शूजित सरकार के निर्देशन में बनी और विक्की कौशल की सशक्त भूमिका से सजी 'सरदार उधम' की कहानी लोगों को भा रही है. सरदार उधम सिंह के जीवन पर बॉलीवुड ने पहली बार फिल्म बनाई है. सरदार उधम सिंह देश के ऐसे अमर शहीद हैं जिनकी वजह से हमेशा कांग्रेस, महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू के स्टैंड पर सवाल बना रहेगा. हालांकि कांग्रेसी इस बात का शुक्र मना सकते हैं कि सरदार उधम में शहादत के बाद के किस्से को शूजित ने विस्तार नहीं दिया है जो कांग्रेस और उसके तत्कालीन नेताओं के गाल पर तमाचे की तरह है. लेकिन अब चीजें पब्लिक डोमेन में बहस का हिस्सा बनती दिख रही है. अमेजन प्राइम वीडियो पर फिल्म आने के बाद सोशल मीडिया पर लोग सामने आ रहे हैं जिनकी प्रतिक्रियाओं में माफी के साथ बताया जा रहा है कि इससे पहले उन्हें उधम सिंह के बारे में कभी जानकारी नहीं थी. पहली बार है जब एक फिल्म की वजह से सरदार उधम का जीवन और बलिदान व्यापक रूप से लोक चर्चा का विषय है.
उधम सिंह के जीवन से जो सबसे बड़ा सवाल निकलकर आता है वो यही है कि क्या इतिहास सत्ताओं की जरूरत के हिसाब से लिखा गया. क्योंकि 1974 तक के भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में उधम सिंह को लेकर गहरा सन्नाटा है. सन्नाटा आखिर क्यों है इसकी वजहें ही समझ में नहीं आतीं. सन्नाटे के लिए जो बात कही जाती है वो ये कि उस वक्त उधम और उनके कृत्य का समर्थन करना मतलब अंग्रेजों के साथ आजादी की "निर्णायक कोशिशों" में गतिरोध ला देना साबित होता. बहरहाल, शूजित के निर्देशन में विक्की कौशल का काम कुछ इस तरह प्रभावी बन पड़ा है कि उधम सिंह, शहीद भगत सिंह की परंपरा में उनके कद के क्रांतिकारी नजर आ रहे हैं. शूजित सरकार और उनकी टीम की ये सबसे बड़ी उपलब्धि है. गहराई से उधम सिंह के क्रांतिकारी जीवन पर प्रकाश डाला गया है. हालांकि कहानी में उधम के सात-आठ सालों के क्रांतिकारी जीवन को ही विस्तार दिया गया है. फिल्म में उनका बाकी का जीवन आंशिक संदर्भ के तौर पर लिया गया है. हां, जलियावाला बाग़ नरसंहार व्यापक संदर्भ के रूप में स्थापित है जो सरदार उधम के क्रांतिकारी जीवन की सबसे महत्वपूर घटना है.
शूजित सरकार के निर्देशन में बनी और विक्की कौशल की सशक्त भूमिका से सजी 'सरदार उधम' की कहानी लोगों को भा रही है. सरदार उधम सिंह के जीवन पर बॉलीवुड ने पहली बार फिल्म बनाई है. सरदार उधम सिंह देश के ऐसे अमर शहीद हैं जिनकी वजह से हमेशा कांग्रेस, महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू के स्टैंड पर सवाल बना रहेगा. हालांकि कांग्रेसी इस बात का शुक्र मना सकते हैं कि सरदार उधम में शहादत के बाद के किस्से को शूजित ने विस्तार नहीं दिया है जो कांग्रेस और उसके तत्कालीन नेताओं के गाल पर तमाचे की तरह है. लेकिन अब चीजें पब्लिक डोमेन में बहस का हिस्सा बनती दिख रही है. अमेजन प्राइम वीडियो पर फिल्म आने के बाद सोशल मीडिया पर लोग सामने आ रहे हैं जिनकी प्रतिक्रियाओं में माफी के साथ बताया जा रहा है कि इससे पहले उन्हें उधम सिंह के बारे में कभी जानकारी नहीं थी. पहली बार है जब एक फिल्म की वजह से सरदार उधम का जीवन और बलिदान व्यापक रूप से लोक चर्चा का विषय है.
उधम सिंह के जीवन से जो सबसे बड़ा सवाल निकलकर आता है वो यही है कि क्या इतिहास सत्ताओं की जरूरत के हिसाब से लिखा गया. क्योंकि 1974 तक के भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में उधम सिंह को लेकर गहरा सन्नाटा है. सन्नाटा आखिर क्यों है इसकी वजहें ही समझ में नहीं आतीं. सन्नाटे के लिए जो बात कही जाती है वो ये कि उस वक्त उधम और उनके कृत्य का समर्थन करना मतलब अंग्रेजों के साथ आजादी की "निर्णायक कोशिशों" में गतिरोध ला देना साबित होता. बहरहाल, शूजित के निर्देशन में विक्की कौशल का काम कुछ इस तरह प्रभावी बन पड़ा है कि उधम सिंह, शहीद भगत सिंह की परंपरा में उनके कद के क्रांतिकारी नजर आ रहे हैं. शूजित सरकार और उनकी टीम की ये सबसे बड़ी उपलब्धि है. गहराई से उधम सिंह के क्रांतिकारी जीवन पर प्रकाश डाला गया है. हालांकि कहानी में उधम के सात-आठ सालों के क्रांतिकारी जीवन को ही विस्तार दिया गया है. फिल्म में उनका बाकी का जीवन आंशिक संदर्भ के तौर पर लिया गया है. हां, जलियावाला बाग़ नरसंहार व्यापक संदर्भ के रूप में स्थापित है जो सरदार उधम के क्रांतिकारी जीवन की सबसे महत्वपूर घटना है.
