'...मुझे मुहब्बत से मुहब्बत है!' और फिर उनको ही मुहब्बत न मिले तो ज़िंदगी फिर ज़िंदगी कहां रहती है. वो बस एक उम्र की तरह हो जाती है जिसे सिर्फ़ गुज़ार दिया जाता है. जिया नहीं जाता. 'महज़बीं बेग़म' यानी मीना कुमारी (Meena Kumari) ने भी ज़िंदगी गुज़ारी ही जीने की कोशिश में. जिसे अपना सरमाया चुना उसी ने उसे ज़िंदगी की धूप में झुलसने को छोड़ दिया. ऐसा नहीं है कि महज़बीं को मुहब्बत नहीं हुई. उन्हें मुहब्बत हुई थी. निक़ाह भी उसी मुहब्बत से किया मगर वो जो नसीब में नहीं लिखा हो तो साथ हो कर भी साथ को तरसते हैं न, महज़बीं के साथ भी वही हुआ. बात उन दिनों की है जब 'महल' फिल्म को निर्देशित करने की वजह से रातों-रात स्टार बने कमाल अमरोही (Kamal Amrohi) की किसी मैगज़ीन में छपी तस्वीर मीना कुमारी ने देखी. तस्वीर के साथ नीचे निर्देशक और लेखक लिखा हुआ था. वही लेखक जहन में उतर गया मीना के. बिना किसी मुलाकात के मन ही मन चाहने लगी थी उस अज़नबी को (Meena Kumari-Kamal Amrohi Love Story). बाद में किसी मित्र के जरिये कमाल और मीना मिले.
कमाल ने तब अपनी अगली फिल्म के लिए उन्हें साइन किया. जिसका नाम अनारकली रखा था. ये और बात है कि कम बजट के चलते वो फिल्म कभी न बन पायी मगर मीना और कमाल एक दूसरे के साथ बंध गए हमेशा के लिए. जब कमाल ने मीना कुमारी को बतौर अभिनेत्री अपनी फिल्म के लिए चुना, उसी के कुछ दिन बाद मीना कुमारी का एक छोटा सा एक्सीडेंट हो गया. मीना अब पुणे के एक अस्पताल में भर्ती थी और कमाल मुंबई में रह गए.
लेकिन इश्क़ रूह को खींचता है अपनी तरफ. कमाल मीना से मिलने के लिए मुंबई से पुणे आने लगे. विनोद मेहता जिन्होंने बॉयोग्राफी लिखी है मीना कुमारी की, उन्होंने अपनी किताब में...
'...मुझे मुहब्बत से मुहब्बत है!' और फिर उनको ही मुहब्बत न मिले तो ज़िंदगी फिर ज़िंदगी कहां रहती है. वो बस एक उम्र की तरह हो जाती है जिसे सिर्फ़ गुज़ार दिया जाता है. जिया नहीं जाता. 'महज़बीं बेग़म' यानी मीना कुमारी (Meena Kumari) ने भी ज़िंदगी गुज़ारी ही जीने की कोशिश में. जिसे अपना सरमाया चुना उसी ने उसे ज़िंदगी की धूप में झुलसने को छोड़ दिया. ऐसा नहीं है कि महज़बीं को मुहब्बत नहीं हुई. उन्हें मुहब्बत हुई थी. निक़ाह भी उसी मुहब्बत से किया मगर वो जो नसीब में नहीं लिखा हो तो साथ हो कर भी साथ को तरसते हैं न, महज़बीं के साथ भी वही हुआ. बात उन दिनों की है जब 'महल' फिल्म को निर्देशित करने की वजह से रातों-रात स्टार बने कमाल अमरोही (Kamal Amrohi) की किसी मैगज़ीन में छपी तस्वीर मीना कुमारी ने देखी. तस्वीर के साथ नीचे निर्देशक और लेखक लिखा हुआ था. वही लेखक जहन में उतर गया मीना के. बिना किसी मुलाकात के मन ही मन चाहने लगी थी उस अज़नबी को (Meena Kumari-Kamal Amrohi Love Story). बाद में किसी मित्र के जरिये कमाल और मीना मिले.
