चोल हिंदू नहीं मुसलमान थे. सुन्नी, शिया या अहमदिया. नाना प्रकार के जितने भी मुसलमान हैं- पंक्तियों का लेखक प्रमाण सहित सिद्ध कर सकता है. आप बस डिमांड करिए. चोलों को सुन्नी या शिया किस रूप में देखना चाहते हैं. या उनके किसी और सुविधाजनक कस्टमाइज रूप भी चाहते हों तो मिल जाएगा. चोलों को मुसलमान सिद्ध करना बिल्कुल भी मुश्किल काम नहीं है. यह अकबर को महान बताने के काम से ज्यादा आसान है. बावजूद कि कुछ सिद्ध करने से असलियत पर कोई फर्क नहीं पड़ता. चोल, वही रहेंगे जो वे थे. सिवाय इसके कि खुश होने वालों को बस एक बेहतर पल मिल जाएगा. अकबर महान बादशाह था- यह बात एक हाथ में तलवार और दूसरे हाथ में कलम रखने वाले उसके जीवनीकार अबुल फजल से लेकर आजकल 'फाउंडेशन वित्त पोषित इतिहास' में दिलचस्पी लेने वाले जामिया मिल्लिया के रिटायर्ड बुजुर्ग लेखक असगर वजाहत दोहराते ही रहते हैं.
ऐसे लाखों 'अशराफी वजाहतों' की भारतीय इतिहास को लेकर चुल्ल पिछले हजार साल से निरंतर जारी है. बिना थके, बिना रुके. सैकड़ों किताबें, हजारों शोध, लाखों लेख- अबतक अकबर को महान बताने के लिए लिखे जा चुके हैं. करीब-करीब तीन दर्जन फ़िल्में, धारावाहिक- हिंदी में मिल जाएंगी. इनमें अकबर को महान ही दिखाया गया है. दर्जनों टीवी सीरियल, वेबसीरीज और डॉक्युमेंट्री भी. और यह आख़िरी नहीं है. आगे भी किताबें लिखी जाएंगी. फ़िल्में बनेंगी. बावजूद अगर एक तबके (वह भी सिर्फ अशराफ) के अलावा कोई उस लम्पट, तानाशाह और सनकी बादशाह को महान नहीं मानता तो कहीं ना कहीं जबरदस्त केमिकल लोचा है. यह कट्टरपंथी घृणा के शिकार हुए लोगों की पराधीनता और अपमान की पीढ़ीगत स्मृति का केमिकल लोचा है. यह अजर, अमर और अविनाशी है. स्मृतियों को जबरदस्ती रोपा नहीं जा सकता है और लाख कोशिशों के बावजूद बदला भी नहीं जा सकता. सिर्फ माफी मांगकर कड़वाहट को दूर किया जा सकता है.
यहां अकबर का संदर्भ सिर्फ इसलिए है- जैसे वह भारतीयों में महान होने का सर्टिफिकेट नहीं पा सका बावजूद कि बच्चों को तमाम पाठ्यक्रमों की वजह से अपने निबंध में उसे महान ही...
चोल हिंदू नहीं मुसलमान थे. सुन्नी, शिया या अहमदिया. नाना प्रकार के जितने भी मुसलमान हैं- पंक्तियों का लेखक प्रमाण सहित सिद्ध कर सकता है. आप बस डिमांड करिए. चोलों को सुन्नी या शिया किस रूप में देखना चाहते हैं. या उनके किसी और सुविधाजनक कस्टमाइज रूप भी चाहते हों तो मिल जाएगा. चोलों को मुसलमान सिद्ध करना बिल्कुल भी मुश्किल काम नहीं है. यह अकबर को महान बताने के काम से ज्यादा आसान है. बावजूद कि कुछ सिद्ध करने से असलियत पर कोई फर्क नहीं पड़ता. चोल, वही रहेंगे जो वे थे. सिवाय इसके कि खुश होने वालों को बस एक बेहतर पल मिल जाएगा. अकबर महान बादशाह था- यह बात एक हाथ में तलवार और दूसरे हाथ में कलम रखने वाले उसके जीवनीकार अबुल फजल से लेकर आजकल 'फाउंडेशन वित्त पोषित इतिहास' में दिलचस्पी लेने वाले जामिया मिल्लिया के रिटायर्ड बुजुर्ग लेखक असगर वजाहत दोहराते ही रहते हैं.
