आज की तारीख में दर्शकों को सिनेमाघरों से तीन चीजों की अपेक्षा रखते हैं. एक तो- दिखाई जा रही फिल्म बेहतर हो. दूसरा- बहुतायत जनता उससे सहमत भी हो और तीसरा- फिल्म के टिकटों की कीमत आम दर्शकों के भी बजट में हो. अब 'लाइगर' जैसी फिल्म बनाकर 250 रुपये में टिकट बेंचे जाएंगे तो भला किस वजह से दर्शक सिनेमाघर में आना चाहेगा? और जब आप लगातार 'लाइगर' जैसी बकवास फिल्मों को पैसे की ताकत के दम पर उसके 'मास्टरपीस' होने का भ्रम फैलाते रहेंगे तो इस चक्कर में कभी कभार अच्छी फ़िल्में भी धारणाओं का शिकार होकर तबाह हो ही जाएंगी. वैसे सितंबर का चौथा शुक्रवार फिल्म बिजनेस के लिहाज से बॉलीवुड की आंखें खोलने वाला दिख रहा है.
आज नेशनल सिनेमा डे है. इस मौके पर तमाम थियेटर्स और मल्टीप्लेक्स में टिकटों की दरें कम कर दी गई हैं. प्रीमियम के टिकट 75 रुपये में उपलब्ध हैं. और सिनेमाघरों में 'चुप: रिवेंज ऑफ़ द आर्टिस्ट' के रूप में एक बेहतर थ्रिलर का विकल्प दर्शकों को मिला है. आर बाल्की ने चुप के लिए जो फ्रीव्यू का प्रमोशनल फंडा अपनाया था उसने पहले ही चुप के पक्ष में सकारात्मक माहौल तैयार कर दिया था. नेशनल सिनेमा डे पर टिकटों के दाम में जबरदस्त कटौती दिखी तो उसके अच्छे नतीजे सामने हैं. एक लंबे अरसे बाद पहले दिन चुप जैसी मध्यम स्केल की फिल्म के लगभग सभी शोज हाउसफुल हैं वह भी एडवांस बुकिंग में.
आईचौक ने दिल्ली-एनसीआर और मुंबई जैसे कुछ शहरों में एडवांस बुकिंग चेक की. एक दो सीटों को छोड़ दिया जाए तो शोज लगभग हाउसफुल हैं. उदाहरण के लिए नोएडा के व्यस्ततम सेक्टर 18 में भी एक मल्टीप्लेक्स में देर रात का आख़िरी शो भी पूरी तरह से हाउसफुल है. फोटो नीचे देख सकते हैं.
चुप के कंटेंट और नेशनल सिनेमा डे ने लगाईं आर बाल्की की...
आज की तारीख में दर्शकों को सिनेमाघरों से तीन चीजों की अपेक्षा रखते हैं. एक तो- दिखाई जा रही फिल्म बेहतर हो. दूसरा- बहुतायत जनता उससे सहमत भी हो और तीसरा- फिल्म के टिकटों की कीमत आम दर्शकों के भी बजट में हो. अब 'लाइगर' जैसी फिल्म बनाकर 250 रुपये में टिकट बेंचे जाएंगे तो भला किस वजह से दर्शक सिनेमाघर में आना चाहेगा? और जब आप लगातार 'लाइगर' जैसी बकवास फिल्मों को पैसे की ताकत के दम पर उसके 'मास्टरपीस' होने का भ्रम फैलाते रहेंगे तो इस चक्कर में कभी कभार अच्छी फ़िल्में भी धारणाओं का शिकार होकर तबाह हो ही जाएंगी. वैसे सितंबर का चौथा शुक्रवार फिल्म बिजनेस के लिहाज से बॉलीवुड की आंखें खोलने वाला दिख रहा है.
आज नेशनल सिनेमा डे है. इस मौके पर तमाम थियेटर्स और मल्टीप्लेक्स में टिकटों की दरें कम कर दी गई हैं. प्रीमियम के टिकट 75 रुपये में उपलब्ध हैं. और सिनेमाघरों में 'चुप: रिवेंज ऑफ़ द आर्टिस्ट' के रूप में एक बेहतर थ्रिलर का विकल्प दर्शकों को मिला है. आर बाल्की ने चुप के लिए जो फ्रीव्यू का प्रमोशनल फंडा अपनाया था उसने पहले ही चुप के पक्ष में सकारात्मक माहौल तैयार कर दिया था. नेशनल सिनेमा डे पर टिकटों के दाम में जबरदस्त कटौती दिखी तो उसके अच्छे नतीजे सामने हैं. एक लंबे अरसे बाद पहले दिन चुप जैसी मध्यम स्केल की फिल्म के लगभग सभी शोज हाउसफुल हैं वह भी एडवांस बुकिंग में.
