PS-1 देखी. महान इतिहास की बहुत कमजोर प्रस्तुति है. फिल्मांकन में उस युग की भव्यता को तो दिखाया गया है लेकिन भाव संप्रेषित नहीं हो रहे. फिल्म में कल्कि कृष्णमूर्ति के उपन्यास जैसा रोमांच नहीं है. ऊंचे किले और उनसे जूझते सैनिक, समुद्र को पाल से पछाड़ती विराट युद्ध नौकाएं. यह सब उस युग की भव्यता व विज्ञान का स्पर्श जरूर कराते हैं. लेकिन, दृश्य पकड़ना कठिन है. फ़िल्म के संवाद बहुत सतही व कमजोर हैं. संवाद पात्रों की गंभीरता व नायकत्व से मेल नहीं खाते. संवाद भंगिमा के भी अनुरूप नहीं हैं. न ही स्क्रिप्ट अच्छी लिखी गई है. गीत का अनुवाद बहुत असंगत है, अनर्थक है. स्टेप और बोल में कोई मेल नहीं. रील इतनी तेज दौड़ती है कि न उसके दृश्य पकड़ में आते हैं, न उनका अर्थ...पकड़ में आता है बस अपना सिर. फ़िल्म के पोस्टर में दिखने वाले छीयां विक्रम जोकि आदित्य करिकलण की भूमिका हैं. वह पूरी फिल्म में कवच कसे तलवार भांजते, बीत जाते हैं. बीच में वह जब अतीत में झांकते हैं तो कराहते हैं.इससे उनके बारे में थोड़ा संकेत होता है लेकिन इन सबके बीच उनका चरित्र उभरकर नहीं आता है. आधी फ़िल्म बीतने के बाद यह समझ आता है कि पोन्नीयन सेल्वन वह नहीं हैं.
फ़िल्म के मुख्य पात्र अरुलमोझी वर्मन जब दृश्य में आते हैं तो समझ नहीं आता कि वही पोन्नीयन सेल्वन यानी पोन्नी के पुत्र हैं. काफी घुमा फिराकर यह समझ आता है कि नायक वही हैं. हालांकि उनके चरित्र का अभिनय अच्छा हुआ है. सिंहल के अनुराधापुर के विजय, उनकी वीरता व विनम्रता के दृश्यों को जयम रवि ने अच्छे से उभारा है. लेकिन, कमजोर संवाद से वह भी मार खा गए हैं.
स्क्रीन पर कब्जा वल्लवरैयन वंदीयदेवन पात्र का है जोकि वानर वंश के राजकुमार हैं और युवराज...
PS-1 देखी. महान इतिहास की बहुत कमजोर प्रस्तुति है. फिल्मांकन में उस युग की भव्यता को तो दिखाया गया है लेकिन भाव संप्रेषित नहीं हो रहे. फिल्म में कल्कि कृष्णमूर्ति के उपन्यास जैसा रोमांच नहीं है. ऊंचे किले और उनसे जूझते सैनिक, समुद्र को पाल से पछाड़ती विराट युद्ध नौकाएं. यह सब उस युग की भव्यता व विज्ञान का स्पर्श जरूर कराते हैं. लेकिन, दृश्य पकड़ना कठिन है. फ़िल्म के संवाद बहुत सतही व कमजोर हैं. संवाद पात्रों की गंभीरता व नायकत्व से मेल नहीं खाते. संवाद भंगिमा के भी अनुरूप नहीं हैं. न ही स्क्रिप्ट अच्छी लिखी गई है. गीत का अनुवाद बहुत असंगत है, अनर्थक है. स्टेप और बोल में कोई मेल नहीं. रील इतनी तेज दौड़ती है कि न उसके दृश्य पकड़ में आते हैं, न उनका अर्थ...पकड़ में आता है बस अपना सिर. फ़िल्म के पोस्टर में दिखने वाले छीयां विक्रम जोकि आदित्य करिकलण की भूमिका हैं. वह पूरी फिल्म में कवच कसे तलवार भांजते, बीत जाते हैं. बीच में वह जब अतीत में झांकते हैं तो कराहते हैं.इससे उनके बारे में थोड़ा संकेत होता है लेकिन इन सबके बीच उनका चरित्र उभरकर नहीं आता है. आधी फ़िल्म बीतने के बाद यह समझ आता है कि पोन्नीयन सेल्वन वह नहीं हैं.
फ़िल्म के मुख्य पात्र अरुलमोझी वर्मन जब दृश्य में आते हैं तो समझ नहीं आता कि वही पोन्नीयन सेल्वन यानी पोन्नी के पुत्र हैं. काफी घुमा फिराकर यह समझ आता है कि नायक वही हैं. हालांकि उनके चरित्र का अभिनय अच्छा हुआ है. सिंहल के अनुराधापुर के विजय, उनकी वीरता व विनम्रता के दृश्यों को जयम रवि ने अच्छे से उभारा है. लेकिन, कमजोर संवाद से वह भी मार खा गए हैं.