ऐसे लाखों 'अशराफी वजाहतों' की भारतीय इतिहास को लेकर चुल्ल पिछले हजार साल से निरंतर जारी है. बिना थके, बिना रुके. सैकड़ों किताबें, हजारों शोध, लाखों लेख- अबतक अकबर को महान बताने के लिए लिखे जा चुके हैं. करीब-करीब तीन दर्जन फ़िल्में, धारावाहिक- हिंदी में मिल जाएंगी. इनमें अकबर को महान ही दिखाया गया है. दर्जनों टीवी सीरियल, वेबसीरीज और डॉक्युमेंट्री भी. और यह आख़िरी नहीं है. आगे भी किताबें लिखी जाएंगी. फ़िल्में बनेंगी. बावजूद अगर एक तबके (वह भी सिर्फ अशराफ) के अलावा कोई उस लम्पट, तानाशाह और सनकी बादशाह को महान नहीं मानता तो कहीं ना कहीं जबरदस्त केमिकल लोचा है. यह कट्टरपंथी घृणा के शिकार हुए लोगों की पराधीनता और अपमान की पीढ़ीगत स्मृति का केमिकल लोचा है. यह अजर, अमर और अविनाशी है. स्मृतियों को जबरदस्ती रोपा नहीं जा सकता है और लाख कोशिशों के बावजूद बदला भी नहीं जा सकता. सिर्फ माफी मांगकर कड़वाहट को दूर किया जा सकता है.
यहां अकबर का संदर्भ सिर्फ इसलिए है- जैसे वह भारतीयों में महान होने का सर्टिफिकेट नहीं पा सका बावजूद कि बच्चों को तमाम पाठ्यक्रमों की वजह से अपने निबंध में उसे महान ही लिखना पड़ा, वैसे ही चोलों को परिभाषित करने या उन्हें खारिज करने की जरूरत नहीं है. चोलों का जो महान इतिहास कल था, वही आज भी है और हजारों साल तक वही रहेगा. हां, यह बात दूसरी है कि वेट्रीमारन या कमल हासन को चोलों के इतिहास को लेकर जो चुल्ल हुई है, उसपर बात होनी चाहिए. वेट्रीमारन ने कह दिया कि चोल हिंदू नहीं थे. कमल हासन ने भी उनका बचाव किया. चोल कौन थे किस धर्म के थे, किसी को जानने की आवश्यकता नहीं और बताने की भी जरूरत नहीं. जिन्हें जानना है वह तमिलनाडु घूमकर उनका डीएनए चेक कर सकते हैं. वह भी बिना प्रयोगशाला में गए.
वेट्रीमारन और कमल हासन बस इस कोशिश में हैं कि किसी भी तरह टाट का पर्दा डालकर तूफ़ान को रोक दिया जाए. वह तूफ़ान जो तमिलनाडु और उससे बाहर 'पोन्नियिन सेलवन 1' वजह से उठ चुका है. आखिर कुछ मिनटों की एक फिल्म में ऐसा क्या है जो औपनिवेशिक फाउंडेशनों से वित्तपोषित इतिहासकारों और फिल्ममेकर्स और राजनीतिकों को नंगा कर दिया है. दक्षिण में वेट्रीमारन के बयान से पहले कैम्पेन चला कि तमिल हिंदू ही नहीं हैं. उत्तर में वरिष्ठता के बोझ में दब चुके लिजलिजे रिटायर्ड पत्रकारों की टीम ने तंज कसा- फिल्म इस वजह से भी देखने लायक नहीं कि इसे समझने के लिए बहुत रिसर्च की जरूरत है. और तो और इसका टाइटल ही कितना अजीब है- पोन्नियिन सेलवन 1. टाइटल ऐसा भी होता है क्या? बकवास फिल्म है. समझ ही नहीं आता कि मणिरत्नम कहना क्या चाहता है. असल में यह तमिल का अपमान कर हिंदी के नाम पर एक विवाद खड़ाकर उत्तर में फिल्म को कमजोर करने की ही कोशिश का हिस्सा है. बावजूद कि उन्हें पता है- फिल्म की कहानी असल में क्या है.
