27 जुलाई को कृति सेनन के जन्मदिवस के अवसर पर उनकी फ़िल्म 'मिमी' नेटफ्लिक्स पर रिलीज़ कर दी गई. निर्धारित तिथि से चार दिन पहले आने के कारण, इस रिलीज़ को प्री-मैच्योर बेबी की उपमा भी दी गई है. लेकिन परिपक्वता की दृष्टि से यह फ़िल्म हर मायने में पूरी तरह खरी उतरती है. इधर हमारा समाज अभी तक इसी प्रश्न में ही उलझा हुआ है कि जन्म देने वाली या पालने वाली मां में से कौन बड़ा! हम माता देवकी और मैया यशोदा की तुलना सदैव करते आए हैं. लेकिन अब विज्ञान ने हमारा सिर खुजाने को एक वज़ह और दे दी है- सरोगेट मदर. सरोगेसी पर आधारित इस फ़िल्म 'मिमी' का ट्रीटमेंट बेहद मनोरंजक तरीके से किया गया है. यह अपने पहले ही सीन से इस हद तक बाँध लेती है कि फिर आप एक पल को भी बीच में उठना नहीं चाहेंगे.
बिना रोमांस और अश्लीलता के भी एक शानदार फ़िल्म बनाई जा सकती है.
हिन्दी फ़िल्म हो और उसमें कोई प्रेम कहानी न हो, यह बात हम भारतीय दर्शकों को चौंका सकती है. मिमी ठीक ऐसी ही है. इसमें नायक-नायिका दोनों हैं पर उनमें प्रेम नहीं. दोनों दोस्त भी नहीं हैं. नायिका मिमी के बॉलीवुड को लेकर अपने सपने हैं और वह खूब पैसा कमाना चाहती है.
नायक भानु भी यही चाहता है. एक विदेशी जोड़ा, सरोगेट मदर की तलाश में जयपुर आता है और जैसे इनके सपनों को मंज़िल मिल जाती है. बिना गरीबी का रोना रोए इस पूरी कहानी को बहुत ही सहजता से फ़िल्मांकित किया गया है.
कहानी में कई उतार-चढ़ाव आते हैं और यह सारे इमोशन्स को बड़ी ही खूबसूरती से साथ लेकर चलती है.
गंभीर विषय को गुदगुदाते हुए भी कहा जा सकता है.
हम हिन्दी फ़िल्मों के दर्शक जब सरोगेसी विषय देखते हैं तो सीधे-सीधे दो बातें दिमाग़ में आती हैं, पहली...
27 जुलाई को कृति सेनन के जन्मदिवस के अवसर पर उनकी फ़िल्म 'मिमी' नेटफ्लिक्स पर रिलीज़ कर दी गई. निर्धारित तिथि से चार दिन पहले आने के कारण, इस रिलीज़ को प्री-मैच्योर बेबी की उपमा भी दी गई है. लेकिन परिपक्वता की दृष्टि से यह फ़िल्म हर मायने में पूरी तरह खरी उतरती है. इधर हमारा समाज अभी तक इसी प्रश्न में ही उलझा हुआ है कि जन्म देने वाली या पालने वाली मां में से कौन बड़ा! हम माता देवकी और मैया यशोदा की तुलना सदैव करते आए हैं. लेकिन अब विज्ञान ने हमारा सिर खुजाने को एक वज़ह और दे दी है- सरोगेट मदर. सरोगेसी पर आधारित इस फ़िल्म 'मिमी' का ट्रीटमेंट बेहद मनोरंजक तरीके से किया गया है. यह अपने पहले ही सीन से इस हद तक बाँध लेती है कि फिर आप एक पल को भी बीच में उठना नहीं चाहेंगे.
बिना रोमांस और अश्लीलता के भी एक शानदार फ़िल्म बनाई जा सकती है.
हिन्दी फ़िल्म हो और उसमें कोई प्रेम कहानी न हो, यह बात हम भारतीय दर्शकों को चौंका सकती है. मिमी ठीक ऐसी ही है. इसमें नायक-नायिका दोनों हैं पर उनमें प्रेम नहीं. दोनों दोस्त भी नहीं हैं. नायिका मिमी के बॉलीवुड को लेकर अपने सपने हैं और वह खूब पैसा कमाना चाहती है.