स्क्रीन पर कब्जा वल्लवरैयन वंदीयदेवन पात्र का है जोकि वानर वंश के राजकुमार हैं और युवराज आदित्य करिकलण के सहयोगी हैं. वंदीयदेवन का चरित्र कार्थी ने खूब अच्छे से जीया है. फ़िल्म में सबसे अच्छा अभिनय उन्हीं का है और नायक के रूप में वही दिखते हैं.
फ़िल्म में तीन देवियों के बुद्धि और सौंदर्य की प्रतिस्पर्धा नायकों के युद्ध कौशल के सापेक्ष चलती है. नंदनी की भूमिका में ऐश्वर्या राय, पूंगुझलि (पूर्णिमा) की भूमिका में ऐश्वर्या लक्ष्मी और कुंदवई की भूमिका में तृषा कृष्णन का अभिनय उत्तम है. अपने सौंदर्य, शांतिचित्तता व मेधा से कुंदवई का चरित्र तृषा ने जीवंत कर दिया हैं. तीन देवियों के सम्मोहन में वंदीयदेवन की पराजय अंततः तृषा के सामने होती है.
जिन्हें चोलवंश का इतिहास पता है, वह जरूर अपनी समझ को फ़िल्म के माध्यम से विजुलाइज कर सकते हैं. लेकिन उसमें भी एक बड़ी समस्या है. फिल्मकार ने पात्रों का नाम स्थानीय प्रचलन के आधार पर चुना है, इतिहास में स्वीकार्य संबोधनों के आधार पर नहीं. इससे कड़ी जोडने में भ्रम होता है. मुझे आधी फ़िल्म बीतने के बाद समझ आया कि परांतक द्वितीय ही सुंदर चोल हैं. यही भ्रम मधुरांतक के पात्र को लेकर भी होता है और समझ नहीं आता कि उत्तमा चोल का चरित्र वही है.
चोल चक्रवर्ती परांतक प्रथम के बाद उनके पुत्र गंडारादित्य राजा बने थे. गंडारादित्य की मृत्यु के समय उनके बेटे मधुरांतक (उत्तमा) छोटे थे, इसलिए सिंहासन उनके चाचा और गंडारादित्य के छोटे भाई अरिंजय को मिला. तय यह हुआ था कि मधुरांतक के बड़े होने पर सिंहासन उन्हें लौटा दिया जाएगा. लेकिन इसी बीच अरिंजय की मृत्यु हुई और तब भी मधुरांतक गद्दी के योग्य नहीं हुए थे, इसीलिए अरिंजय के बेटे परांतक द्वितीय (सुंदर चोल) को गद्दी मिल गई.
परांतक के बेटों आदित्य करिकलण व अरुलमोझी वर्मन की वीरता ने चोल साम्राज्य का विस्तार किया. पांड्यों व सिंहलों के पराजय से परांतक द्वितीय की शक्ति बढ़ गई. राज्य के लोग भी परांतक द्वितीय के बड़े बेटे आदित्य को राजा के तौर पर देखना चाहते हैं. लेकिन इसी बीच मंत्रियों व सरदारों के सहयोग से मधुरांतक अपना दावा सिंहासन पर करते हैं.
मधुरांतक के दावे पर सुंदर चोल को सीधे आपत्ति नहीं है क्योंकि वास्तव में सिंहासन उन्हीं का है. लेकिन मधुरांतक बचपन से जवानी तक राजनीति व युद्ध से दूर रहे हैं. ऐसे में उनके दावे को जनता का समर्थन कम है. उनके दावे के आड़ में कदुम्बर के सरदार अपनी चलाने की कोशिश करते हैं.
फ़िल्म की कहानी यहां से उठाई गई है. इसलिए जिन्हें पृष्ठभूमि नहीं पता उन्हें कुछ समझ नहीं आएगा. ऊपर के इतना बेकार नैरेशन लिखा गया है कि सीखने वालों के लिए कुछ नहीं हैं. जो इस फ़िल्म के माध्यम से चोल इतिहास समझना चाहेंगे उन्हें कुछ नहीं मिलेगा.
कुछ मिलाकर स्क्रिप्ट लेखक, संवाद लेखक और सिमेमैटोग्राफर ने इस फ़िल्म का कबाड़ा कर दिया है. रॉकेट्री देखने के बाद मुझे फ़िल्म देखने में रुचि दिखी थी, इसीलिए यह जाकर देख आया. लेकिन इसे देखकर फिर अरुचि जगी है. अब हम पहले की तरह आर्ट फिल्में ही देखेंगे. ... द्वार बंद किये जायें.
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