एक और मजेदार चीज यह भी कि दुनियाभर में कमाई का कीर्तिमान बनाने वाली फिल्म, जिसकी हिंदी बेल्ट में भी डिमांड है- मगर उत्तर में पर्याप्त शोकेसिंग ही नहीं मिली है अबतक. ब्रह्मास्त्र चार हफ्ते से भी ज्यादा समय से सिनेमाघरों में टंगी है. पोन्नियिन सेलवन 1 को हिंदी बेल्ट में उससे भी कम स्क्रीन दिए गए हैं. क्यों भला? क्या हिंदी बेल्ट के डिस्ट्रीब्यूटर सिर्फ बॉलीवुड से पैसे कमाना चाहते हैं या इसके पीछे बात कुछ और है. विक्रम वेधा, ब्रह्मास्त्र जैसी सिसक रही फिल्म को जबरदस्ती घसीटा जा रहा है. यानी साफ़ है कि कुछ लोग हैं जो नहीं चाहते, इसे बहुत देखा जाए. फिल्म का कमाल बिजनेस देखिए- यह जहां भी है बम्पर देखी जा रही है. हफ्तेभर में इसने 350 करोड़ का ग्लोबल बिजनेस कर लिया है. सिर्फ हफ्तेभर में. हिंदी में भी अपनी क्षमता के मुताबिक़ जबरदस्त कलेक्शन है जो इसी अवधि में 15 करोड़ के आसपास है.
अब सवाल है कि चोलों की कहानी तो एक साम्राज्य की उपलब्धियों की कहानी है. हर भारतीय को अपने महान योद्धाओं पर गर्व करना चाहिए. फिल्म पर बात करने की बजाए उसके आसपास क्यों बहस खड़ी की जा रही हैं? असल में फिल्म का विषय ही परेशान करने वाला है. इसमें अनेक नैरेटिव ध्वस्त करने वाली बातें हैं. सांप बिच्छुओं के देश वाला वो नैरेटिव जिस पर एक पूरी राजनीति है, जबरदस्ती थोपी गई भारत विरोधी भावनाएं हैं, धर्मांतरण का गोरखधंधा है और धार्मिक उपनिवेशों के बलात्कार हैं. यह सिर्फ चोलों के साम्राज्यभर की कहानी नहीं है. इसमें देश के प्राचीन समाज और धर्म का आइना भी दिखता है. जिसे इतना बदल दिया गया कि वर्तमान ही सच मां बैठे हैं तमाम लोग. इसमें अपमानित होने वाला इतिहास नहीं बल्कि गर्व करने वाले हैरतअंगेज किस्सा है. यह कई प्रचारित धारणाओं को नष्ट कर देती है. भारत जातियों का देश है- यह बताने की जरूरत नहीं. लेकिन प्राचीन भारतीय समाज क्या वैसा ही था जिस तरह की परिभाषाएं पेश की जाती हैं? असल में विदेशी आक्रांताओं से पहले के भारत का स्वरूप इसमें नजर आता है. यह सिर्फ चोलों ही नहीं दक्षिण में पल्लव, सातवाहन, चालुक्य, चेर, पांड्य आदि साम्राज्यों की कहानी में भी दिख जाएगा. उत्तर में भी है बस उसके सबूत मुगलिया आर्किटेक्ट में इस्तेमाल कर लिए गए तो खुली आंखों नहीं दिखते.
