फिल्म इंडस्ट्री में उनको संगीत का जादूगर कहा जाता था. वो पुराने जमाने के थे, लेकिन उनके गाने नए जमाने के होते थे. वो प्रयोगधर्मी थे. शास्त्रीय संगीत से लेकर पाश्चात्य शैली तक, हर तरह के गाने और उनकी धुन, ऐसा बनाते कि लोगों का मन मोह लेते. म्यूजिक टैलेंट इतना कि पढ़न-लिखने की उम्र में फिल्म के गाने कंपोज करने शुरू कर दिए थे. 30 साल के फिल्मी करियर में उन्होंने 331 गाने दिए, जिनमें 292 हिंदी, 31 बंगाली, 3 तेलुगू, 2-2 तमिल-उड़िया और 1 गाना मराठी में था. जी हां, हम बात कर रहे हैं भारतीय सिनेमा के सबसे क्रिएटिव म्यूजिक डायरेक्टर आरडी बर्मन यानि पंचम दा के बारे में, जिनकी आज जयंती है. 27 जून 1939 को कोलकाता में पैदा हुए पंचम दा के जादुई अंदाज ने आज के संगीतकारों को भी काफी प्रभावित किया है. उनके गाने आज भी लोगों की जुबान से बोलते हैं.
पंचम दा ने जीवन का पहला गाना महज नौ साल की उम्र में फिल्म 'फंटूश' के लिए कंपोज किया.
1. बचपन: निकनेम के हैं रोचक किस्से
कोलकाता में संगीतकार गायक सचिन देव बर्मन और गीतकार मीरा देव बर्मन के घर पैदा हुए राहुल देव बर्मन मन पढ़ने-लिखने में बहुत नहीं लगता था. अपने काम के सिलसिले में पिता एसडी बर्मन अक्सर मुंबई रहा करते थे. घर पर दादा-दादी के लाड़-प्यार की वजह से उनके उपर कोई अनुशासन नहीं था. दादी उनको 'टुबलू' कहकर बुलाती थीं. लेकिन बचपन में ही उनका निकनेम 'पंचम' पड़ गया था. उनके निकनेम के पीछे भी तीन रोचक किस्से हैं. पहला, ये कहा जाता है कि उन्हें 'पंचम' उपनाम इसलिए दिया गया, क्योंकि बचपन वो जब भी रोते, तो जैसे संगीत संकेतन के पांचवें नोट (पा), जी स्केल में सुनाई देता. हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत में 'पंचम' पांचवीं डिग्री का नाम है. दूसरा, बचपन में राहुल देव पांच अलग-अलग स्वरों में रोते थे. इसलिए उनका नाम पंचम पड़ गया. तीसरा किस्सा ये है कि उस जमाने के दिग्गज अभिनेता अशोक कुमार एक बार उनके घर गए, उन्होंने देखा कि नवजात राहुल बार-बार 'पा' शब्द का उच्चारण कर रहे हैं, तो उन्होंने उनका नाम पंचम रख दिया.
पिता ने जब देखा कि पंचम पढ़ने में कोई रुचि नहीं ले रहे हैं, तो वो उनको लेकर मुंबई चले आए. उस वक्त वो करीब आठ साल के थे. वहां पिता की छत्रछाया में रहकर उन्होंने संगीत की तालिम लेनी शुरू कर दी. उन्होंने अपने जीवन का पहला गाना महज नौ साल की उम्र में फिल्म 'फंटूश' के लिए कंपोज किया. यह फिल्म साल 1956 में रिलीज हुई थी. फिल्म 'प्यासा' का गाना 'सिर जो तेरा चकराए', फिल्म 'अराधना' का गाना 'मेरे सपनों की रानी' और 'कोरा कागज था ये मन मेरा' जैसे ऐसे कई गीत हैं, जिनका क्रेडिट एसडी बर्मन को दिया जाता है, लेकिन वास्तव में इन्हें आरडी बर्मन ने कंपोज किया था. वे लंबे समय तक अपने पिता के असिस्टेंट रहे थे.
2. करियर: 'तीसरी मंजिल' से मिला मुकाम
राहुल देव बर्मन हमेशा कुछ अलग करने की कोशिश करते थे. वो लीक से हटकर धुन बनाया करते थे. यही वजह है कि उनकी धुनों को काफी पसंद किया जाता था. उनके द्वारा किए गए नए प्रयोगों का आज के जमाने के नए संगीतकार भी अनुसरण करते हैं. उन्होंने बतौर सहायक जिन फिल्मों के लिए काम किया, उनमें फिल्म 'चलती का नाम गाड़ी' (1958), 'कागज के फूल' (1959), 'तेरे घर के सामने' (1963), 'बंदिनी' (1963), 'ज़िद्दी' (1964), 'गाइड' (1965) और टीन डेवियन (1965) थी. उनके पिता के सुपरहिट गाने 'है अपना दिल तो आवारा' के लिए उन्होंने माउथ ऑर्गन बजाया था, जिसे फिल्म 'सोलवा साल' में फिल्माया गया था.
