एक कलाकार के तौर पर मेरा विरोध उन लोगों के विरोध से है जिन्होंने फिल्म देखी नहीं. उसके बारे में जाना नहीं. और वो विरोध करने चले आए. इन लोगों का मत है कि फिल्म की 'स्पेशल स्क्रीनिंग' हो ताकि उनके हिसाब से इसमें जो संस्कृति और इतिहास का 'हनन' लग रहा है वो फिल्म देखकर बताएंगे कि फिल्म में कौन-कौन से सीन आपत्तिजनक हैं. किन दृश्यों को पूर्ण रूप से काटा जा सकता है. कहां-कहां इफ़ेक्ट का इस्तेमाल करते हुए ऑफेंसिव दृश्यों को ब्लर किया जा सकता है. कुल मिलकर कुछ खास लोगों का एक समूह फिल्म देखना चाहता है. और उसमें जरूरी काट छांट कराकर उसे हरी झंडी देना चाहता है. फिल्म पर विरोध दर्ज कर रहे लोगों को इसकी परवाह नहीं कि इससे फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन का क्या होगा या देश और सरकार की छवि पर क्या फर्क पड़ेगा.
सवाल ये है कि क्या फिल्म का विरोध करने वालों को केवल फिल्म में कट्स चाहिए, वो भी बिना फिल्म देखे हुए? या फिर वो स्पेशल स्क्रीनिंग कराते हुए अपने झूठे अहम को कुछ देर के लिए खुश करना चाहते हैं? और ये चाहते हैं कि उन्हें ही राजपूत और हिंदू गौरव का सच्चा रक्षक माना जाए. क्या ये लोग ये बताने को आतुर हैं कि. 'हां, हम उन राजपूतों के साथ हैं जिन्होंने अपनी जमीनों और अपने देश के मान के लिए अपने प्राणों की आहुति दी थी.'
आज के जो हालात हैं उसके मद्देनजर अगर खिलजी हमारे बीच होता, तो संभव है कि वो इन विरोधियों की तरह फिल्म काे अनकट देखने की जिद करता. और खुद फैसला करता कि फिल्म का आगे क्या हश्र होगा. पद्मावती के विरोध में राजनीतिक पार्टियां, नेता और करणी सेना वाले बेमतलब अपनी राजनीतिक रोटी सेंक रहे हैं. इनकी जिद वैसी ही है, जैसी जायसी के पद्मावत में खिलजी की. वह...
एक कलाकार के तौर पर मेरा विरोध उन लोगों के विरोध से है जिन्होंने फिल्म देखी नहीं. उसके बारे में जाना नहीं. और वो विरोध करने चले आए. इन लोगों का मत है कि फिल्म की 'स्पेशल स्क्रीनिंग' हो ताकि उनके हिसाब से इसमें जो संस्कृति और इतिहास का 'हनन' लग रहा है वो फिल्म देखकर बताएंगे कि फिल्म में कौन-कौन से सीन आपत्तिजनक हैं. किन दृश्यों को पूर्ण रूप से काटा जा सकता है. कहां-कहां इफ़ेक्ट का इस्तेमाल करते हुए ऑफेंसिव दृश्यों को ब्लर किया जा सकता है. कुल मिलकर कुछ खास लोगों का एक समूह फिल्म देखना चाहता है. और उसमें जरूरी काट छांट कराकर उसे हरी झंडी देना चाहता है. फिल्म पर विरोध दर्ज कर रहे लोगों को इसकी परवाह नहीं कि इससे फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन का क्या होगा या देश और सरकार की छवि पर क्या फर्क पड़ेगा.
सवाल ये है कि क्या फिल्म का विरोध करने वालों को केवल फिल्म में कट्स चाहिए, वो भी बिना फिल्म देखे हुए? या फिर वो स्पेशल स्क्रीनिंग कराते हुए अपने झूठे अहम को कुछ देर के लिए खुश करना चाहते हैं? और ये चाहते हैं कि उन्हें ही राजपूत और हिंदू गौरव का सच्चा रक्षक माना जाए. क्या ये लोग ये बताने को आतुर हैं कि. 'हां, हम उन राजपूतों के साथ हैं जिन्होंने अपनी जमीनों और अपने देश के मान के लिए अपने प्राणों की आहुति दी थी.'
आज के जो हालात हैं उसके मद्देनजर अगर खिलजी हमारे बीच होता, तो संभव है कि वो इन विरोधियों की तरह फिल्म काे अनकट देखने की जिद करता. और खुद फैसला करता कि फिल्म का आगे क्या हश्र होगा. पद्मावती के विरोध में राजनीतिक पार्टियां, नेता और करणी सेना वाले बेमतलब अपनी राजनीतिक रोटी सेंक रहे हैं. इनकी जिद वैसी ही है, जैसी जायसी के पद्मावत में खिलजी की. वह भी तो पद्मावती को आइने में देखने पर ही राजी हो गया था.
बुरा न मानियेगा, अगर कोई अकेले या अपने जैसे कुछ लोगों के साथ एक बंद कमरे में खास तरीके से फिल्म देखना चाहते हैं, तो वह बर्बर बादशाह अलाउद्दीन खिलजी जैसा ही है. अभी ये फिल्म रिलीज नहीं हुई है. पूरी तरह पर्दे में है. संजय लीला भंसाली के घर में. और कुछ लोग भंसाली के सिर पर तलवार रखकर उसके घर में घुसकर उसकी पद्मावती को देखना चाहते हैं. और भंसाली इससे इनकार करते हैं तो उन पर आक्रमण की धमकी दी जाती है. महसूस किया जा सकता है कि 13वीं शताब्दी खिलजी की धमकी मिलने पर राजा रतनसिंह को कैसा महसूस हो रहा होगा.
कहा जा सकता है जो लोग नाक और गर्दन काटने की मांग कर रहे हैं उन्होंने खिलजी को उन फैंस से जोड़ दिया है जिनको भंसाली और दीपिका की जोड़ी भाती थी. ये लोग आज बस पद्मावती देखना चाहते हैं. कट, अनकट, ब्लर या कैसी भी. सिने प्रेमियों को ये बात माननी होगी कि जिस तरह से उन्होंने दीपिका को पद्मावती में दिखाया है वो अपने आप में आलीशान और वैभवपूर्ण है. जो इस बात से सहमत नहीं है उन्हें राम लीला फिल्म का गाना लहू मुंह लग गया या फिर बाजीराव मस्तानी का गाना दीवानी मस्तानी अवश्य सुनना चाहिए.
इतिहास हो या मिथक, पद्मावती एक दिन अवश्य रिलीज होगी. जिसका नतीजा वो बिल्कुल नहीं निकलेगा जो निकलना चाहिए. फिल्हाल के लिए लोगों को इन्तेजार करना होगा इस आशा के साथ कि निर्देशक की क्रिएटिविटी उस आग की भेंट न चढ़ जाए जिसमें रानी पद्मिनी ने अपने प्राणों की आहुति दी थी.
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