उधम सिंह की शहादत के बाद उनसे जुड़ी कहानी में एक महान बलिदान को झुठलाने की राजनीतिक कोशिश दिखती है जिसकी अगुआई ब्रिटिश और आजाद भारत में कांग्रेस ने किया. अंग्रेजी राज ने उन्हें कभी क्रांतिकारी नहीं ही माना. उसकी हमेशा कोशिश रही कि किसी भी सूरत में शहीद के साथ जलियावाला बाग़ नरसंहार ना जुड़ जाए जिससे कैक्सटन हॉल की घटना को राजनीतिक सपोर्ट मिले और दुनिया उसे राजनीतिक तौर पर जायज ठहराए. अंग्रेजों ने उधम के क्रांतिकारी अस्तित्व को पूरी तरह से नष्ट करने और उन्हें अपराधी साबित करने की कोशिश की. कोर्ट ट्रायल के नाम पर लंदन में ड्रामा किया गया और जघन्यतम हत्या के आरोपों में फांसी की सजा सुनाई गई. अंतिम संस्कार भी नहीं करने दिया गया. शहादत के बाद उनके शव को दफना दिया गया. सरदार उधम ने जिस कोशिश के लिए माइकल ओ डायर की हत्या की थी उसमें कामयाब रहे. पूरी दुनिया ने डायर की हत्या को प्रमुखता से कवर किया और इसके साथ पहली बार जलियावाला बाग़ नरसंहार के लिए अंग्रेजों की पैशाचिक सूरत दुनिया के सामने आई. उधम की वजह से ही पहली बार भारत में औपनिवेशिक शासन के अमानवीय, आपराधिक और घिनौने करतूतों की कहानी दुनिया के हर एक कोने तक पहुंची.
उधम सिंह के मामले में अंग्रेजी राज और कांग्रेस का रुख एक जैसा
यह दुर्भाग्य है कि उधम के बलिदान को अंग्रेजों ने जिस तरह देखा, तत्कालीन भारतीय राजनीति में भी उसे लगभग वैसा ही देखा गया. महात्मा गांधी ने उधम के कृत्य को नाजायज ठहराया और तीखी आलोचना की. जवाहर लाल नेहरू समेत तत्कालीन कांग्रेस के तमाम दिग्गजों ने भी उधम की कोशिशों को आतंकी कार्रवाई ही माना. तत्कालीन कांग्रेसी नेताओं को लग रहा हो कि डायर की हत्या के बाद "आजादी के उनके अभियान" को धक्का लगेगा. उधर, दुनिया में सिर्फ जर्मनी एक ऐसा देश था जिसने उधम को ना सिर्फ श्रेष्ठ क्रांतिकारी माना और बल्कि उनके कृत्य को साहसिक बताते हुए तारीफ़ की. उस वक्त लगभग समूचा देश राजनीतिक रूप से कांग्रेस से ही जुड़ा था. मगर उधम पर कांग्रेस का राजनीतिक स्टैंड हमेशा सवालों के घेरे में रहेगा. क्योंकि आजादी मिलने के बाद भी कांग्रेस ने उधम को लेकर "सार्वजनिक संकोच" दिखाया. उनकी शहादत के सात साल बाद देश आजाद हो गया. नेहरू प्रधानमंत्री बने बावजूद किसी ने उन्हें याद तक नहीं किया. ना तो उन्हें शहीद का दर्जा मिला और ना ही उनके पार्थिव शरीर को अंतिम संस्कार के लिए लाने की कोशिशें ही की गईं.
उधम मामले में कांग्रेस क्या बचाने की कोशिश में थी ?
कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिस शहीद ने जलियावाला बाग़ हत्याकांड का बदला लेने के लिए जिंदगी के 21 साल खपा दिए, अमानवीय टॉर्चर झेला. माफी का विकल्प लेकर जान बचा सकता था, पर आजादी के मूल्यों से समझौता करना गंवारा नहीं लगा. यहां तक कि एक आम अपराधी के रूप में उनका चरित्र हनन तक किया गया. देश आजाद होने के 27 साल बाद 1974 में उनकी पार्थिव देह कब्र से निकाली गई और देश लाकर अंतिम संस्कार हुआ. वह भी राजनीतिक मुद्दा बनने के बाद. सवाल बना रहेगा कि सरदार उधम की शहादत को सम्मान देने में आखिर कांग्रेस के नेतृत्व में जवाहर लाल नेहरू से लेकर इंदिरा गांधी तक, इतना लंबा वक्त क्यों लगा? उधम को लेकर कांग्रेस का दृष्टिकोण भी अंग्रेजों से अलग कहां है. जलियावाला बाग़ नरसंहार को हर लिहाज से जायज ठहराने वाले अंगेजों ने भी तो उनके राजनीतिक वजूद को खारिज कर जलियावाला बाग़ नरसंहार पर पर्दा डालने की कोशिश की थी. अंग्रेजों का तो समझ में आता है मगर लंबे वक्त तक कांग्रेस किस पाप से शर्मसार थी जो उसे ऐसा करना पड़ा? वही कांग्रेस जिसे द्वित्तीय विश्वयुद्ध में लाखों भारतीय सैनिकों को अंग्रेजी राज के लिए मरने भेजने को जायज ठहराती है मगर कैक्सटन हॉल में उधम की कार्रवाई कायराना और आतंकी हरकत दिखती है. हिंसा लगती है.
आखिर आजादी के बाद क्या मजबूरी थी, जो लंबे वक्त तक उधम के उत्सर्ग और अस्तित्व को खारिज किया जाता रहा? सवाल कांग्रेस का कभी पीछा नहीं छोड़ेंगे.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.