रसोई निपटाकर थोड़ी देर आराम करने कमरे में आई हूं. सोचा था सो जाउंगी. आंख बंद होते ही पिछली रात देखी एक वेबसीरीज़ पाताल लोक (Paatal lok) के कुछ दृश्य, कुछ वाक्य और ढेरों गालियां मेरे नैपथ्य में भटकने लगी हैं. कोई फिल्म, कोई किताब, या कोई वेबसीरीज़ (Web Series) देखने के बाद आपके साथ ऐसा होता है या नहीं मेरे साथ होता है. कुछ वक़्त तक उसमे मैंने क्या देखा, क्या सुना यह दिमाग में रहता है. वैसा ही कुछ अभी हो रहा है. बेटी---, बहन की---, माँ की---, रंडी के---, ऐसी अनेकों गलियों (Abusive langugae) से सुसज्जित एक वेबसीरीज़ देखने के बाद मेरे कानों में सिर्फ यही-यही गूंज रहे हैं. ऐसा नहीं है कि ये शब्द मैंने पहले नहीं सुने. हम भारतीय परिवारों में 80 के दशक में पैदा हुई लड़कियां (Girls) तो अपने घरों में ये सुन्दर अलंकारों से सुशोभित हो जाती थीं. गुस्से में पिता कह दें, भाई कह दें, पड़ोसी से सुन लें. कानों में चुभते ये तीर भीतर तक उतरते रहते थे. धीमे-धीमे हम इनके आदी होते गए. फिर स्कूल-कॉलेज में आए. साथ में पढ़ने वाले लड़कों ने थोड़ा सम्मान देना शुरू किया. स्कूल्स में भी मैनर्स सिखाए जाने लगे. गाली बकने वाले लड़कों को बत्तमीज़ और लोअर ग्रेड का समझा जाने लगा. घरों में भी परिवर्तन आया. हमारे पिताओं की पीढ़ी ने भले इन गलियों को अपना तकियाकलाम बनाया हो लेकिन हमारे भाइयों ने यह एहतियात बरता कि वे कम से कम अपनी मां-बहन के सामने तो किसी की मां-बहन का शाब्दिक बलात्कार नहीं करते थे.
अकेले या पुरुष-गुट में भले ही अनेकों बार कर लें. वह कोई अपराध थोड़ी है, है ना? फिल्मों में, टीवी में भी शाब्दिक बलात्कार करने वाले इन अलंकारों पर रोक लगने लगी. फिल्टर्ड कंटेंट हम तक आया जिसमें गालियों की...
रसोई निपटाकर थोड़ी देर आराम करने कमरे में आई हूं. सोचा था सो जाउंगी. आंख बंद होते ही पिछली रात देखी एक वेबसीरीज़ पाताल लोक (Paatal lok) के कुछ दृश्य, कुछ वाक्य और ढेरों गालियां मेरे नैपथ्य में भटकने लगी हैं. कोई फिल्म, कोई किताब, या कोई वेबसीरीज़ (Web Series) देखने के बाद आपके साथ ऐसा होता है या नहीं मेरे साथ होता है. कुछ वक़्त तक उसमे मैंने क्या देखा, क्या सुना यह दिमाग में रहता है. वैसा ही कुछ अभी हो रहा है. बेटी---, बहन की---, माँ की---, रंडी के---, ऐसी अनेकों गलियों (Abusive langugae) से सुसज्जित एक वेबसीरीज़ देखने के बाद मेरे कानों में सिर्फ यही-यही गूंज रहे हैं. ऐसा नहीं है कि ये शब्द मैंने पहले नहीं सुने. हम भारतीय परिवारों में 80 के दशक में पैदा हुई लड़कियां (Girls) तो अपने घरों में ये सुन्दर अलंकारों से सुशोभित हो जाती थीं. गुस्से में पिता कह दें, भाई कह दें, पड़ोसी से सुन लें. कानों में चुभते ये तीर भीतर तक उतरते रहते थे. धीमे-धीमे हम इनके आदी होते गए. फिर स्कूल-कॉलेज में आए. साथ में पढ़ने वाले लड़कों ने थोड़ा सम्मान देना शुरू किया. स्कूल्स में भी मैनर्स सिखाए जाने लगे. गाली बकने वाले लड़कों को बत्तमीज़ और लोअर ग्रेड का समझा जाने लगा. घरों में भी परिवर्तन आया. हमारे पिताओं की पीढ़ी ने भले इन गलियों को अपना तकियाकलाम बनाया हो लेकिन हमारे भाइयों ने यह एहतियात बरता कि वे कम से कम अपनी मां-बहन के सामने तो किसी की मां-बहन का शाब्दिक बलात्कार नहीं करते थे.