यह दुर्भाग्य का विषय है कि हम अपना ही इतिहास नहीं जानते, या हमें जानने नहीं दिया गया. या उसे महत्वहीन बना दिया गया. ऐसा क्यों? चोलों का इतिहास हिंदू धर्म में जन्म आधारित जाति व्यवस्था को खारिज करने के लिए पर्याप्त है. अब चोलों को अहिंदू घोषित कर दिया जाए तो जन्म आधारित जाति व्यवस्था का नैरेटिव बना रह जाएगा. चोलों को द्रविड़ घोषित कर दिया जाए तो उत्तर के जातिगत नैरेटिव बने रहेंगे. चोलों का इतिहास यह भी खारिज करता है कि सिर्फ कुछ जातियों का संसाधनों पर वर्चस्व था. चोलों को अहिंदू बता दिया जाएगा तो सवर्ण-अवर्ण का जो नैरेटिव इस्लाम और ईसाइयत के आगमन के बाद गढ़ा गया, वह भी बचा रहेगा. कुछ लोगों का इसे बचाए रखना इसलिए भी जरूरी है कि उनकी धार्मिक-राजनीतिक दुकान तो इसी पर चलती है. बावजूद कि आज की तारीख में जाति व्यवस्था बहुत बेहतर है. उसमें असंख्य खामियां हैं.
तमिलनाडु में पेरियार के ब्राह्मण विरोधी आंदोलन की वजह से वहां ब्राह्मण और शूद्र कॉन्सेप्ट दिखता है. शूद्र में भी दो बड़े विभाजन हैं जो सामजिक पिछड़ेपन के आधार पर अंग्रेजों ने बनाए थे. एक ओबीसी के रूप में और दूसरा दलित आदिवासी या अछूत जातियों के रूप में. जबकि जनरल, ओबीसी, या एससी एसटी से किसी जाति का सही-सही अंदाजा नहीं मिलता. हर राज्य में उसका रूप अलग है. लेकिन द्रमुक राजनीति ने इसी सुविधाजनक विभाजन को अपना राजनीतिक आधार बनाया. वह ब्राह्मण को आर्य व्यवस्था मानती है. आर्य यानी जो बाहर से आई जनजातियाँ थीं, जिन्होंने द्रविड़ों को दक्षिण की तरफ खदेड़ा. तमिलनाडु या दक्षिण के तमाम इलाकों में इस आधार पर भी हिंदुओं का विरोध किया जाता है. इसमें शैव और वैष्णव मतों के संघर्ष का तर्क घुसेड़ा जाता है. बात दूसरी है कि भारत का अपना डीएनए एक है. यह भी विज्ञान प्रमाणित है. लेकिन संघर्ष की इन्हीं बहसों के सहारे वहां बड़े पैमाने पर धर्मांतरण कराए गए. और अब तक कि राजनीति के केंद्रीय मुद्दे में उनका दबदबा है.
बावजूद कि विरोधाभास साफ़ साफ़ नजर आते हैं. यह सोचने वाली बात है कि जिस राज्य में ब्राह्मण आबादी मुश्किल से 8 प्रतिशत भी नहीं है और इसमें भी एक बहुत बड़ा हिस्सा बाहर जा चुका है. ज्यादातर शहरी आबादी. उनकी तरफ से किसी भी तरह की हिंसक प्रतिक्रिया के उदाहरण नहीं मिलते. सरकार के आश्रय में दखल का तो सवाल ही नहीं, क्योंकि सरकारें घोषित ब्राह्मण विरोधी राजनीति की हैं.यहां तक कि पिछले दिनों जब स्टालिन सरकार ने मंदिरों में दलित और ओबीसी पुजारियों की नियुक्ति के लिए क़ानून लाया तब भी उसका विरोध नहीं दिखा. जब कांची के शंकराचार्य पर हत्या जैसे गंभीर और फर्जी आरोप लगाए गए थे तब भी वहां कोई सामूहिक हिंसक विरोध नहीं दिखा. बाद बाकी वे बाइज्जत बरी हुए.
