मुसलमानों को मानवीय मुद्दों पर लड़ना नहीं आता. आएगा भी कैसे? शायद प्रैक्टिस नहीं है. प्रैक्टिस तो अलग है. सौ साल पहले तुर्की में खलीफा हटाया गया, तो फोन-इंटरनेट न होने के बावजूद मुसलमानों ने एक होकर समूचे भारतीय उपमहाद्वीप में गदर काट दिया. 30 के दशक में महाशय राजपाल ने एक किताब छापी और पूरे देश में बवाल हो गया. शाहबानो केस से पूरे देश का मुसलमान बौखला गया, लेकिन महिला के लिए पुरुषों के लिए. और जब सलमान रुश्दी ने एक किताब लिखी- सैटनिक वर्सेज, तो देश के कई शहर जलने लगे. प्रधानमंत्री राजीव गांधी के नेतृत्व में भारत पहला देश था जिसने रुश्दी की किताब को बैन किया था.
शाहबानो केस तो मानो भारतीय इस्लाम पर संकट की तरह ही नजर आ रहा था तब. ज्यादा पुरानी बात नहीं, जब नागरिकता कानून के खिलाफ देश के हर शहर में एक शाहीनबाग बन गया था. हिजाब का मुद्दा भले महिलाओं ने उठाया, लेकिन इस पर पुरुषों का साथ इसीलिए मिला, क्योंकि मामला मजहब का था. पिछले दिनों कई शुक्रवार हुई पत्थरबाजी के पीछे की वजहों को देख लीजिए. गजब की एकजुटता नजर आती है. वजह ईशनिंदा थी.
लेकिन, बिल्किस बानो पर घड़ियाली आंसुओं के अलावा कुछ नहीं दिख रहा. प्यारे, कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक शांतिपूर्वक आंदोलन कर सकते थे. जबरदस्त एकजुटता दिखा सकते थे. कम से कम इस मुद्दे पर तो देश के हर मुहल्ले में एक शाहीनबाग बन जाना जरूरी था. शर्म आनी चाहिए. चुल्लू भर पानी में मत डूबना. डूबने के लिए कोई गहरा पोखरा या तालाब खोजना. पत्थरबाजी के लिए सेकेंड भर में तैयार हो जाते हो, मगर बिल्किस जैसे मामलों में शांतिपूर्वक तरीके से सड़क पर उतरकर विरोध जताना नहीं आता.
लग तो यही रहा है कि बिल्किस ज्यादा जरूरी चीज नहीं है. जरूरी सिर्फ मजहब है और मजहब के लिए जरूरी...
मुसलमानों को मानवीय मुद्दों पर लड़ना नहीं आता. आएगा भी कैसे? शायद प्रैक्टिस नहीं है. प्रैक्टिस तो अलग है. सौ साल पहले तुर्की में खलीफा हटाया गया, तो फोन-इंटरनेट न होने के बावजूद मुसलमानों ने एक होकर समूचे भारतीय उपमहाद्वीप में गदर काट दिया. 30 के दशक में महाशय राजपाल ने एक किताब छापी और पूरे देश में बवाल हो गया. शाहबानो केस से पूरे देश का मुसलमान बौखला गया, लेकिन महिला के लिए पुरुषों के लिए. और जब सलमान रुश्दी ने एक किताब लिखी- सैटनिक वर्सेज, तो देश के कई शहर जलने लगे. प्रधानमंत्री राजीव गांधी के नेतृत्व में भारत पहला देश था जिसने रुश्दी की किताब को बैन किया था.
शाहबानो केस तो मानो भारतीय इस्लाम पर संकट की तरह ही नजर आ रहा था तब. ज्यादा पुरानी बात नहीं, जब नागरिकता कानून के खिलाफ देश के हर शहर में एक शाहीनबाग बन गया था. हिजाब का मुद्दा भले महिलाओं ने उठाया, लेकिन इस पर पुरुषों का साथ इसीलिए मिला, क्योंकि मामला मजहब का था. पिछले दिनों कई शुक्रवार हुई पत्थरबाजी के पीछे की वजहों को देख लीजिए. गजब की एकजुटता नजर आती है. वजह ईशनिंदा थी.
लेकिन, बिल्किस बानो पर घड़ियाली आंसुओं के अलावा कुछ नहीं दिख रहा. प्यारे, कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक शांतिपूर्वक आंदोलन कर सकते थे. जबरदस्त एकजुटता दिखा सकते थे. कम से कम इस मुद्दे पर तो देश के हर मुहल्ले में एक शाहीनबाग बन जाना जरूरी था. शर्म आनी चाहिए. चुल्लू भर पानी में मत डूबना. डूबने के लिए कोई गहरा पोखरा या तालाब खोजना. पत्थरबाजी के लिए सेकेंड भर में तैयार हो जाते हो, मगर बिल्किस जैसे मामलों में शांतिपूर्वक तरीके से सड़क पर उतरकर विरोध जताना नहीं आता.
लग तो यही रहा है कि बिल्किस ज्यादा जरूरी चीज नहीं है. जरूरी सिर्फ मजहब है और मजहब के लिए जरूरी है सिर्फ भाजपा का सत्ता में नहीं होना और भाजपा सत्ता में नहीं हो, इसके लिए जरूरी है कांग्रेस, सपा, राजद, राकांपा, सीपीएम, सीपीआई, टीएमसी आदि आदि का जीतते रहना.
दुर्भाग्य से आजादी के बाद कई दशक तक ऐसा करते रहे, बावजूद उसका हासिल देख लो. भाजपा अपराजेय बन गई. और विपक्ष में इतनी कूवत नहीं कि वह गुजरात में भी सवाल उठा सके. गुजरात में चुनाव होने को है. इतना बड़ा मुद्दा है उसके बावजूद कांग्रेस चुप है. सोनिया गांधी और प्रियंका गांधी के रूप में दो दिग्गज महिलाएं कांग्रेस के सर्वोच्च नेताओं में हैं, बावजूद पार्टी चुप है.
तुम क्यों चुप हो? क्या बिल्किस के लिए तुम इसलिए नहीं लड़ रहे हो क्योंकि जिन्हें वोट देते हो- असल में वही लड़ना नहीं चाहते. राजस्थान के जालौर से सीखो, एक भारतीय अपने अधिकार के लिए कैसे लड़ता है?
अब यह मत कहना कि बिल्किस के लिए सड़क पर आओगे तो सरकार गोली मार देगी. इस मुद्दे पर लड़ने के लिए गुर्दा चाहिए. बाद बाकी रोते रहने का कोई इलाज है नहीं दुनिया में.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.