अकेले या पुरुष-गुट में भले ही अनेकों बार कर लें. वह कोई अपराध थोड़ी है, है ना? फिल्मों में, टीवी में भी शाब्दिक बलात्कार करने वाले इन अलंकारों पर रोक लगने लगी. फिल्टर्ड कंटेंट हम तक आया जिसमें गालियों की जगह ‘बीप’ का इस्तेमाल होने लगा. इसका असर यह हुआ कि फ़िल्म/टीवी सीरियल बनाने वालों ने सोचा होगा कि जब बीप ही आनी है तो चलो इनके इस्तमाल पर कुछ कमी लाएं.
ऐसा नहीं था सिनेमा के रजतपट से गालियों के पुष्प बरसने बंद हो गए थे. कई फ़िल्में बनीं जिनमें, गुंडे-मवाली, पुलिस, नेता, पत्रकार या पुरुष के किसी रोल में इन शाब्दिक बलात्कार करने वाले अलंकारों ने अहम् भूमिका निभाई. मानो इनके बिना तो फ़िल्म बनेगी ही नहीं. हां लेकिन तब बस इतना ही सुकून था कि छोटे बच्चे जिनके हाथों में मोबाइल नहीं होते थे और सिनेमा देखने को घरवालों से छुपकर भी 14 साल के बाद जाना शुरू करते थे, खुल्लमखुल्ला इन अलंकारों को ना देखते थे, ना आज़माने की इच्छा रखते थे.
जो छुपकर किया जाए वह ग़लत है. और तब कम से कम बच्चे इस तरह की फिल्म देख चुके हैं यह घर में नहीं स्वीकारते थे. फिर समय बदला, कुणाल कामरा जैसे घटिया लोग हास्य जगत में उतरे और इन्होने, लं---, गां---, चु---, लौ--- जैसे शब्दों को इतना आम बना दिया कि इनके शो में अपने दोस्त के साथ बैठी लड़की को यह फ़र्क ही नहीं पड़ रहा था कि उसका शाब्दिक बलात्कार हो रहा है. एक स्त्री का शाब्दिक बलात्कार हो रहा है.
महमूद, अमोल पालेकर और जॉनी लीवर जैसे महान हास्य अभिनेता के देश की आगामी पीढ़ी को हास्य के लिए इतने गर्त में गिरना पड़ेगा यह उन्होंने नहीं सोचा होगा. हास्य का स्तर इतना गिर गया कि सिर्फ दस शब्दों के वाक्य में 9 शब्द गाली होने लगे. इस पर भी मज़े की बात यह थी कि इन जैसे सामाजिक-सांस्कारिक अपराधियों को खोखले आदर्शों से बना यह समाज बड़े चाव से सुनता. आहाहा करके न सिर्फ स्वाद लेता बल्कि 'एलीट एंड इन्टेलेक्ट' भी कहलाता.
मनोरंजन के नाम पर यह निम्न स्तरीय मानसिकता यहीं नहीं रुकी. बल्कि इसने संक्रमण से फ़ैलने वाली बिमारी की तरह पूरी सिनेमा/टीवी इंडस्ट्री को अपनी चपेट में लेनी लगी. सिनेमा बनाने वालों को यह लगने लगा कि गालियां और सेक्स के बिना जो बनेगा वह देखने लायक ही नहीं होगा. बिना गालियों वाले कंटेंट की टीआरपी वैसे ही गिरी जैसे इकीस्वीं सदी में भारतीय संस्कारों और सनातन मूल्यों की.
अब ग्यारह साल का बच्चा जिसके हाथ में मोबाइल है वह भी कुनाल कामरा और केरीमिनाटी जैसे लोगों के मुंह से गर्व से गलियां सुनता है. उन्हें प्रोत्साहित करता है. डिफेंड करता है. सोशल मीडिया पर यदि कोई इन्हें कुछ कह दे या ये किसी के विचारों से असहमत हों, ख़ासकर स्त्रियां तो ये फेक आईडी बनाकर उन्हें भर-भरकर गाली देते हैं, उनका शाब्दिक बलात्कार करते हैं. ऐसा करके इन्हें आत्म संतुष्टि मिलती है. ये ख़ुद को विजयी मानकर एक-दूसरे को शाबाशी देते हैं.
अधिकांश वेबसीरीज़ में कोई एपिसोड अगर बिना गाली के निकल जाए तो एकता कपूर के सीरियल्स की तरह मेरे मन मंदिरों के घंटे बजने लगते हैं, शंखनाद होने लगता है. मानो, यह असंभव कार्य कैसे हो गया. सिनेमा समाज का दर्पण है. इन गालियों को प्रमोट करने वाले कहते हैं यही हमारे समाज का सच है इसलिए परोसना पड़ता है. बेचारे मजबूर हैं. दयनीय स्थिति है इनकी. लेकिन क्या सिनेमा समाज को बदलने की ताक़त नहीं रखता?