उसी तमिलनाडु का दूसरा रूप क्या है? 347 गांवों को 'अट्रोसिटी प्रोन' माना गया. यानी यहां बेतहाशा उत्पीड़न के मामले मिले. इसी साल के सरकारी आंकड़े हैं. 2016 से 2020 के अंदर 300 हत्याएं हुईं और उसके शिकार दलित आदिवासी थे. यह भी सरकारी डेटा है. उत्पीड़न के दुर्लभ मामलों में ब्राह्मण आरोपी हैं. फिर पेरियार की परिभाषा में कौन से वाले शूद्र (ओबीसी) आरोपी हैं? दलितों-आदिवासियों के उत्पीड़न की हालत उस राज्य की है जहां कथित रूप से ब्राह्मणवाद विरोधी राजनीति का बोलबाला लंबे वक्त से है. पक्ष-विपक्ष में सभी द्रमुक पार्टियां हैं. और लगभग 5 दशक से उनका वहां वर्चस्व है. जयभीम में उत्पीड़न की जो कहानी दिखती है वह भी द्रमुक शासन के दौरान का ही है किसी और के नहीं.
लेकिन इसे वहां दूसरे नजरिए से देखें तो राजनीतिक रूप से अति पिछड़ी जातियों में शुमार तमाम जातियों का ऐतिहासिक आधार सीधे चोलों से जुड़ता हैं. पेरियार के संग्रहालय में टंगी उनके पुरखों की तलवार क्या कच्चे नारियल काटने के लिए थी?
PS-1 में Vallavaraiyan Vandiyadevan का किरदार जिसे कार्ति ने निभाया है- वह वन्नार जाति के महान सरदार बताए जाते हैं. इस जाति का पारंपरिक व्यवसाय कपड़े धोना है. चोल सम्राट की बहन उनसे ब्याही थीं. विक्रम ने मिस्र के पिरामीड के बहाने तंजौर के जिस मंदिर का जिक्र किया था वहां भी इनका विवरण है. द्रमुक राजनीति में वन्नार, तीन चार सबसे अहम जातियों में है. अब सवाल है कि चोल उच्च जाति के थे फिर उनकी बहन एक निचली जाति के सरदार से कैसे ब्याही थी? और चोल शूद्र अनार्य थे तो आर्य ब्राह्मण व्यवस्था कैसे थी? ब्राह्मण चोलों के साम्राज्य की एक महत्वपूर्ण ईकाई थे. और अगर ब्राह्मण चोलों के साथ थे फिर द्रविड़-आर्य विवाद के तर्क कहां बाकी रह जाते हैं?
सिर्फ चोल ही नहीं, दूसरे साम्राज्य में भी यही उदाहरण मिलते हैं. सबसे ताकतवर एक सम्राट और बाकी के सरदार या दूसरे अहम पदों पर अन्य जातियों के लोग. जो ताकतवर बना, योग्य रहा वही सम्राट बना. हर जाति से बने. चोल भी तो पल्लवों के यहां कभी एक सामंत सरदार की हैसियत से थे. और उससे पहले उनका साम्राज्य था. इससे यह भी पता चलता है कि भारतीय साम्राज्यों के बीच का झगड़ा उस तरह खूनी नहीं था जैसा विदेशी इतिहासों में मिलता है. कोई चीज थी जिसकी वजह से पराजय स्वीकार करने के बाद भी लोग एक-दूसरे के साथ सामजस्य बनाकर रहते थे और योग्यता के अनुसार उन्हें भूमिकाएं मिलती थीं. वीर ही वसुंधरा भोगते थे. कहीं यादव राजा और अन्य जातियों के तमाम सरदार. तमाम अफसर. कहीं राजपूत राजा और उनके भील सामंत/सरदार या छोटे राजा. शिवाजी महाराज और पेशवा बाजीराव के भी सामंतों सरदारों और राजाओं को देख लीजिए. ऐसा कहीं नहीं मिलता कि किसी जाति विशेष का ही कब्जा हो सत्ताओं पर. पृथ्वीराज चौहान जब सम्राट हैं तो बुंदेलों के राज्य के सेनापति आल्हा-उदल नाम के दो बहादुर अहिर योद्धा हैं. बुंदेलों के राज्य में जंगली मंगली नाम के दो दलित सेनापति थे. 57 के गदर में शहीद हुए थे. इन्हें किस साजिश से इतिहास से गायब कर दिया गया है. कोई बताएगा? सुहेलदेव कौन थे? अगर सालार गाजी का जिक्र आता है फिर उनका नाम क्यों नहीं लिया गया? क्या उनकी जाति वजह थी जो जाति पर टिकी राजनीति को फबती नहीं है.
