'पठान' ने बखूबी सिद्ध कर दिया है कि बॉलीवुड के मसाले चूके नहीं है, एक्शन का माद्दा भी बचा है अभी. और मकसद भी यही था सो एक महान कहानी या शानदार पटकथा की अपेक्षा थी भी नहीं. फिर बॉलीवुड को दोष क्यों दें, हॉलीवुड यही तो करता रहा है. कुछ सालों से टॉलीवूड ने बॉलीवुड को मात दे रखी थी लेकिन एक बार फिर पठान ने सिद्ध कर दिया है कि टाइगर जिंदा है. रंगीन मसालों में लिपटा भरपूर एक्शन,अविश्वसनीय स्टंट, रोमांस, रोमांच परोसना बॉलीवुड भूला नहीं है. हां, सांस तो 'बादशाह' की अटकी पड़ी थी. चार साल पहले 'जीरो' ने उनको जीरो साबित कर दिया था, उसके पहले उनकी 'फैन', 'जब हैरी मेट सेजल', 'रईस' , 'डियर जिंदगी' भी पिट गई थी चूंकि व्यूअर्स को उनका बदलता मिजाज या उनकी स्वयं को बहुमुखी प्रतिभा का धनी बताने का प्रयास भाया जो नहीं था. एक ही चारा बचा था प्रयोग छोड़ फिर वही आजमाया जाय ताकि उनकी भिन्न भिन्न फिल्मों के नामों के काफिया का सिलसिला टूटे नहीं. यक़ीनन फिल्म के पहले दो दिन के बॉक्स ऑफिस के आंकड़ों ने आभास दिया है कि शायद किंग ख़ान पुनर्स्थापित हो जाएं और साथ ही बॉलीवुड भी प्रतिष्ठित हो जाए. परंतु कहीं सारे गुणा भाग अंततः आभासी ही ना रह जाये और हश्र वही ना हो जो ठग ऑफ़ हिंदुस्तान का हुआ था. चूंकि फिक्शन कमजोर है, अव्वल दर्जे की गिम्मिकी है, यथार्थ से कोसो दूर है, सो संभावनायें पूरी है कि सप्ताहांत तक पठान ख़ुद को ठगा सा महसूस करने लगे और फ़िल्म हिट तो कहलाये लेकिन सुपर हिट या ब्लाकबस्टर की राह तय न कर पाये.
'पठान' ने बखूबी सिद्ध कर दिया है कि बॉलीवुड के मसाले चूके नहीं है, एक्शन का माद्दा भी बचा है अभी. और मकसद भी यही था सो एक महान कहानी या शानदार पटकथा की अपेक्षा थी भी नहीं. फिर बॉलीवुड को दोष क्यों दें, हॉलीवुड यही तो करता रहा है. कुछ सालों से टॉलीवूड ने बॉलीवुड को मात दे रखी थी लेकिन एक बार फिर पठान ने सिद्ध कर दिया है कि टाइगर जिंदा है. रंगीन मसालों में लिपटा भरपूर एक्शन,अविश्वसनीय स्टंट, रोमांस, रोमांच परोसना बॉलीवुड भूला नहीं है. हां, सांस तो 'बादशाह' की अटकी पड़ी थी. चार साल पहले 'जीरो' ने उनको जीरो साबित कर दिया था, उसके पहले उनकी 'फैन', 'जब हैरी मेट सेजल', 'रईस' , 'डियर जिंदगी' भी पिट गई थी चूंकि व्यूअर्स को उनका बदलता मिजाज या उनकी स्वयं को बहुमुखी प्रतिभा का धनी बताने का प्रयास भाया जो नहीं था. एक ही चारा बचा था प्रयोग छोड़ फिर वही आजमाया जाय ताकि उनकी भिन्न भिन्न फिल्मों के नामों के काफिया का सिलसिला टूटे नहीं. यक़ीनन फिल्म के पहले दो दिन के बॉक्स ऑफिस के आंकड़ों ने आभास दिया है कि शायद किंग ख़ान पुनर्स्थापित हो जाएं और साथ ही बॉलीवुड भी प्रतिष्ठित हो जाए. परंतु कहीं सारे गुणा भाग अंततः आभासी ही ना रह जाये और हश्र वही ना हो जो ठग ऑफ़ हिंदुस्तान का हुआ था. चूंकि फिक्शन कमजोर है, अव्वल दर्जे की गिम्मिकी है, यथार्थ से कोसो दूर है, सो संभावनायें पूरी है कि सप्ताहांत तक पठान ख़ुद को ठगा सा महसूस करने लगे और फ़िल्म हिट तो कहलाये लेकिन सुपर हिट या ब्लाकबस्टर की राह तय न कर पाये.