अनगिनत ऐसे उदाहरण हैं जिनमें देखा जा सकता है कि कैसे किसी फिल्म को देखकर देश में एक बड़ा बदलाव आया. युवाओं में बड़ा बदलाव आया. तो क्या यह संभव नहीं कि किसी वेबसीरीज़ में कोई पुलिस वाला अपने जूनियर को सिर्फ इसलिए थप्पड़ मारे कि उसका तकियाकलाम ही मां-बहन की गालियां हैं.
क्यों पुरुषों को अपना फ्रस्टेशन निकालने के लिए औरतों के साथ शाब्दिक बलात्कार ही करना होता है? घर की बेटियों के बारे में ऐसा सुनकर दंगे तक करा देने वाले ये शब्द क्यों किसी दूसरे की मां-बहन-बेटी-बीवी के लिए अनुचित नहीं लगते? क्या आपने कभी सोचा है कि कितने तीख़े और विषभरे तीर की तरह चुभते हैं ये शब्द हम स्त्रियों को? क्या आपने कभी सोचा कि छोटे-छोटे से बच्चे फ़्लूएंट इंग्लिश की तरह फ़्लूएंट गाली देते यदि आपके घर में घूमें तो आपको कैसा लगेगा?
क्या किसी भी सिनेमा में यही पुलिस गाली नहीं देगी, अपराधी गाली नहीं देगा, या कोई भी पुरुष अपना फ्रस्टेशन निकालने गाली नहीं देगा तो वह अपना काम नहीं कर पाएगा? क्या इतना ही असंभव है गालियों के प्रयोग को रोका जाना और बिना शाब्दिक बलात्कार भोगे स्त्रियों का जी पाना? क्या OTT कंटेंट में भी अब फिल्ट्रेशन की अतिआवश्यकता नहीं आन पड़ी है?
अब आप दृश्य देखिए, एक लड़का उसे बुली करने वाले दूसरे लड़के की हत्या करता है. जिसकी हत्या हो रही है वह कहता है, 'सोचना भी मत मेरा पियो तेरी माँ च- देगा'. इसके बाद असल में उसका पिता हत्यारे के घर जाता है. और उसकी मां का बलात्कार एक नहीं 10 लोग करते हैं. तो आपको लगता है कि ये गालियां सिर्फ़ शाब्दिक होती हैं? जिनके असल में कोई इरादे नहीं होते? ये गालियां सिर्फ़ शब्द नहीं होते बल्कि शाब्दिक बलात्कार होते हैं जो आगे बढ़कर असलियत में बलात्कार जैसी भयावह घटना में बदल सकते हैं.
किसी की मां-बहन-बेटी-बीवी के बलात्कार की बात कहने वाला पुरुष सभ्य कैसे हो सकता है? मैं विचलित हूं. अपने मस्तिष्क में गूंजती उन गालियों से. यही कारण है कि मैंने अब इस तरह का कंटेंट देखना बंद कर दिया है. लेकिन 12 साल की उम्र में बलात्कार प्लान करने वाले बच्चे अगर सामने आएं, 8 से 10 साल की उम्र में 6 साल की बच्ची का बलात्कार करने वाले बच्चे सामने आएं, 8 से 12 साल के, तथाकथित सभ्य समाज के बच्चे अगर मां-बहन-बेटी की गालियां देते दिखें तो मुझे डर है, फ़िक्र है कि जाने और कितना भयानक अभी देखना बाक़ी है.
हमारे देश में जातिगत या धार्मिक भेदभाव को दर्शाते अपशब्द कहना अपराध है. बस स्त्रियों के किए हर दूसरे वाक्य में इस्तेमाल होने वाले ये शाब्दिक बलात्कारी अपशब्द अपराध नहीं हैं.
जाने कब तक हम घटिया मनोरंजन की गोली खाकर नशे में डूबे रहेंगे. जाने कब हम समझेंगे कि बलात्कार के खिलाफ़ आवाज़ उठाने का अर्थ सिर्फ सड़कों पर केंडिल मार्च करना या न्याय व्यवस्था को कटघरे में रखना नहीं होता बल्कि समाज की विकृत होती सूरत और सीरत को दुरस्त करना भी होता. उसका जिम्मा भी, उसके लिए क्रांति भी, उसके लिए आन्दोलन भी हमारा-आपका जिम्मा होता है.
ये भी पढ़ें -
Raktanchal Review: शक्ति, प्रतिशोध और रक्तपात का महाकाव्य है 'रक्तांचल'
Betaal Review: शाहरुख़ ख़ान करें दर्शकों की ज़िंदगी के वो 180 मिनट्स वापिस
Paatal Lok Review: पाताल लोक में आखिर मिल ही गया रोचक मनोरंजन
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.