आईचौक ने दिल्ली-एनसीआर और मुंबई जैसे कुछ शहरों में एडवांस बुकिंग चेक की. एक दो सीटों को छोड़ दिया जाए तो शोज लगभग हाउसफुल हैं. उदाहरण के लिए नोएडा के व्यस्ततम सेक्टर 18 में भी एक मल्टीप्लेक्स में देर रात का आख़िरी शो भी पूरी तरह से हाउसफुल है. फोटो नीचे देख सकते हैं.
चुप के कंटेंट और नेशनल सिनेमा डे ने लगाईं आर बाल्की की लॉटरी
कुल मिलाकर तमाम चीजों की वजह से आर बाल्की की लॉटरी लगती दिख रही है. और माना जा सकता है कि वे हिंदी सिनेमा के सबसे खराब कारोबारी दौर में बहुत आसानी से अपनी फिल्म को कामयाबी के रास्ते पर चढ़ता देखेंगे. वैसे भी ट्रेंड सर्किल में पहले दिन फिल्म का अनुमानित कलेक्शन अपेक्षाओं से बेहतर ही नजर आ रहा है. जिन थियेटर्स में चुप दिखाई जा रही है उसके बाहर टंगे हाउसफुल के दुर्लभ पोस्टर बॉलीवुड को काफी कुछ समझाइश दे रहे हैं. फिल्म बिजनेस में लगे स्टूडियोज, डिस्ट्रीब्यूटर्स, एग्जिबिटर्स की आंखें खोलने वाली समझाइश हैं ये.
सवाल सिर्फ क्सिई फिल्म के कंटेंट भर का नहीं है. कंटेंट बेहतर होना तो किसी भी मनोरंजक फिल्म के सफल होने की पहली शर्त है ही, मगर फिल्म को बेंचने के तरीके और टिकटों की कीमत का भी फिल्म बिजनेस में बहुत बड़ा योगदान होता है. लोग किसी फ़िल्म के लिए 500 या 1000 खर्च कर देंगे. लेकिन अगर उन्हें कंटेंट ही बेहतर ना मिले तो अगली बार जरूर उस पर सोच विचार करेंगे. और ढर्रे पर कंटेंट मिलता रहा तो भला कोई भी 500 या 1000 खर्च करने क्यों जाएगा? सिनेमाघरों में दर्शकों की संख्या बढ़ाने के फ़ॉर्मूले में कोई यक्ष प्रश्न नहीं है. वाजिब दर में टिकटों का होना भी दर्शकों को सिनेमाघर में आकर्षित करने के लिए पर्याप्त है. नेशनल सिनेमा डे पर वह दिखा.
हिंदी बेल्ट में सिनेमा के महंगे टिकट भी बड़ा सवाल हैं
वह भी उस स्थिति में जब हिंदी के व्यापक बेल्ट में सिंगल स्क्रीन्स लगभग ख़त्म हो चुके हैं. कभी यहां दर्शक 10 से 25 रुपये में फ़िल्में देख लिया करते थे. मल्टीप्लेक्स में टिकटों की कीमतें बहुत ज्यादा रहती हैं. जब तक ओटीटी का विकल्प नहीं था भीड़ मजबूरी में सिनेमा के लिए आती ही आती थी. मगर अब दर्शकों के पास फिल्मों को देखने के ज्यादा सुलभ माध्यम उपलब्ध है, और वे बहुत सोच विचारकर सिनेमाघर में किसी फिल्म को देखने पहुंचते हैं. दक्षिण में सिंगल स्क्रीन्स की मौजूदगी और टिकटों का सस्ता होना- कारोबारी रूप से फिल्म बिजनेस को फायदा पहुंचाने वाला है.
अब सवाल है कि क्या बॉलीवुड नेशनल सिनेमा डे पर टिकटों में रियायत और चुप की मार्केटिंग से कोई सबक सीखने की दिशा में आगे बढ़ेगा. अगर बॉलीवुड ने कुछ सीखा तो निश्चित ही आने वाले समय में इसके नतीजे बेहतर निकलेंगे और हिंदी बॉक्स ऑफिस के सामने दर्शकों की लंबी-लंबी कतारें होंगी. कंटेंट तो हमेशा किंग रहेगा ही. उसे कभी अनदेखा नहीं किया जा सकता.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.