डायरेक्टर शूजित सरकार द्वारा निर्देशित बायोपिक सरदार उधम के बाद उन तमाम जुबानों पर ताले पड़ गए हैं जो बीते कुछ वक्त से मेन स्ट्रीम मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक इस बात का डंका पीट रहे थे कि बॉलीवुड के पास न तो बढ़िया निर्देशक है न उम्दा स्क्रिप्ट और उसे निभाने के लिए एक्टर. जैसा ट्रीटमेंट सुजीत और विक्की की जोड़ी ने फ़िल्म की स्क्रिप्ट को दिया है तमाम मौके आते हैं जब शरीर में सिरहन होती है और रौंगटे खड़े हो जाते हैं. फ़िल्म चूंकि जलियांवाला बाग नरसंहार कक ध्यान में रखकर बनी है इसलिए उन तमाम पहलुओं को छूने का प्रयास इस फ़िल्म में हुआ है जो इस बात की तस्दीख करते हैं कि चाहे वो भगत सिंह और उनका संगठन एचएसआरए हो या फिर बाकी के क्रांतिकारी अंग्रेजों के आगे बगावत के सुर बुलंद करना और भारत मां को आज़ाद कराने के सपने देखना किसी के लिए भी आसान नहीं रहा होगा. फ़िल्म का अंत पूरी फिल्म का क्रक्स है जिसमें दिखाया गया है कि कैसे 13 अप्रैल 1919 को ब्रिगेडियर जनरल रेजिनाल्ड एडवर्ड डायर के नेतृत्व में अंग्रेजी फौज ने गोलियां चला के निहत्थे, शान्त बूढ़ों, महिलाओं और बच्चों सहित सैकड़ों लोगों को मार डाला था और हजारों लोगों को घायल किया था.
बेशक सरदार उधम सदी की बेहतरीन फ़िल्म है. और यूं तो इसे हर हिंदुस्तानी को देखना चाहिए लेकिन 5 लोग ऐसे हैं जिन्हें हर हाल में, हर सूरत में इस फ़िल्म को देखना चाहिए और इस बात को गांठ बांध लेनी चाहिए कि अगर आज हम 'आजाद' हैं और फ्रीडम ऑफ स्पीच के नाम पर तमाम तरह की बातें कर रहे हैं तो इन बातों को करने का हक़ हमें सरदार उधम सिंह, शहीद भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद जैसे लोगों की ही बदौलत मिला है.
गर ये लोग और इनकी कुर्बानियां न होतीं तो यक़ीन जानिए न हम मुखर...
डायरेक्टर शूजित सरकार द्वारा निर्देशित बायोपिक सरदार उधम के बाद उन तमाम जुबानों पर ताले पड़ गए हैं जो बीते कुछ वक्त से मेन स्ट्रीम मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक इस बात का डंका पीट रहे थे कि बॉलीवुड के पास न तो बढ़िया निर्देशक है न उम्दा स्क्रिप्ट और उसे निभाने के लिए एक्टर. जैसा ट्रीटमेंट सुजीत और विक्की की जोड़ी ने फ़िल्म की स्क्रिप्ट को दिया है तमाम मौके आते हैं जब शरीर में सिरहन होती है और रौंगटे खड़े हो जाते हैं. फ़िल्म चूंकि जलियांवाला बाग नरसंहार कक ध्यान में रखकर बनी है इसलिए उन तमाम पहलुओं को छूने का प्रयास इस फ़िल्म में हुआ है जो इस बात की तस्दीख करते हैं कि चाहे वो भगत सिंह और उनका संगठन एचएसआरए हो या फिर बाकी के क्रांतिकारी अंग्रेजों के आगे बगावत के सुर बुलंद करना और भारत मां को आज़ाद कराने के सपने देखना किसी के लिए भी आसान नहीं रहा होगा. फ़िल्म का अंत पूरी फिल्म का क्रक्स है जिसमें दिखाया गया है कि कैसे 13 अप्रैल 1919 को ब्रिगेडियर जनरल रेजिनाल्ड एडवर्ड डायर के नेतृत्व में अंग्रेजी फौज ने गोलियां चला के निहत्थे, शान्त बूढ़ों, महिलाओं और बच्चों सहित सैकड़ों लोगों को मार डाला था और हजारों लोगों को घायल किया था.
बेशक सरदार उधम सदी की बेहतरीन फ़िल्म है. और यूं तो इसे हर हिंदुस्तानी को देखना चाहिए लेकिन 5 लोग ऐसे हैं जिन्हें हर हाल में, हर सूरत में इस फ़िल्म को देखना चाहिए और इस बात को गांठ बांध लेनी चाहिए कि अगर आज हम 'आजाद' हैं और फ्रीडम ऑफ स्पीच के नाम पर तमाम तरह की बातें कर रहे हैं तो इन बातों को करने का हक़ हमें सरदार उधम सिंह, शहीद भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद जैसे लोगों की ही बदौलत मिला है.
गर ये लोग और इनकी कुर्बानियां न होतीं तो यक़ीन जानिए न हम मुखर होकर अपनी बात ही रख पाते न ही हर दूसरे मुद्दे पर अपनी सरकार का विरोध ही कर पाते. बात चूंकि 5 लोगों की हुई है तो आइए जानें कौन हैं ये पांच लोग और क्यों देखनी चाहिए इन्हें सुजीत निर्देशित और विक्की अभिनीत सरदार उधम.
दिल्ली को अस्त व्यस्त करने वाले राकेश टिकैत, योगेंद्र यादव और प्रदर्शनकारी किसान
पिछले 11 महीनों से चाहे वो दिल्ली का टीकरी बॉर्डर हो या फिर गाजीपुर और सिंघु. जिस तरह कृषि बिल के विरोध में किसानों द्वारा 'फ्रीडम ऑफ स्पीच' और अधिकारों का हवाला देकर दिल्ली को अस्त व्यस्त किया जा रहा है शायद प्रदर्शनकारी किसानों को आज़ादी एक हल्की चीज लगती होगी.
