राजू चले गये. हमारे-आपके. सबके राजू श्रीवास्तव एक एक सांस की लड़ाई लड़ते हुए जिंदगी को रुला गये. उनके बार मे लिखते हुए 'रुलाना' शब्द चाहकर भी नहीं लिखा जा रहा. उन्हें देखकर, सुनकर लगता था, वो जन्मजात हंसोड़ थे. मां के पेट से निकलकर बच्चा रोता है लेकिन राजू ने ठहाका लगाया होगा. हास्य दरअसल बहुत नैसर्गिक होता है. और राजू श्रीवास्तव को थोड़ा भी करीब से जानने वालों को ये अच्छे से मालूम होगा कि राजू के लिये हास्य, सांस लेने जितना ही नैसर्गिक था. बात उन दिनो की है जब मैं एक मीडिया हाउस मे काम करने के दौरान राजू श्रीवास्तव से मिली थी. वो हमारा मीडिया मे काम सीखने और वही राजू के कांमेडी मे आगे जाने का दौर था.
राजू रिकार्डिंग के लिये आया करते थे. आते तो हैं तमाम तरह के लोग न्यूज चैनलो के दफ्तर में, लेकिन राजू का आना मानों सब कुछ गुलजार कर देता था. वो आते थे. और मानो अपने आप हंसी की गूंज हर तरफ होती थी. वजह. राजू कोई तैयार होकर कॉमेडी करने वाले कलाकार नहीं थे. उनकी हर बात में, हर रिएक्शन में, अंदाज मे हास्य थे. गाड़ी से उतर कर, सीढ़िया चढ़कर, गेस्ट रूम तक पहुंचने में, राजू ना जाने कितनों को हंसा देते थे.
उस वक्त वे एक सूटकेस कैरी करते थे. उसमे उनका वार्डरोब होता था. अक्सर कुछ चमकीले से जैकेट, जो उनके हिसाब से मस्त लगते थे. वो खुद ही सूटकेस खोलकर अपने कपड़ोंं पर कमेंट करते. खुद के मेकअप करवाने पर हंसते, अपने रंग रुप पर भरपूर मजाक करते. सिर्फ दो मिनट मे सामने वाले को हर मन:स्थिति से निकालने का जादू था राजू में. उनकी हर बात को हम बगुत गौर से सुनते.
राजू को खुद पर मजाक करना आता था. ये कला बहुत कम लोगों में होती है. वे खुद को ही हास्य का प्रतिबिंब...
राजू चले गये. हमारे-आपके. सबके राजू श्रीवास्तव एक एक सांस की लड़ाई लड़ते हुए जिंदगी को रुला गये. उनके बार मे लिखते हुए 'रुलाना' शब्द चाहकर भी नहीं लिखा जा रहा. उन्हें देखकर, सुनकर लगता था, वो जन्मजात हंसोड़ थे. मां के पेट से निकलकर बच्चा रोता है लेकिन राजू ने ठहाका लगाया होगा. हास्य दरअसल बहुत नैसर्गिक होता है. और राजू श्रीवास्तव को थोड़ा भी करीब से जानने वालों को ये अच्छे से मालूम होगा कि राजू के लिये हास्य, सांस लेने जितना ही नैसर्गिक था. बात उन दिनो की है जब मैं एक मीडिया हाउस मे काम करने के दौरान राजू श्रीवास्तव से मिली थी. वो हमारा मीडिया मे काम सीखने और वही राजू के कांमेडी मे आगे जाने का दौर था.
राजू रिकार्डिंग के लिये आया करते थे. आते तो हैं तमाम तरह के लोग न्यूज चैनलो के दफ्तर में, लेकिन राजू का आना मानों सब कुछ गुलजार कर देता था. वो आते थे. और मानो अपने आप हंसी की गूंज हर तरफ होती थी. वजह. राजू कोई तैयार होकर कॉमेडी करने वाले कलाकार नहीं थे. उनकी हर बात में, हर रिएक्शन में, अंदाज मे हास्य थे. गाड़ी से उतर कर, सीढ़िया चढ़कर, गेस्ट रूम तक पहुंचने में, राजू ना जाने कितनों को हंसा देते थे.
उस वक्त वे एक सूटकेस कैरी करते थे. उसमे उनका वार्डरोब होता था. अक्सर कुछ चमकीले से जैकेट, जो उनके हिसाब से मस्त लगते थे. वो खुद ही सूटकेस खोलकर अपने कपड़ोंं पर कमेंट करते. खुद के मेकअप करवाने पर हंसते, अपने रंग रुप पर भरपूर मजाक करते. सिर्फ दो मिनट मे सामने वाले को हर मन:स्थिति से निकालने का जादू था राजू में. उनकी हर बात को हम बगुत गौर से सुनते.
राजू को खुद पर मजाक करना आता था. ये कला बहुत कम लोगों में होती है. वे खुद को ही हास्य का प्रतिबिंब बनाकर चलते थे. वे संघर्ष की आग मे तपे हुए कलाकार थे. लेकिन उस गर्माइश का बहुत आनंद नहीं ले सके. जिंदगी के जिस मोड़ पर राजू चाह रहे थे कि जिंदगी को अब इत्मीनान से जीने की सोचा जाए. बहुत भागदौड़ के बाद वो एक सुकूंन चाहते थे. और तभी विधाता ने सीन ही बदल दिया. राजू की जिंदगी की फिल्म यूं बीच मे खत्म होगी. ये किसी ने सोचा नहीं था. कहते हैं कलाकार कभी नहींं मरता. राजू की हजारों विडियो कभी भी गुदगुदा देगी. बस खलिश ये रहेगी कि ये हंसता हंसाता शख्स, अब इस दुनिया मे रहा नहींं. ये उसकी यादें है, बस यादें. हंसते हंसते आंखो मे आंसू आ जाते हैं. राजू खूब हंसा कर यूं गये कि आंसू ही शेष है.
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