जहां तक चोलों की बात है- आज हिंदू धर्म का जो स्वरूप नजर आता है उसपर उनके साम्राज्य का बहुत असर है. सनातन की सभी धाराएं आपस में उनके दौर में एकजुट की गईं. चोलों ने ही शिव और विष्णु से जुड़े तमाम महत्वपूर्ण पुराणों का संकलन किया. चोलों के बनवाए तमाम शिव और विष्णु मंदिर हजारों साल बीतने के बावजूद आज भी शान से खड़े हैं. उनके शिलालेख गवाही देते हैं वे कौन थे. और शिव विष्णु ही नहीं, चोलों ने बौद्ध और जैन धर्म को भी पर्याप्त संरक्षण दिया. जब लोग 'हिंदू' धर्म की बात करते हैं तो भूल जाते हैं कि असल में यह सनातन है. इसे दो-चार-दस लोगों के समूह ने मिलकर नहीं बनाया है. यह दो-चार-पांच सौ साल में भी नहीं बना. बल्कि यह कई जनजातियों की हजारों सालों के संगमन की प्रक्रिया से बना है. जनजातियाँ, उनके देवता, उनकी संस्कृति, उनके संस्कार आपस में मिलते गए सनातन. यह फर्क करना भी मुश्किल है कि कौन किस शाखा से है? उदाहरण के लिए तिब्बत में वज्रयान की बौद्ध शाखा में भी शाक्त परंपरा का संगमन दिखता है. देवी के रूप की पूजा होती है और इंद्र का वज्र उनका हथियार है. बुद्ध के रास्ते जो शाखा सनातन से निकली थी उसका यह रूप शोध का विषय है.
चोलों के समय में प्रिय देवता और प्रिय सम्प्रदाय चुनने की स्वतंत्रता थी. विकल्प भी था. वह आज भी है. चोलों के इष्टदेव शैव थे और यह भी पता चलता है कि उनकी बहन बैष्णव थीं. आज भी एक परिवार में इष्ट देव अलग-अलग मिलते हैं. कोई हनुमान को, कोई गणपति को और कोई किसी दूसरे देवता को प्रेम से पूजता है. भारतीय धर्मों के बीच खूनी संघर्ष का दावा करते वक्त यह क्यों भूल जाते हैं कि भारतीय धर्म दुनिया में अनूठे हैं. किसी भी धर्मशास्त्र में दूसरे धर्म के लिए विधर्मी या घृणित शब्दों का प्रयोग नहीं किया. यानी कोई सम्रदाय कोई पंथ उनके लिए कटुता का विषय नहीं था. उस पर वोट पाकर राजा नहीं बनते थे. जबकि यहूदियों में जेंटाइल है, इस्लाम में काफिर है, ईसाईयों में पैगन है. लेकिन हिंदू, बौद्ध, जैन, सिख में विधर्मियों के लिए कोई शब्द खोजे नहीं मिलेगा. अंग्रेज और मुग़ल यह अपडेशन करना भूल गए. शुक्र मनाइए. प्रसंग ही नहीं मिला होगा कि किस ग्रन्थ में कहां इसे डाला जाए. हिंदुओं से पहले कोई धर्म था नहीं तो सवाल ही नहीं है कि किसी की आलोचना के लिए शब्द गढ़े जाए. दूसरा वसुधैव कुटुम्बकम की भावना पर टिके भारतीय धर्मों ने किसी धर्म की आलोचना के लिए शब्द गढ़ना जरूरी ही नहीं समझा. उन्हें अपनी भूमि पर किसी से चुनौती थी ही नहीं.
