“जंग सिर्फ जंग होती है जंग में ना मैं कुछ हूं और ना तुम” मेघना गुलज़ार की फिल्म राज़ी में यह बात जासूस बनी सहमत यानी आलिया भट्ट को हिंदुस्तानी खुफ़िया एजेंसी का अधिकारी खालिद मीर बने जयदीप अहलावत उस वक़्त कहते हैं जब सहमत यानी आलिया को यह पता चलता है कि उन्होंने उसे भी मारने का ऑर्डर दिया था. यह सीन मेघना गुलज़ार की इस फिल्म का वो सीन है जहां आलिया के जरिए वो सवाल करती हैं कि आखिर जंग का सबब क्या है.
1971 के युद्ध की पृष्ठभूमि पर बनी राज़ी के इस सीन के आने तक पाकिस्तान में हिंदुस्तान की जासूस बनी सहमत दो खून कर चुकी होती है लेकिन ये खून उसे झकझोर कर रख देते हैं. उसके बाद उसी के सामने उसे बेहद मुहब्बत करने वाला उसका पाकिस्तानी शौहर इक़बाल यानी विकी कौशल और पाकिस्तान में उसकी मदद करने वाली एक बेकसूर महिला भी मारी जाती है बस तभी सहमत को जासूसी के अपने काम से नफरत हो जाती है और वो पूछ बैठती है कि आखिर वतन के नाम पर होने वाली ऐसी जंग का क्या फायदा जिसमें कुछ नहीं बचता और बेकसूर मारे जाते हैं. सच पूछा जाए तो यह बात एकदम सही है कि आखिर जंग देती क्या है सिवाय नुकसान के. आंकड़े बताते हैं कि महिलाएं और बच्चे तो सबसे जयादा युद्धों का शिकार बनते हैं. सब कहते हैं कि जंग में सब जायज़ है और मैं कहती हूं जंग ही जायज़ नहीं है.
मेघना की ये फिल्म भले ही जंग की पृष्ठभूमि पर हो लेकिन ये विस्फोट नहीं करती बल्कि भावनाओं के समंदर में ले जाकर...
“जंग सिर्फ जंग होती है जंग में ना मैं कुछ हूं और ना तुम” मेघना गुलज़ार की फिल्म राज़ी में यह बात जासूस बनी सहमत यानी आलिया भट्ट को हिंदुस्तानी खुफ़िया एजेंसी का अधिकारी खालिद मीर बने जयदीप अहलावत उस वक़्त कहते हैं जब सहमत यानी आलिया को यह पता चलता है कि उन्होंने उसे भी मारने का ऑर्डर दिया था. यह सीन मेघना गुलज़ार की इस फिल्म का वो सीन है जहां आलिया के जरिए वो सवाल करती हैं कि आखिर जंग का सबब क्या है.
1971 के युद्ध की पृष्ठभूमि पर बनी राज़ी के इस सीन के आने तक पाकिस्तान में हिंदुस्तान की जासूस बनी सहमत दो खून कर चुकी होती है लेकिन ये खून उसे झकझोर कर रख देते हैं. उसके बाद उसी के सामने उसे बेहद मुहब्बत करने वाला उसका पाकिस्तानी शौहर इक़बाल यानी विकी कौशल और पाकिस्तान में उसकी मदद करने वाली एक बेकसूर महिला भी मारी जाती है बस तभी सहमत को जासूसी के अपने काम से नफरत हो जाती है और वो पूछ बैठती है कि आखिर वतन के नाम पर होने वाली ऐसी जंग का क्या फायदा जिसमें कुछ नहीं बचता और बेकसूर मारे जाते हैं. सच पूछा जाए तो यह बात एकदम सही है कि आखिर जंग देती क्या है सिवाय नुकसान के. आंकड़े बताते हैं कि महिलाएं और बच्चे तो सबसे जयादा युद्धों का शिकार बनते हैं. सब कहते हैं कि जंग में सब जायज़ है और मैं कहती हूं जंग ही जायज़ नहीं है.
मेघना की ये फिल्म भले ही जंग की पृष्ठभूमि पर हो लेकिन ये विस्फोट नहीं करती बल्कि भावनाओं के समंदर में ले जाकर छोड़ती है. यहां एक बेटी और बाप का इमोशनल बॉन्ड है कि पिता के कहने पर बेटी पड़ोसी मुल्क की बहू के रुप में हिंदुस्तानी जासूस बनकर जाने के लिए राज़ी हो जाती है.
यहां एक पत्नी और पति का इमोशनल बॉन्ड है जहां पति-पत्नी के साथ एकदम लिबरल और डेमोक्रेटिक हैं कोई ज़ोर जबरदस्ती नहीं, बस विशुद्ध प्रेम. और यहां एक जासूस का वतन के लिए जबरदस्त इमोशनल बॉन्ड है कि वो राज खुलने पर पति के सामने ही बंदूक तानकर खड़ी हो जाती है और कहती है वतन के आगे कोई नहीं. हर इमोशन से बड़ा दिखता है यहां वतन के लिए प्यार. अगर फिल्म की रिलीज़ 15 अगस्त तक रखी जाती तो शायद और बेहतर होता.
फिल्म में आलिया के अभिनय की मैं कायल हो गई. राज़ी में आलिया ने मुझे तो राज़ी कर लिया कि उनमें नैसर्गिक अभिनय क्षमता है. विकी कौशल भी अपने फुल फॉर्म में हैं. बाकी कास्ट भी कहीं कमजोर नहीं दिखी. हरिंदर सिक्का के उपन्यास कॉलिंग सहमत पर बनी है मेघना गुलज़ार की फिल्म राज़ी. तलवार फिल्म जिन्होंने देखी है वो मेघना से एक बेहतर और हटकर फिल्म की अपेक्षा कर रहे थे और मेघना उस पर एकदम खरी उतरी हैं. उन्होंने शानदार कहानी लिखी है. भवानी अय्यर का स्क्रीनप्ले भी कसा हुआ है. गुलज़ार के गीत पर शंकर अहसान लॉय की तिकड़ी की जुगलबंदी आपके भीतर देशभक्ति का रंग चढ़ा सकती है. फिल्म कुल मिलाकर लाजवाब है. मेरी तरफ से फिल्म को 4 स्टार.
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