नायक भानु भी यही चाहता है. एक विदेशी जोड़ा, सरोगेट मदर की तलाश में जयपुर आता है और जैसे इनके सपनों को मंज़िल मिल जाती है. बिना गरीबी का रोना रोए इस पूरी कहानी को बहुत ही सहजता से फ़िल्मांकित किया गया है.
कहानी में कई उतार-चढ़ाव आते हैं और यह सारे इमोशन्स को बड़ी ही खूबसूरती से साथ लेकर चलती है.
गंभीर विषय को गुदगुदाते हुए भी कहा जा सकता है.
हम हिन्दी फ़िल्मों के दर्शक जब सरोगेसी विषय देखते हैं तो सीधे-सीधे दो बातें दिमाग़ में आती हैं, पहली तो यह कि चूंकि गंभीर और नया विषय है तो इसमें बहुत ज्यादा उपदेशात्मक या ज्ञान भरी बातें होंगीं. और दूसरी वही मान मां की ममता से लबरेज़ महान भावनात्मक चित्रपट की तस्वीर आंखों में कौंध जाती है.
क्या करें, हमने त्याग, बलिदान, तपस्या में डूबी हुई रोने-धोने की इतनी फ़िल्में देख रखी हैं कि सिवाय इसके और कुछ और सोच ही नहीं पाते! लेकिन जैसा कि मिमी की टैगलाइन में भी कहा गया है कि 'इट्स नथिंग लाइक व्हाट यू आर एक्सपेक्टिंग' तो हम भी यही कहेंगे कि ये हमारी घिसी-पिटी सोच से हटकर एकदम नए कलेवर में बनाई गई फ़िल्म है.
यह फ़िल्म ज्ञान तो देती है पर उपदेश नहीं. इसके संवादों पर आप मुस्कुराते हुए हामी भरते जाते हैं. हास्य का पुट देते हुए गंभीर विषय को सहजता से कैसे समझाया जा सकता है, यह फ़िल्म उसका सटीक, सशक्त उदाहरण है.
हिन्दू-मुस्लिम साथ में हंसते भी हैं.
इस फ़िल्म में हिन्दू-मुस्लिम हैं पर उनके कट्टरपन को भुनाने की कोई चेष्टा नहीं की गई है. यहां एक-दूसरे को देखते ही उनका खून नहीं खौलता! लेकिन कुछ भी कहिए पर यह फ़िल्म भारतीय दर्शकों की नस जरूर पकड़ के रखती है. निर्देशक जानते हैं कि चोट भी कर दो और ज़ख्म दिखाई न पड़े. बल्कि यहां तो हमारी मानसिकता को सोच बार-बार हंसी ही आती है.
एक स्थान पर भानु स्वयं को मुसलमान बताता है और उस की टैक्सी पर जय श्री राम लिखा देख दो लोगों के चौंकने का अभिनय सहज हास्य पैदा करता है. वहीं जब मिमी की मां, स्थिति को समझे बिना मिमी के गर्भवती होने की खबर जान पछाड़ें खा छाती कूट रही होती है.
तभी उसे पता चलता है कि लड़का मुसलमान नहीं है. उस वक़्त उसके चेहरे की प्रसन्नता देखते ही बनती है. वो सारे दुख भूल इस बात से सुकून महसूस करती है कि लड़की ने ज्यादा नाक नहीं कटाई! एक जगह मिमी की सहेली शमा के घर जब भानु मुस्लिम बनकर रहता है तो उससे नमाज़ के बारे में किये गए प्रश्न पेशानी पर बल नहीं डालते बल्कि भीतर तक गुदगुदा जाते हैं.
हालांकि यह फ़िल्म अपने मूल विषय सरोगेसी से एक पल को भी हटती नहीं लेकिन फिर भी घर-परिवार से जुड़े हर दृश्य से एक जुड़ाव सा महसूस होता है और संवाद अपने से लगते हैं. यक़ीनन यह फ़िल्म कई सामाजिक धारणाओं को बदलने का माद्दा रखती है.
मानवीय संवेदनाओं और रिश्तों की खूबसूरती का संगम है मिमी
एक बच्चे के घर आने से कैसी रौनक आ जाती है और सब दुख बौने लगने लगते हैं, इसे अत्यंत भावुक और संवेदनशील तरीके से फिल्माया गया है. कई दृश्य ऐसे हैं जहां गला रुंधने को आता है पर अचानक ही कोई फुलझड़ी सी छूटती है और मन स्वयं को संभाल लेता है.