वाक़ई आजादी क्या है और इसे पाने के लिए हमारे असली हीरोज ने अपने दौर में किन चुनैतियों का सामना किया है सरदार उधम सिंह इसकी एक बानगी भर है. किसानों को इस फ़िल्म को देखना चाहिये और समझना चाहिए कि असल में तानाशाही किस चिड़िया का नाम है.
बात सरकार की तारीफ की नहीं है लेकिन जिस सरकार को किसान तानाशाह बता रहे हैं हमारा दावा है कि फ़िल्म देखने के बाद किसानों का नजरिया अपनी सरकार के प्रति बदलेगा.
JN, AM, Jamia और उस्मानिया के छात्र
बात सरकार विरोध की या फिर सरकार की नीतियों के विरोध की हो तो चाहे आज का वक़्त हो या फिर वो दौर जब देश आजादी की लड़ाई लड़ रहा था हमेशा ही छात्र आगे आए हैं और उन्होंने सरकार/ सत्ता के खिलाफ मोर्चा लिया है. मगर क्या हर बार छात्र सही होते हैं? क्या हर बार उनकी मांगें जायज ही होती हैं? क्या उन्हें हर दूसरे मुद्दे पर लिखाई पढ़ाई छोड़कर प्रदर्शन करने का हक़ है?
इन तमाम सवालों के जवाब यूं तो कई हो सकते हैं लेकिन जो सबसे स्पष्ट जवाब है वो है नहीं. चाहे वो जेएनयू और एएमयू के हों या फिर जामिया और उस्मानिया के इन यूनिवर्सिटीज के छात्रों को सरदार उधम बार बार देखनी चाहिए.
लगातार देखनी चाहिए और दुआएं देनी चाहिये उन महान क्रांतिकारियों को जिनकी बदौलत इन्हें आज हर चीज में मुंह खोलने और अपनी बात कहने का अधिकार हासिल हुआ. छात्र जब ये फ़िल्म देखेंगे तो जानेंगे कि विरोध क्या होता है और लक्ष्य किसे कहते हैं.
स्वरा, ऋचा, अली फजल, नसीरुद्दीन शाह, आमिर खान जैसे बॉलीवुड एक्टर्स को
आज का दौर वाक़ई बड़ा अजीब है. ऐसे में जब हम बॉलीवुड को देखते हैं तो हमारे पास विचलित होने या हैरत में पड़ने के पर्याप्त कारण भी हैं. एक समय था जब बॉलीवुड से जुड़े लोगों का काम सिर्फ और सिर्फ मनोरंजन था. वक़्त बदला, हालात बदले.
जैसी स्थिति आज है अब बॉलीवुड लोगों को मनोरंजन के अलावा भी बहुत कुछ कर रहा है और उन बातों को ट्विटर, इंस्टाग्राम जैसे माध्यमों से प्रचारित और प्रसारित कर रहा है जिनको एक एजेंडे के तहत फैलाया जा रहा है. वो बॉलीवुड जो समय समय पर इस बात का हल्ला मचाता है कि सरकार और सत्ता जनता का शोषण कर रही हैं.
यदि सच में उसे दमन और उसका स्वरूप देखना है तो उसे हर सूरत में विक्की और सुजीत की सरदार उधम का रुख करना चाहिए. इस पॉइंट में शुरुआत में ही हमने स्वरा, ऋचा, अली फजल, नसीरुद्दीन शाह, आमिर खान जैसे लोगों की बात की है तो बताना जरूरी है कि इन लोगों की हर मुद्दे पर अपनी राय है और ये राय एक देश के रूप में भारत की अखंडता को, एकता को प्रभावित कर रही है.
कश्मीरी पत्थरबाज ज़रूर देखें ये फ़िल्म
बात आज़ादी की कीमत की हुई है. उसे चुकाने की हुई है. आज़ादी के लिए फांसी के तख्ते पर झूलने की हुई है तो सुजीत और विक्की की इस फ़िल्म को कोई देखे या न देखे कश्मीर के उन इंडिया गो बैक, पाकिस्तान जिंदाबाद कहने वाले पत्थरबाजों को ज़रूर देखना चाहिए जो देश और देश की सरकार को तुलना मुहम्मद बिन तुगलक से करते हैं और उसे दमनकारी बताते हैं.
फ़िल्म देखने के बाद इन्हें वाक़ई इस बात का एहसास हो जाएगा कि देश और देश की सरकार दोनों ही बड़े लिबरल हैं.
वामपंथी इंटीलेक्चुअल्स
यदि आज देश की दुर्दशा हुई है और बात उसका क्रेडिट देने या ये कहें कि उसका सेहरा किसी के सिर बांधने की हो तो ये वामपंथी इंटीलेक्चुअल्स ही हैं जिन्होंने अपनी बातों से, अपनी नीतियों से एक देश के रूप में भारत का सबसे ज्यादा नुकसान किया है. ऐसे लोग सरदार उधम अवश्य देखें और बन पड़े तो देश के महान क्रांतिकारियों के लिए अपना ईमानदारी से भरा रिव्यू जरूर दें.
बात सीधी और साफ है सीताराम येचुरी से लेकर कविता कृष्णन, आरजे सायमा, इरफान हबीब जैसे लोग जब इस फ़िल्म को देखेंगे तो शायद उनकी आंखों पर पड़ा पर्दा हट जाए और उन्हें इस बात का एहसास हो जाए कि अब तक उन्होंने अपनी नीतियों से भारत के केवल टुकड़े ही किये हैं.
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