बतौर म्यूजिक डायरेक्टर उनके करियर की शुरूआत गुरु दत्त की फिल्म 'राज' से हुई थी. इसे उन्होंने 1959 में साइन किया था. हालांकि, ये फिल्म कभी पूरी नहीं हो पाई, लेकिन बर्मन साहब ने इसके लिए दो गाने रिकॉर्ड कर लिए थे. पहला गाना गीत दत्त और आशा भोसले ने गाया, तो दूसरा शमशाद बेगम ने गाया था. उनकी पहली रिलीज फिल्म छोटे नवाब थी, जो साल 1961 में रिलीज हुई थी. बतौर फिल्म संगीत निर्देशक उनकी पहली हिट फिल्म 'तीसरी मंजिल' थी, जो साल 1966 में रिलीज हुई थी. बर्मन साहब अपनी इस सफलता का श्रेय गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी को दिया था. तीसरी मंजिल में छह गाने थे, जिनमें से सभी मजरूह सुल्तानपुरी द्वारा लिखे गए थे. इनमें सो दो गाने मोहम्मद रफी ने गाए थे और चार सोलो सॉन्ग आशा भोसले के साथ थे. इस फिल्म ने बर्मन साहब को तरक्की का रास्ता दिखा दिया था.
3. सफलता: बॉलीवुड की सुपरहिट तिकड़ी
अपनी पहली फिल्म के रिलीज के महज 10 साल के अंदर ही पंचम दा सफलता की सीढियां चढ़ना शुरू कर चुके थे. 70 के दशक में राजेश खन्ना, किशोर कुमार और आरडी बर्मन की तिकड़ी ने फिल्म इंडस्ट्री में धमाल मचा रखा था. पंचमा दा की धुन पर किशोर कुमार जब गाना गाते और राजेश खन्ना अभिनय करते, तो सिनेमाघरों में तालियों गूंजने लगती. इसकी शुरूआत 'आराधना' फेम निर्देशक शक्ति सामंत की फिल्म से हुई, जो लंबे वक्त तक चलती रही. किशोर कुमार द्वारा गाए गए पंचम दा के गाने 'ये शाम मस्तानी' और 'ये जो मोहब्बत है' लोगों की जुबान पर चढ़ गया था. इसके बाद मोहम्मद रफ़ी, आशा भोंसले और लता मंगेशकर द्वारा गाए गए कई लोकप्रिय गीतों की रचना भी पंचमा दा ने ही की थी. जैसा कि वो प्रयोगधर्मी थे. नए-नए प्रयोग करना उनकी फितरत में था.
बॉलीवुड में तीव्र एंप्लिफिकेशन का ट्रेंड शुरू सबसे पहले पंचम दा ने ही शुरू किया था. इसकी वजह से उनके सभी गाने अलहदा और बेहद खुली हुई आवाज में गाए हुए लगते हैं. उन्होंने ही अपने गानों में डबल पेस रिदम की भी शुरुआत की थी. उन्होंने दो-दो साजों से रिदम देना शुरू किया. इससे उनके गाने लोगों को ज्यादा पसंद आए और ज्यादा मॉर्डन लगे. वे अपने जमाने में पहले म्यूजिक डायरेक्टर थे, जो अपने गानों में प्रमुखता से इलेक्ट्रॉनिक इंस्ट्रूमेंट का इस्तेमाल करते थे. फिल्म 'तीसरी मंजिल' उनकी बड़ी म्यूजिकल हिट साबित हुई. इसमें म्यूजिक देने से पहले वे एक महीने तक लंदन में रहे. यहां उन्होंने ऑक्टोपैड, इलेक्ट्रॉनिक गिटार, कॉन्गो आदि म्यूजिक इंस्ट्रूमेंट्स से प्रयोग करना सीखा. इनका फिल्म में इस्तेमाल किया. उन्होंने कई फिल्मों के म्यूजिक में इन इंस्ट्रूमेंट्स का बड़ी खूबसूरती से इस्तेमाल किया था. आरडी बर्मन ने अपने म्यूजिक करियर में ज्यादातर काम किशोर कुमार और आशा भोसले के साथ किया. उन्होंने 331 फिल्मों के लिए म्यूजिक कंपोज किया.