जहां तक बात चोलों को हिंदू ना बताने की है- लोग दरअसल, उस झूठ को छिपाना चाहते हैं जो वर्षों से गढ़ा गया है. भला कितने लोग चीजों को धर्म पुराणों से क्रॉस चेक करते हैं? हम मान लेते हैं कि किसी मठाधीश धर्मगुरु, किसी नेता ने कहा है तो सही ही कहा होगा. हम अपने धर्मगुरु और अपने नेता की कही बातों के अंदर छिपी निजी महत्वाकांक्षा को कहां देखते हैं. अब महिषासुर में पूर्वज खोजने वाले कुछ यादवों को कौन बताए कि महिषासुर के खिलाफ वह संघर्ष असल में तुम्हारा ही था. यह भी कम सोचने वाली बात नहीं कि द्रविड़ राजनीति ने जो भूत खड़ा किया था तमिलनाडु में, वह उनके पांच दशकों के शासन में ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रहा. उन्हें अब भी उसी भूत के सहारे की जरूरत पड़ रही है. क्यों भला? तमिलनाडु में दलित आदिवासियों की हत्याएं कौन कर रहा है? वे ब्राह्मणवाद का नाश कर रहे हैं या मिशनरीज के पक्ष में हिंदुओं का.
हां, दावत-ए-इस्लाम और ईसाई मिशनरीज चलाने वाले संगठनों के लिए यह जरूर चिंता की बात है कि लोग प्राचीन भारत के उस सच को जानने लगे हैं जिसे छिपाने का सांस्थानिक और अकादमिक प्रयास किया गया. दुर्भाग्य से प्रस्तरों पर छिपा सच छिपाए नहीं छिपता. तंजौर के वे प्रस्तर जो उत्तर की तरह मुगल आर्किटेक्ट में इस्तेमाल नहीं किए जा सके. उत्तर में भी मणिरत्नम की फिल्म से सवाल होने लगा है कि जब मुगलों के 300 साल पर चोलों का करीब-करीब 1600 साल लंबा महान इतिहास है फिर मुग़ल महान कैसे हो गए? इस फिल्म ने लोगों के दिमाग को कन्फ्यूज कर दिया है. पोन्नियिन सेलवन 1 ने लोगों को सच में बहुत तकलीफ दी है. उन लोगों की तकलीफ भी बढ़ गई है जिन्होंने हिंदुओं के सामजिक विभेद को अंग्रेजों के बंटवारे के आधार पर राजनीति में जमकर भुनाया. सवाल उन्हें भी देना पड़ रहा है. अकबर को दर्जनों फ़िल्में महान नहीं बना पाई, मगर एक फिल्म ने लोगों की पाखंडी सत्ताएं हिलाकर रख दी है. अब चोलों को अहिंदू साबित करने पर जोर लगाया जा रहा है? जो असंभव है. तमिल पहचान का मुद्दा खड़ा किया जा रहा है. उन नैरेटिव पर परदा डाला जा रहा है जिनके सहारे फर्जी चीजें फैलाई गईं. यह ईसाई धर्म के पूर्व प्रचारक कमल हासन के बूते की बात नहीं है. उन्हें चोलों के रिलिजन कॉलम की चिंता नहीं करनी चाहिए.
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