है और स्टोरी को कुछ इस अंदाज में पिरोया गया है कि एक दर्शक के रूप में हमें कहीं भी बोरियत का एहसास नहीं होने वाला. चूंकि फ़िल्म में तमाम कैरेक्टर्स हैं जिन्हें देखकर आपको एहसास होगा कि ये आम आदमी के जीवन से जुड़ी कहानियां हैं. अनुराग बसु की लूडो जिस तरह की फ़िल्म है आपको लगेगा कि फ़िल्म आपके लिए ही बनी है और पर्दे पर जो शख्स दिख रहा है वो और कोई नहीं बल्कि आप हैं.
फ़िल्म को लेकर एक अच्छी बात ये है कि फ़िल्म एक दर्शक के रूप में आपको बिल्कुल भी उलझाती नहीं है. क्योंकि फ़िल्म में एक गैंगस्टर सत्तू भइया के रूप में पंकज त्रिपाठी सेन्टर में हैं इसलिए इस फ़िल्म की सभी कहानियां उन्हीं के पास आकर ठहरती हैं और यही चीज फ़िल्म की यूएसपी है. फ़िल्म देखते हुए ये भी महसूस होगा मि ऐसा तो हमने लूडो के खेल में न सिर्फ देखा बल्कि उसे महसूस तक किया. nफ़िल्म क्योंकि कहानियों का कॉकटेल है इसलिए चाहे वो फ़िल्म में गैंगस्टर सत्तू भइया (पंकज त्रिपाठी) हों या फिर आकाश (आदित्य रॉय कपूर) और अहाना (सान्या मल्होत्रा) के बीच का प्यार फ़िल्म बताती है कि कपल की ज़िंदगी में भूचाल कैसे आता है जब कोई उनका सेक्स टेप वायरल कर दे.
फ़िल्म की एक कहानी में बिट्टू यानी अभिषेक बच्चन हैं जो क्रिमिनल के रोल में हैं और 6 साल बाद जेल से रिहा हो रहा है. जिसे रिहाई के बाद ये पता चलता है कि उसकी पत्नी और बेटी अपनी अपनी जिंदगी में आगे बढ़ गए हैं. इसके बाद अन्य कहानी फातिमा सना शेख की है जिसकी मदद के लिए उसके बचपन का प्यार आलोक उसकी मदद करता है.
जैसा कि हम बता चुके हैं फ़िल्म एक उम्दा फ़िल्म है जो मानवीय संवेदनाओं का बखूबी बयान करती है. एक बात और जो इस फ़िल्म को उसके नाम के अनुरूप बनाती है वो ये कि इस फ़िल्म को देखते हुए कुछ वैसी ही अनुभूति होती है जैसा अनुभव हम लूडो खेलते वक़्त करते हैं. फ़िल्म में हम ये भी देखेंगे कि आज के जमाने में कैसे लोग एक दूसरे की काट लगाते हैं.
चूंकि फ़िल्म में 4 कहानियों को एक मंच दिया गया है तो ऐसा भी नहीं है कि सब कुछ परफेक्ट हुआ है. फ़िल्म में कुछ मौके ऐसे भी आए हैं जहां पर बतौर निर्देशक अनुराग बसु की पकड़ ढीली हुई है. लेकिन फिर भी अनुराग ने फ़िल्म के साथ इंसाफ किया है. बात अगर फ़िल्म की हो तो क्यों कि फ़िल्म एक डार्क कॉमेडी है इसलिए दर्शक जब भी इस फ़िल्म को देखे तो शुरू से आखिर तक देखे. यदि आप सीन मिस करेंगे तो बहुत सी चीजें आप मिस कर देंगे.
फ़िल्म में अनुराग ने जिन भी कलाकारों को लिया है एक्टिंग के लिहाज से वो शानदार हैं इसलिए निराशा आपके हाथ नहीं लगेगी. अंत में हम बस ये कहकर अपनी बात को विराम देंगे कि फ़िल्म देखिए और ज़रूर देखिए कम ही मौके आते हैं जब इस तरह की फिल्में एक कुशल निर्देशक के निर्देशन में बनती है. याद रखिये ये फिल्म आपकी है जिसे देखते हुए आपको महसूस होगा कि आप खुद को पर्दे पर देख रहे हैं.
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