बीजेपी सरकार के दौरान "इंदू सरकार" जैसी फिल्म बनाना उतना ही आसान है, जितना कांग्रेस सरकार के दौरान गुजरात दंगों के बैकड्रॉप पर बनाई थी निर्देशक गोविंद निहलानी ने फिल्म "देव" जो 2004 में रिलीज़ हुई. 1975 में इमर्जेंसी के दौरान मशहूर निर्देशक गुलज़ार की फिल्म "आँधी" कुछ महीनों के लिये बैन कर दी गई थी क्योंकि कांग्रेस को लगा था कि लव स्टोरी इंदिरा गांधी की है. हालांकि, बवाल तो कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने "इंदू सरकार" पर भी मचाया लेकिन इस बार वो रिलीज़ ना रोक सके.
फिल्म शुरू होने से पहले "इंदू सरकार" में डिस्क्लेमर जरूर आता है कि सभी किरदार और कहानी काल्पनिक हैं, लेकिन उससे कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि कहने वालों ने कह दिया और समझने वालों ने समझ भी लिया. "इंदू सरकार" देखने से पहले कुछ प्रश्न उठते हैं दिमाग में तो चलिये खुद से करते हैं कुछ सवाल जवाब...
1) प्रश्न - पॉलिटिकल बैकड्रॉप की फिल्म क्यों देखें? उत्तर - जिन्हें राजनीति में दिलचस्पी है वो ये फिल्म जरूर देखना चाहेंगे, ख़ासतौर पर आज के दौर में जहाँ प्रधानमंत्री से लेकर संत्री तक सब मिलेंगे आपको सोशल मीडिया के प्लैटफ़ॉर्म पर. लोगों की रुचि इतनी बढ़ गयी है पॉलिटिक्स में. आज सोशल मीडिया पर सोशल बातें कम पॉलिटिक्स से जुड़ी बातें ज्यादा होती हैं.
फिल्म में एक डायलॉग है माँ बेटे की सरकार, संजय गांधी और इंदिरा गांधी पर कसा गया है, लेकिन माँ बेटे लफ़्ज़ से आज उसी ख़ानदान के दूसरे माँ बेटे यानि सोनिया और राहुल गांधी भी खयाल में आ जाते हैं, इसिलये विश्वसनीयता बढ़ जाती है.
2) प्रश्न - पर क्या चलेगी ये फिल्म?
उत्तर - फिल्म का बजट कम है और 1975 का इमर्जेंसी ड्रामा देखने वाले कम नहीं होंगे. कुछ इस लिये देखेंगे क्योंकि उन्हें पता है क्या हुआ था और...
बीजेपी सरकार के दौरान "इंदू सरकार" जैसी फिल्म बनाना उतना ही आसान है, जितना कांग्रेस सरकार के दौरान गुजरात दंगों के बैकड्रॉप पर बनाई थी निर्देशक गोविंद निहलानी ने फिल्म "देव" जो 2004 में रिलीज़ हुई. 1975 में इमर्जेंसी के दौरान मशहूर निर्देशक गुलज़ार की फिल्म "आँधी" कुछ महीनों के लिये बैन कर दी गई थी क्योंकि कांग्रेस को लगा था कि लव स्टोरी इंदिरा गांधी की है. हालांकि, बवाल तो कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने "इंदू सरकार" पर भी मचाया लेकिन इस बार वो रिलीज़ ना रोक सके.
फिल्म शुरू होने से पहले "इंदू सरकार" में डिस्क्लेमर जरूर आता है कि सभी किरदार और कहानी काल्पनिक हैं, लेकिन उससे कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि कहने वालों ने कह दिया और समझने वालों ने समझ भी लिया. "इंदू सरकार" देखने से पहले कुछ प्रश्न उठते हैं दिमाग में तो चलिये खुद से करते हैं कुछ सवाल जवाब...
1) प्रश्न - पॉलिटिकल बैकड्रॉप की फिल्म क्यों देखें? उत्तर - जिन्हें राजनीति में दिलचस्पी है वो ये फिल्म जरूर देखना चाहेंगे, ख़ासतौर पर आज के दौर में जहाँ प्रधानमंत्री से लेकर संत्री तक सब मिलेंगे आपको सोशल मीडिया के प्लैटफ़ॉर्म पर. लोगों की रुचि इतनी बढ़ गयी है पॉलिटिक्स में. आज सोशल मीडिया पर सोशल बातें कम पॉलिटिक्स से जुड़ी बातें ज्यादा होती हैं.
फिल्म में एक डायलॉग है माँ बेटे की सरकार, संजय गांधी और इंदिरा गांधी पर कसा गया है, लेकिन माँ बेटे लफ़्ज़ से आज उसी ख़ानदान के दूसरे माँ बेटे यानि सोनिया और राहुल गांधी भी खयाल में आ जाते हैं, इसिलये विश्वसनीयता बढ़ जाती है.
2) प्रश्न - पर क्या चलेगी ये फिल्म?
उत्तर - फिल्म का बजट कम है और 1975 का इमर्जेंसी ड्रामा देखने वाले कम नहीं होंगे. कुछ इस लिये देखेंगे क्योंकि उन्हें पता है क्या हुआ था और कुछ इसलिये देखेंगे क्योंकि उन्हें कुछ भी नहीं पता है, तो वो जानना चाहेंगे क्या हुआ था. सही या ग़लत तो बाद की बात है लेकिन तब तक फिल्म सेफ़ ज़ोन में जरूर पहुँच जायेगी.