4. प्रेम कहानी: सादी मोहब्बत, मुश्किल शादी
पहले के जमाने में शादी पहले, प्रेम बाद में हुआ करता था. पंचम दा के साथ भी कुछ ऐसा ही था. साल 1956 में आशा भोसले से पहली मुलाकात से पहले उनकी शादी हो चुकी थी. लेकिन पंचम दा अपनी पहली पत्नी रीता पटेल से खुश नहीं थे. वो उनसे इतना परेशान हो चुके थे कि घर छोड़कर होटल में रहने लगे थे. इधर, आशा भोसले भी अपने पति गणपतराव भोंसले से खुश नहीं थी. उनके दो बच्चे थे, लेकिन सुकून की तलाश में अपनी बहन लता मंगेशकर के घर आकर रहने लगी थी. दो तन्हा और उदास दिल मिले तो प्यार हो गया. हालांकि, इस मोहब्बत की कड़ी संगीत ही थी, जिसने दोनों को मिलाया था. एक इंटरव्यू में खुद आशा ताई ने कहा था, 'मुझे वेस्टर्न गाने पसंद थे. मुझे पंचम के गानों को गाने में बहुत मज़ा आता था. वैसे भी मुझे नई चीज़ें करना अच्छा लगता था. उनको भी अच्छा लगता था कि मैं कितनी मेहनत करती हूं. कुल मिलाकर अच्छी आपसी समझदारी थी. हमारे बीच संगीत से प्रेम बढ़ा, न कि प्रेम से हम संगीत में नज़दीक आए.'
पंचम दा और आशा भोसले की प्रेम कहानी बहुत अनोखी है. दो शादीशुदा लोग, जो अपनी पहली जिंदगी में खुश नहीं थे, वो एक-दूसरे को पसंद करने लगे. यहां तक कि शादी का फैसला कर लिया. लेकिन शादी का रास्ता इतना भी आसान नहीं था. पंचम दा आशा ताई से उम्र में बहुत बड़े थे. इसलिए उनकी मां इस रिश्ते के सख्त खिलाफ थीं. पंचम दा ने जब अपनी मां से शादी की अनुमति मांगी तो उन्होंने गुस्से में कहा, 'जब तक मैं जिंदा हूं ये शादी नहीं हो सकती, तुम चाहो तो मेरी लाश पर से ही आशा भोसले को इस घर में ला सकते हो.' अजीब मुश्किल आन पड़ी, तो पंचम ने चुपचाप रहना बेहतर समझा. इसी बीच उनकी मां बहुत बीमार हो गईं. उन्होंने लोगों को पहचानना तक बंद कर दिया. उनकी हालत देख पंचम ने आशा से शादी कर ली, ताकि दोनों मिलकर मां की देखभाल कर सकें.
5. बेबसी: चढ़ता सूरज धीरे-धीरे ढल जाएगा
'चढ़ता सूरज धीरे धीरे ढलता है ढल जाएगा, तू यहां मुसाफ़िर है ये सराये फ़ानी है, चार रोज की मेहमां तेरी ज़िन्दगानी है, ज़र ज़मीं ज़र ज़ेवर कुछ ना साथ जाएगा, खाली हाथ आया है खाली हाथ जाएगा.' कैसर की कव्वाली के ये बोल जिंदगी की सच्ची कहानी हैं. सूरज की तरह हर इंसान का उदय होने के बाद एक न एक दिन अस्त जरूर होता है. कुछ ऐसा ही पंचम दा के साथ हुआ. बॉलीवुड पर राज करने वाले इस म्यूजिक डायरेक्टर ने कभी ऐसा नहीं सोचा था कि एक दिन उनको काम मिलना बेद हो जाएगा. साल 1960 से लेकर 1980 तक 20 वर्षों तक उनकी शोहरत का परचम बुलंदियों पर रहा, लेकिन 80 के दशक में बप्पी लहरी जैसे कुछ नए संगीतकारों ने उन्हें पीछे छोड़ दिया. उनकी संगीत निर्देशन में बनने वाली फिल्में बॉक्स ऑफिस पर फ्लॉप होने लगी, तो लोगों ने काम देना बंद कर दिया. यहां तक कि साल 1966 में आई 'तीसरी मंजिल' से लगातार हर फिल्म में साइन करने वाले नासिर हुसैन ने भी 1988 में आई 'क़यामत से क़यामत तक' में उनको साइन नहीं किया.
गुलज़ार ने एक बार बताया था कि आर डी बर्मन बेहद उतावले इंसान थे. जब वह संगीत रच रहे होते थे तो काफी बैचेन रहते थे. यदि उस वक़्त उन्हें गर्मागर्म चाय पेश की जाती तो वह उसके ठंडा होने का इंतजा़र भी ना करते. पानी में डालकर उसे पी जाते थे. लेकिन करियर और जीवन के अंतिम समय में वो बिल्कुल अकेले पड़ गए थे. जो इंसान हर वक्त ढेर सारे दोस्तों से घिरा रहता हो, लेकिन अपने आख़िरी दिनों में बिल्कुल अकेला रह जाए, तो सोचिए उसके उपर क्या बीतती होगी. गीतकार जावेद अख़्तर कहते हैं, 'पंचम एक ऐसा शख़्स था, जिसने अपने आपको संगीत का बादशाह साबित किया. फिर उससे वो ताज छिन भी गया लेकिन उसने '1942' में शानदार संगीत देकर फिर से साबित कर दिया कि साहब संगीत का शहंशाह तो वही है. अफसोस कि उस बादशाह की जान तख्त पर दोबारा बैठने से पहले ही निकल गई.'
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