Kaagaz Review And Rating: कागज़ की कहानी भरत लाल (Pankaj Tripathi) से शुरु होती है जो बैंड मास्टर है. इसकी अपनी दुकान है, ये 77 की दुनिया है. लोगों की सिमित ख़्वाहिशें हैं और सिमित ही संसाधन है, उसी में वो ख़ुश भी हैं. पर किसी की भी धर्मपत्नी कहां किसी की सिमित आय से संतुष्ट होती हैं. भरत की पत्नी रुक्मणि (Monal Gujjar) उससे दुकान बड़ी लेने के लिए कर्ज का सुझाव देती हैं. जब कर्ज के लिए जाते हैं तो पता चलता है वहां कुछ गिरवी रखने के लिए देना होगा. भरत अपनी पुश्तैनी ज़मीन के कागज़ लेने जब लेखपाल के पास पहुंचता है तो पता चलता है कि लेखपाल ने उसके चाचा से घूस खाकर उसे मृत घोषित कर दिया है. बस यहीं से अट्ठारह साल लम्बा चलने वाला संघर्ष शुरु होता है जिसमें साधुराम केवट (Satish Kaushik) भरत लाल 'मृतक' का वकील बनता है और भरत लाल अपनी बची-कुची जमा पूंजी भी वकीलों पर गंवा बैठता है.
सतीश कौशिक ने डायरेक्शन बहुत बैलेंस किया है. फिल्म कहीं पर भी खिंचती, बोझ बनती, बहुत सीरियस होती नहीं नज़र आती. शुरुआत सलमान खान के वॉइस ओवर से है जहां वो 'कागज़' टाइटल पर लिखी चार लाइन्स पढ़ रहे हैं. अंत भी सलमान के वॉइस ओवर से ही है, क्योंकि सलमान प्रोड्यूसर और प्रेसेंटर हैं इसलिए ये काम उनके जिम्मे आया. हर दस से पद्रह मिनट में कोई न कोई फनी सीन, कोई न कोई हंसी-ठहाके वाला सीक्वेंस ज़रूर मिलता है.
स्क्रीनप्ले टू-द-पॉइंट है. समस्या को दिखाने में भी सक्षम है, राजनीति पर फोकस भी करता है और माहौल भी लाइट रखता है. इम्तियाज़ हुसैन ने डायलॉग्स पर बहुत मेहनत की है, यूं तो बहुत से डायलॉग ज़बरदस्त हैं, कुछ उदहारण पेश है: -
देखिए, अख़बार...
Kaagaz Review And Rating: कागज़ की कहानी भरत लाल (Pankaj Tripathi) से शुरु होती है जो बैंड मास्टर है. इसकी अपनी दुकान है, ये 77 की दुनिया है. लोगों की सिमित ख़्वाहिशें हैं और सिमित ही संसाधन है, उसी में वो ख़ुश भी हैं. पर किसी की भी धर्मपत्नी कहां किसी की सिमित आय से संतुष्ट होती हैं. भरत की पत्नी रुक्मणि (Monal Gujjar) उससे दुकान बड़ी लेने के लिए कर्ज का सुझाव देती हैं. जब कर्ज के लिए जाते हैं तो पता चलता है वहां कुछ गिरवी रखने के लिए देना होगा. भरत अपनी पुश्तैनी ज़मीन के कागज़ लेने जब लेखपाल के पास पहुंचता है तो पता चलता है कि लेखपाल ने उसके चाचा से घूस खाकर उसे मृत घोषित कर दिया है. बस यहीं से अट्ठारह साल लम्बा चलने वाला संघर्ष शुरु होता है जिसमें साधुराम केवट (Satish Kaushik) भरत लाल 'मृतक' का वकील बनता है और भरत लाल अपनी बची-कुची जमा पूंजी भी वकीलों पर गंवा बैठता है.
सतीश कौशिक ने डायरेक्शन बहुत बैलेंस किया है. फिल्म कहीं पर भी खिंचती, बोझ बनती, बहुत सीरियस होती नहीं नज़र आती. शुरुआत सलमान खान के वॉइस ओवर से है जहां वो 'कागज़' टाइटल पर लिखी चार लाइन्स पढ़ रहे हैं. अंत भी सलमान के वॉइस ओवर से ही है, क्योंकि सलमान प्रोड्यूसर और प्रेसेंटर हैं इसलिए ये काम उनके जिम्मे आया. हर दस से पद्रह मिनट में कोई न कोई फनी सीन, कोई न कोई हंसी-ठहाके वाला सीक्वेंस ज़रूर मिलता है.