कमाल ने तब अपनी अगली फिल्म के लिए उन्हें साइन किया. जिसका नाम अनारकली रखा था. ये और बात है कि कम बजट के चलते वो फिल्म कभी न बन पायी मगर मीना और कमाल एक दूसरे के साथ बंध गए हमेशा के लिए. जब कमाल ने मीना कुमारी को बतौर अभिनेत्री अपनी फिल्म के लिए चुना, उसी के कुछ दिन बाद मीना कुमारी का एक छोटा सा एक्सीडेंट हो गया. मीना अब पुणे के एक अस्पताल में भर्ती थी और कमाल मुंबई में रह गए.
लेकिन इश्क़ रूह को खींचता है अपनी तरफ. कमाल मीना से मिलने के लिए मुंबई से पुणे आने लगे. विनोद मेहता जिन्होंने बॉयोग्राफी लिखी है मीना कुमारी की, उन्होंने अपनी किताब में इस बात का ज़िक्र करते हुए लिखा है कि, 'जब कमाल आते थे तो वो साथ में मीना कुमारी के लिए चिट्ठियां लिख कर लाया करते थे. हॉस्पिटल में मीना भी उनके लिए चिट्ठियां लिख उनके आने का इंतज़ार करती थी. दोनों की मुलाक़ातों के पल छोटे होते थे इसलिए वो चिट्ठियों के ज़रिये बतिआते थे.'
बाद जब मीना कुमारी ठीक हो कर मुंबई लौटीं तो कमाल के बिना रह पाना उनके लिए नामुमकिन सा हो गया लेकिन अपने सख़्त अब्बू से मीना को बहुत डर लगता था. उन्हें अपने बचपन के वो दिन याद आने लगते जब उनके अब्बू उन्हें ज़बरदस्ती मार-पीट कर फिल्मों के सेट पर ले जाया करते थे. नन्हीं महज़बीं को पढ़ना था, अपना बचपन जीना था मगर उनके अब्बू ने न उनसे सिर्फ उनका बचपन छीना था बल्कि उन्हें स्कूल भी नहीं जाने दिया. उन्हें महज़ चार साल की उम्र में महज़बीं से बेबी मीना बना कर फिल्मों में काम करने पर मज़बूर कर दिया.
ऐसे पिता का ख़ौफ़ होना लाज़मी था मगर इश्क़ के आगे ख़ौफ़ कब तक टिक पाया है. 14 फ़रवरी 1952 में सारी दुनिया की नज़रों से बचते-बचाते मीना कुमारी ने निक़ाह कर लिया अपने महबूब से. एक ऐसा महबूब जो चिट्ठियां लिखा करता था. जो बचपन के मिले ज़ख्मों पर अपने इश्क़ का मरहम लगाता था. वो महबूब जो उनसे उम्र में कोई 13 साल बड़ा था लेकिन जिसके साये में मीना ख़ुद को सबसे ज़्यादा महफूज़ महसूस करती थी.
लेकिन ये निक़ाह वाली बात ज्यादा दिन तक अब्बूजान से मीना कुमारी छिपा नहीं पायी. निकाह के लगभग साल बाद यानी 1953 में अब्बू को पता चल गया कमाल के बारे में. उनके लिए बात बर्दाश्त के लायक़ नहीं थी क्योंकि कमाल की पहले से दो बीबियां और तीन बच्चें थे. ऊपर से वो मीना कुमारी से उम्र में भी काफी बड़े थे. उन्होंने निक़ाह तोड़ने की हर कोशिश कर ली मगर निक़ाह नहीं तोड़ पाए.
और मीना कुमारी अपनी कमाई सब धन-दौलत अब्बू के घर में छोड़ सिर्फ़ कुछ साड़ियां ले रात को अचानक कमाल के घर पहुंच गयी रहने. मीना कुमारी को लगा अब उनके सभी सपने सच होंगे. उनकी मुहब्बत मुक़्क़मल हो चली है. वो जो खुशियां उन्हें अब तक नसीब नहीं हुई अब होंगी मगर उनका ये सोचना ग़लत निकला.
कमाल अब पति बन गए और महबूब को कहीं पीछे छोड़ आये. उन्हें मीना कुमारी की सफ़लता से जलन होने लगी. वो उन पर शक करने लगे. उन्होंने मीना कुमारी के ऊपर तमाम पहरे बिठा दिए. मीना मुहब्बत में थीं उनके. वो उनकी हर ज़्यादती को प्यार समझ सिर-माथे पर बिठाती रही. लड़ाइयां न हो, ये रिश्ता बचा रहे इसलिए शाम साढ़े छे बजे तक वो हर हाल में घर वापिस लौट आती. मगर कमाल का मर्द वाला ईगो इन चीज़ों को कहां समझने को तैयार था.