3) प्रश्न - क्या "इंदू सरकार" फिल्म, संजय गांधी और इंदिरा गांधी के उपर है? उत्तर - ये फिल्म संजय और इंदिरा गांधी पर नहीं है लेकिन उन्होंने राजनीति में जो कदम उठाये, उस पर जरूर है.
अब कहानी "इंदू सरकार"
आवाज़ दबाने वालों के बीच कैसे जन्म हुआ आवाज़ उठाने वालों का. सन 1975 के राजिनीतिक माहौल के इर्द गिर्द बुनी एक ऐसी लड़की की कहानी है जो बोलते हुए भी हकलाती थी, जिसका नाम सिर्फ इंदू था और शादी के बाद हुआ "इंदू सरकार" उसकी एक ही तमन्ना थी कि वो शादी के बाद एक अच्छी पत्नी बन सके. बचपन में कविताओं का शौक़ बड़े होते हुए इसलिये खत्म कर दिया गया कि कविता से रोज़ी रोटी नहीं मिलेगी अपना ध्यान शादी पर रखें ना कि कविताओं पर. अनाथ इंदू इन सभी बातों पर अमल भी करती है और उसकी शादी एक सरकारी अफसर नवीन सरकार से हो जाती है. इंदू की ज़िंदगी में बदलाव तब आता है जब इमर्जेंसी के दौरान वो आम लोगों पर अत्याचार होते देखती है और ये भी देखती है कि उसका पति भी सरकार के चमचों में से एक है. वक्त इंदू को ऐसे दोराहे पर लाता है जहाँ उसे पति और उसूल में से एक को चुनना होगा. इंदू किसे चुनेगी और क्या वापस वो कविताओं को सरकार से लड़ने का औज़ार बना पायेगी या नहीं.
दिलचस्प कहानी और इमानदार पठकथा...
फिल्म में एक आम लड़की किस तरह से खास बनती है, उसके सफ़र को बेहद रोचक तरीके से दिखाया है. इमर्जेंसी के बैकड्रॉप का इस्तेमाल बख़ूबी किया गया है. इमर्जेंसी के दौरान सभी विवादों पर रौशनी डाली है. इंदिरा गांधी के राजनीतिक विरोधियों को क़ैद में डालना हो या बेटे संजय गांधी के कहने पर नसबंदी अभियान. किशोर कुमार के गानों पर बैन लगाने तक हर बात को उजागर किया है. हालांकि, फिल्म में संजय गांधी का नाम नहीं लिया गया उस किरदार को "चीफ़" कहकर संबोधित किया गया है और इंदिरा गांधी के लिये सिर्फ मम्मी जी या मैडम. हालांकि, दोनों कलाकरों के गेटअप और मेकअप हुबहू संजय गांधी और इंदिरा गांधी की तरह किये गये हैं. इंटरवल के पहले फिल्म की गति थोड़ी धीमी जरूर है लेकिन इंटरवल के बाद फिल्म पेस पकड़ लेती है और अंत तक बाँधने में कामयाब रहती है. मधुर भंडारकर और अनिल पांडे का स्क्रीनप्ले अच्छा भी है और सच्चा भी है. संजय छैल के डायलॉग्स "इंदू सरकार" की एक बेहद मज़बूत कड़ी हैं. एक्टिंग के डिपार्टमेंट टायटल रोल में कीर्ति कुलहरी ने हैरतअंगेज़ काम किया है पूरी फिल्म उनके कंधों पर है. फिल्म "पिंक" के जिरये उन्होंने पहले ही एहसास दिला दिया था कि वो बहुत अच्छी एक्ट्रेस हैं, इस फिल्म में वो एकदम और आगे बढ़ जाती हैं. हकलाती हुई लड़की जो कविता भी लिखती है, इस किरदार को कीर्ति ने मानो अपना बना लिया. कीर्ति के पति के रोल में टोटा रॉय चौधरी भी ग़ज़ब की एक्टिंग करते हैं. संजय गांधी जैसे दिखनेवाले "चीफ़" नील नितिन मुकेश एक ज़ालिम शासक के रोल में फ़िट बैठते हैं. छोटे मगर एहम किरदारों में शीबा चड्डा, अंकुर विकल, ज़ाकिर हुसैन और अनुपम खेर भी अपनी छाप छोड़ने में कामयाब होते हैं. कीको नाकाहारा की सिनेमेटोग्राफ़ी, नितिन देसाई का प्रोडक्शन डिज़ाइन क़ाबिले तारीफ है. फिल्म में दो गाने हैं जो फिल्म की लय के साथ जाते हैं. "फ़ैशन" के बाद निर्देशक मधुर भंडारकर एक बार फिर फ़ुल फ़ॉर्म में हैं. कुलमिलाकर पॉलिटिक्स और पॉलिटिकल बैकड्रॉप में दिलचस्पी रखने वाले फ़िल्मी दर्शक "इंदू सरकार" से निराश नहीं होंगे.
ये भी पढ़ें-
'लिपस्टिक...' देखकर यही लगा कि सेक्स मर्दों की बपौती नहीं है
नस्लभेद : नवाजुद्दीन तुम अमिताभ बच्चन, शत्रुघ्न सिन्हा और रेखा की लाइन में हो
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.