स्क्रीनप्ले टू-द-पॉइंट है. समस्या को दिखाने में भी सक्षम है, राजनीति पर फोकस भी करता है और माहौल भी लाइट रखता है. इम्तियाज़ हुसैन ने डायलॉग्स पर बहुत मेहनत की है, यूं तो बहुत से डायलॉग ज़बरदस्त हैं, कुछ उदहारण पेश है: -
देखिए, अख़बार में हमारी ख़बर छपियेगा, चुटकुला नहीं
ग़लती सुधारेंगे तो ये स्वीकारना पड़ेगा कि ग़लती हुई है.
एक्टिंग में सभी ने अपना बेस्ट दिया है. सारी फिल्म पंकज त्रिपाठी के कंधों पर है और उन्होंने निराश होने का कोई मौका नहीं दिया है. अपने इम्प्रोवाइज़ेशन से वो यहां भी नहीं चुके हैं, सतीश कौशिक के ख़ुद को केवट कहने पर वो तपाक से ओवर द शोल्डर शॉट में बोलते हैं 'आप फिर अयोध्या से हैं?' मोनल बहुत सुन्दर लगी हैं. उनकी डायलॉग डिलीवरी भी बहुत अच्छी है. पंकज और उनकी केमेस्ट्री नेचुरल लगी है. सतीश कौशिक का छोटा सा रोल अच्छा है, छोटे-छोटे सीन भी यादगार बन पड़े हैं. स्टोरी उन्हीं के नैरेशन में आगे बढ़ी है. मीता वशिष्ट का रोल बहुत अहम है, एमएलए बनी मीता अंत तक अपना प्रभाव छोड़ने में कामयाब रहती हैं. साथी कलाकारों ने भी अपना बेस्ट दिया है.
फिल्म का संगीत कर्णप्रिय है. प्रवेश मलिक ने लोक-गीतों की धुन में ही सरकारी कार्यालय की भ्रष्टता और आम इंसान की मजबूरी को अच्छे तरीके से संगीत में पिरोया है. कश्मीरी एक्ट्रेस संदीपा धर 'लालम-लाल' आइटम सांग में बहुत ख़ूबसूरत लगी हैं.
कुलमिलाकर 'कागज़' एक ऐसी फिल्म है जो सिर्फ बीते भारत का ही नहीं, आज मॉर्डन इंडिया का भी सच सामने लाती है. सरकारी दफ्तरों में चलने वाली घूस कैसे कितनों की ज़िन्दगी बर्बाद कर सकती है; ये दर्शाती है. इस कागज़ पर कुछ खबरें लिखी हैं और कुछ चुटकुले, पर इसका क्लाइमेक्स आपको अंदर तक झकझोर देने में सक्षम रहता है. कुल 1.45 घंटे की ये फिल्म ज़रूर देखी जानी चाहिए. ऐसी और फ़िल्में बननी चाहिए.
कुछ मेरे मन की भी
कागज़ जैसी फिल्म एक उदाहरण मात्र है कि कैसे आम भारतीय शरीफ नागरिक कैसे सिर्फ सरकारी दफ्तरों द्वारा ही नहीं, सारे समाज द्वारा छला जाता है क्योंकि वो पढ़ा-लिखा नहीं होता. अनपढ़ होना उसके लिए ऐसा क़र्ज़ हो जाता है जिसका ब्याज अगली, फिर अगली और आने वाली कई पीढ़ी चुकाती रहती हैं.
पढ़ने की, सीखने की कोई उम्र नहीं होती ये समझना बहुत ज़रूरी है, भरतलाल करैक्टर हमें ये भी सिखाता है कि अनपढ़ होना बुरा ज़रूर है, पर इसका आपकी बुद्धि से कोई लेना-देना नहीं है, नई चीज़ों को जानना, अपनी बुद्धि को तेज़ धार रखना और जब-तक ज़िंदा हो तबतक हार न मानना हमारे हाथ में हैं, ये हौसला ज़रूरी है. ये किसी भी कागज़ के टुकड़े से कहीं ज़्यादा कीमती चीज़ है.
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