ऐसा कहा जाता है कि 'दिल अपना और प्रीत पराई' के प्रीमियर पर किसी ने कमाल को मीना का पति कह कर तब किसी महाराष्ट्र के मंत्री से मिलवाया. इस बात से वो इस कदर खफ़ा हुए कि मीना कुमारी को वहां अकेले छोड़ घर चले गए. रोज-रोज के हो रहे झगड़े से उकता कर मीना कुमारी ने एक बार ये फैसला भी किया कि वो अब फ़िल्में नहीं करेंगी. उन्होंने सोचा शायद कोई बच्चा हो उन दोनों का तो यूं बढ़ती दूरियां फिर नज़दीकियों में सिमट आएंगी मगर कमाल को ये भी मंजूर न था.
कमाल को जानने वाले ये कहते हैं कि चूंकि कमाल शिया वर्ग की उच्च ‘सैयद’ जाति से आते थे और मीना कुमारी एक डांसर की बेटी थी. इसलिए उन्हें मीना कुमारी के साथ कोई बच्चा नहीं चाहिए था. ख़ुद ‘शायरा’ मीना ने जिस निर्देशक के नाम के नीचे लिखे 'लेखक' शब्द को पढ़ उनसे मुहब्बत कर बैठी थी वो लेखक उन्हें कभी मिला ही नहीं.
हां, निक़ाह से पहले महबूब में जरूर उन्होंने उस लेखक को थोड़ा जिया मगर निकाह के बाद वो सिर्फ पति बन कर रहे. कमाल के लिए मीना का छोटी जाति से होना, एक डांसर की बेटी का होना उनके लिए उनकी मुहब्बत से बड़ा निकला. मीना कुमारी की बहन ने अपने एक इंटरव्यू में कहा भी था कि, 'मीना कुमारी कभी अपनी निजी जिंदगी उजागर करने में यकीन नहीं रखती थी. उन्होंने हमेशा कमाल को ‘कमाल साहब’ कहा. लेकिन लोगों ने उनके चेहरे पर चोट के निशान भी देखे और फीकी मुस्कराहट के साथ उस दर्द को छुपाने की उसकी कोशिश को भी देखा.'
लेकिन आख़िर कब तक ख़ुद को मिटाती रहती मुहब्बत के नाम पर. जब कमाल ने उन पर पहरे बिठानेे शुरू कर दिया तो वो हार कर आखिर 12 साल बाद 1961 में उनका घर छोड़ आयी मगर मुहब्बत दिल से नहीं निकाल पायीं. कमाल से अलग होने के बाद मीना ने 'साहेब, बीवी और ग़ुलाम' में काम किया. उस फ़िल्म में निभाए 'छोटी बहू' के किरदार की ही तरह मीना कुमारी ने असली जीवन में भी काफी ज्यादा शराब पीना शुरू कर दिया.
जिससे प्रेम किया था वो उन्हें समझा नहीं, बाद में कई और मर्द आये उनकी ज़िंदगी में मगर सिर्फ अपने मतलब के लिए. एक बाप था जिसके लिए वो सिर्फ पैसे कमाने की मशीन भर थी. तो फिर जीती तो जीती किसके लिए वो? मीना कुमारी ने अपने एक इंटरव्यू में कहा भी था,
'ख़ुदा के वास्ते ग़म को भी तुम न बहलाओ
इसे तो रहने दो मेरा यही तो मेरा है.”
आख़िर कब तक लड़ती और किससे लड़ती. आप एक बार जिससे मुहब्बत कर लेते हो उससे नफ़रत कहां कर पाते हो. आप समझते हैं कि बदल लेंगे उस शख़्स को अपने प्रेम से. उसे समझा देंगे मायने प्रेम के लेकिन जब आप कुछ भी नहीं कर पाते हैं तब आप 'महज़बीं बेग़म' बन जाते हैं. और एक नहीं जिए जाने की उम्र में चले जाते हैं. इस दुनिया से उस दुनिया में. जहां से कोई लौट कर नहीं आता.
महज़बीं आप नहीं हो कर भी यहीं हैं इस दुनिया में. आप उन दिलों में नशा बन कर उतरती हैं जिनकी रूह मुहब्बत से बिंधी रहती है.
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