कहानी का प्लॉट जस्ट टू इंडीकेट ओनली 2019 में भारत ने कश्मीर से धारा 370 हटाई तो पाकिस्तान के एक जनरल ने हिन्दुस्तान को सबक सिखाने के लिए एक खूंखार खलनायक जिम को भाड़े पर लिया. तीन साल बाद जिम ने भारत पर एक अजीब किस्म का हमला करने का प्लान किया. जिम को रोकने का काम मिला पठान को जो भारत का एक्स खुफिया एजेंट है. उसकी मदद को आगे आई रुबिया. ये दोनों मिले तो धमाके हुए. धमाके हुए तो खलनायक हारा और देशभक्त जीते.
कुल मिलाकर सिद्धार्थ आनंद ने एक साधारण सी कहानी कह दी है जिस पर लिखी स्क्रीन प्ले में झोल ही झोल रह गए. लेकिन मकसद झोल नहीं रहने देने का था ही नहीं तभी तो अफगानिस्तान के किसी जगह को अपना घर बताने वाले पठान को भारत ने पाला है. पाक की ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई तो पाक साफ़ है, जिम कभी इंडियन एजेंट ही था जो अब बागी हो गया है. इंडिया का एक साइंटिस्ट भी उसके साथ है आदि आदि. खैर ! फिक्शन है सो फिक्शन एन्जॉय कीजिये. हैरान परेशान होते रहिये कि क्या अत्याधुनिक और काल्पनिक हथियार हैं, ख़ुफ़िया एजेंसियों के पास.
बस, बेहद ही रोमांचक और एक्शन पैक इवेंट्स एन्जॉय कीजिये और फिर 'सिंघम' टाइप में सीक्वल नुमा सलमान खान की भी एंट्री होनी ही है ताली बजवाने के लिए. कुल मिलाकर पल दर पल हर वो मसाला है, हाई वोल्टेज एक्शन ड्रामा है, जिसे व्यूअर बावजूद इसके कि वह पहले देख चुका है, टकटकी बांधकर चकाचौंध होता रहता है जिसे बखूबी कंट्रीब्यूट करते हैं लोकेशंस, सैट्स, वी.एफ.एक्स., कैमरा और कभी कभी संवाद भी. सो तकनीकी फ्रंट पर फिल्म सुपर बन पड़ी है और यही मेकर की जीत है कि हम भी किसी से कम नहीं, साउथ की नामीगिरामी फिल्मों से बीस नहीं तो उन्नीस भी नहीं हैं.
कहीं की ईंट उठाई कही का रोड़ा उठाया और सिद्धार्थ आनंद ने इस कदर समायोजन किया, सिंक्रोनाइज़ किया कि लाजवाब खिचड़ी बन गई. जिन्होंने भी 'धूम' देखी है, समझते देर नहीं लगेगी उन्हें कि क्लाइमेक्स हूबहू कॉपी हो गया है 'पठान' में. ‘रक्तबीज’ के जिक्र से तुरंत एसोसिएट होता है 'जंगल बुक' की आग के लिए हिंदी में डब किया गया नाम 'रक्त फूल'. लेकिन यहां कोविड ने सिद्धार्थ को कॉन्सेप्ट दिया है रक्तबीज का एक बायोलॉजिकल वेपन के रूप में . संवादों में गहराई तो नहीं है लेकिन मौके सटीक चुने गए हैं कहलवाने के लिए और वही शाहरुख खान के फैन्स के लिए काफी है ताली बजाने के लिए, सीटी बजाने के लिए.
बोले तो संवादों में ही कहलवा दिया, 'पठान के वनवास का टाइम ख़त्म .... पार्टी 'पठान' के घर रखोगे तो मेहमानवाजी के लिए 'पठान' तो आएगा ही. साथ में पटाखे भी लाएगा... शाहरुख खान खूब जमते हैं, दीपिका पादुकोण भी कम नहीं है. हां ,जॉन अब्राहम बेहतर लगे हैं और डिंपल तथा आशुतोष राणा भी असर छोड़ते हैं. वाकई पठान पावर से शाहरुख़ खान की वापसी हुई है. #बॉयकॉट के हुजूम में दीपिका पादुकोण का विरोध वरदान सिद्ध हुआ है किंग खान के लिए. विश क्रेज कायम रहे.
एक खूब खरी बात भी कहते चलें शायद पहली फिल्म है 'पठान' जिसे देश का पूरा विपक्ष एक सुर में प्रमोट कर रहा है. क्यों कर रहा है, समझने के लिए किसी रॉकेट साइंस की जरूरत नहीं है, फील हो रहा है. और सच्ची सच्ची कहूं तो 'पठान' कामयाब हुआ है #HATEDIPIKA की नाकामयाबी से ! एक बात और, बेशर्म रंग से क्योंकर तकलीफ़ हो गई जबकि होनी तो 'उन्हें' चाहिए थी जिनके लिए रुबिया को हिजाब में होना चाहिए था बजाय हर हमेशा इरॉटिक कलेवर में ! दीपिका को क्यों दोष दें, उसने तो किरदार निभाया है. और किरदार ही ग्लैमरस गढ़ दिया गया हो, हालांकि अवांक्षित था और कल्चर के लिहाज से कुछ हद तक अनुचित भी, तो फिर दीपिका ग्लैमरस है, लुभाएगी और कमाल ही करेगी.
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