बच्चे से जुड़ाव और मोह के सारे रंग तो हैं ही इसमें, पर इसके साथ ही बच्चे, रिश्ते कैसे जोड़ देते हैं यह भी बड़ी सरलता और संतुलित ढंग से दिखाया गया है. वहीं गोरे बच्चे को लेकर जो आकर्षण है, उसे दिखाने में भी निर्देशक ने कामयाबी हासिल की है. बकौल भानु, 'रंगभेद से छुटकारा जाने कब मिलेगा'.
भानु के कोई बच्चा नहीं लेकिन उसके पास सरोगेट मदर अफोर्ड करने के लिए पैसा भी नहीं है. एक दृश्य में वह कहता है कि 'बच्चों को पढ़ाने के लिए लोन लेते हैं, पैदा करने के लिए कौन लेगा!' लेकिन वहीं वो विदेशी जोड़े को एक फ़िट सरोगेट मदर दिलाने में कोई क़सर नहीं छोड़ता.
एक अन्य जगह, जब मिमी बेहद निराश होकर उससे पूछती है कि वो अब तक उसका साथ क्यों दे रहा है? तो उसका जवाब है कि "ड्राइवर हूं,एक बार पैसेंजर को बिठा लिया तो हम उसे मंजिल पे छोडे बग़ैर वापिस नहीं लौटते'. जीवन-दर्शन का पाठ भी है यहां कि ;हम जो सोचते हैं वो ज़िंदगी नहीं होती है, हमारे साथ जो होता है वो ज़िंदगी होती है'.
ज़बरदस्त कलाकारों का कॉम्बो पैक है यह फ़िल्म.
मिमी के माता-पिता के रूप में सुप्रिया पाठक और मनोज पाहवा का अभिनय, अभिभूत कर देता है. उनके चेहरे के हाव भाव ही आधी बात कह जाते हैं. मिमी की सहेली शमा के रूप में सई बेहद प्रभावित करती हैं. उनकी बोलती आंखें दीप्ति नवल और स्मिता पाटिल की याद दिलाती हैं. पंकज त्रिपाठी के बारे में तो अब क्या ही और कितना कहा जाए!
हर फ़िल्म में वे अपनी कला से दर्शकों का दिल जीत लेते हैं. उनके लिए एक ही बात बार-बार ज़हन में आती है कि 'एक ही दिल है, कितनी बार जीतोगे!' कृति सेनन ने मिमी के चरित्र में जान फूँक दी है.
जहां भी उनका ज़िक्र होगा, मिमी खुद ब खुद उधर चली आएगी. यह फ़िल्म उनके करिअर में मील का पत्थर तो साबित होगी ही, साथ ही अब उनको ध्यान में रखते हुए कहानी भी लिखी जाया करेंगीं.
इस फ़िल्म की सफलता में इसकी ज़बरदस्त स्टार कास्ट का होना भी जरूर गिना जाएगा. हर कलाकार ऐसा है जिसकी जगह और किसी को सोचा ही नहीं जा सकता! सबने अपना-अपना रोल दमदार तरीक़े से निभाया है. जीत का सेहरा कलाकारों के सिर बांधते हुए, तालियों की गड़गड़ाहट इसके निर्देशक लक्ष्मण उटेकर के लिए भी होनी चाहिए.
क्योंकि उन्होंने ही यह साबित किया कि गंभीर विषय पर चर्चा मुस्कुराते हुए हो, तो उसका असर गहरा और प्रभावी होता है. ए.आर.रहमान का नाम देख यदि अपेक्षाएं हावी न हों तो गीत संगीत ठीक-ठाक है. यद्यपि फ़िल्म के इस पक्ष पर अधिक ध्यान नहीं जाता क्योंकि हमारा मन तो इस कहानी से इतर कहीं भटकता ही नहीं.
एक बार फिर याद दिला रहे हैं कि पहली फ़ुरसत में ही इसे देख डालिए, क्योंकि 'इट्स नथिंग लाइक व्हाट यू आर एक्सपेक्टिंग'. बधाई! हमारा सिनेमा बदल रहा है!
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