पा रंजीत ने बॉक्सिंग स्पोर्ट्स ड्रामा सरपट्टा परम्बरई के रूप में जो सिनेमा बनाया है उसे लंबे वक्त तक याद किया जाएगा. शुरू से आखिर तक ये फिल्म बॉक्सिंग की लाइन पर ही आगे बढ़ती है, लेकिन इसकी बनावट कुछ ऐसी है कि महज स्पोर्ट्स ड्रामा भर नहीं रह जाती. बल्कि उससे कहीं बढ़कर बहुत आगे तक पहुंचती है. असल में सरपट्टा में जो बॉक्सिंग रिंग दिख रहा है उसके हर बाउट्स और फाउल सीधे समाज और राजनीति से गहराई तक जुड़े हैं. रंजीत का बॉक्सर नेशनल या ओलिम्पिक चैम्पियन नहीं बनना चाहता. बल्कि सम्मान और स्वाभिमान के लिए पंच मारता है. कॉमर्शियल सिनेमा में ये खूबी सिर्फ पा रंजीत के पास दिखती है. वो एक कहानी सीधे-सीधे दिखाते हैं. मगर उसके समानांतर भी उनकी एक कहानी चलती है जिसका आधार सामजिक और राजनीतिक होता है.
पा रंजीत ने सरपट्टा के जरिए मौजूदा राजनीति पर तंज कसा है और उसकी तुलना आपातकाल से की है. दरअसल, फिल्म की कहानी 1970 के दशक में मद्रास की है. जहां बॉक्सिंग रिंग से बादशाहत तय होती है. ये रिंग सामजिक वर्चस्व भी तय करता है. यह भी तय करता है कि कौन रिंग में उतरेगा और कौन नहीं. किसे जीतना चाहिए और कैसे किसी जीते हुए को हराना है. रंजीत ने आपातकाल, स्वाययत्ता के रिफ्रेंस भी उठा लिए हैं. उस वक्त इंदिरा प्रधानमंत्री थीं. किसी का नाम लिए बिना उन्होंने प्रधानमंत्री की कार्यशैली पर कुछ जगह सवाल उठाए हैं. बाद में एक जगह इंदिरा की तस्वीर का भी इस्तेमाल किया है. असल में रंजीत इंदिरा भर से सवाल नहीं करते. रंजीत ने इशारों में नरेंद्र मोदी पर भी निशाना साधा है और केंद्र के साथ दक्षिण के गैर भाजपाई राज्यों के रिश्ते पर टिप्पणी की है.
रंजीत पहले ही फ्रेम में सरपट्टा की कहानी का बेस साफ़ कर देते हैं कि बॉक्सिंग रिंग की लड़ाई दरअसल, राजनीति और समाज के उस वर्ग से हो रही है जो सबसे निचले पायदान...
पा रंजीत ने बॉक्सिंग स्पोर्ट्स ड्रामा सरपट्टा परम्बरई के रूप में जो सिनेमा बनाया है उसे लंबे वक्त तक याद किया जाएगा. शुरू से आखिर तक ये फिल्म बॉक्सिंग की लाइन पर ही आगे बढ़ती है, लेकिन इसकी बनावट कुछ ऐसी है कि महज स्पोर्ट्स ड्रामा भर नहीं रह जाती. बल्कि उससे कहीं बढ़कर बहुत आगे तक पहुंचती है. असल में सरपट्टा में जो बॉक्सिंग रिंग दिख रहा है उसके हर बाउट्स और फाउल सीधे समाज और राजनीति से गहराई तक जुड़े हैं. रंजीत का बॉक्सर नेशनल या ओलिम्पिक चैम्पियन नहीं बनना चाहता. बल्कि सम्मान और स्वाभिमान के लिए पंच मारता है. कॉमर्शियल सिनेमा में ये खूबी सिर्फ पा रंजीत के पास दिखती है. वो एक कहानी सीधे-सीधे दिखाते हैं. मगर उसके समानांतर भी उनकी एक कहानी चलती है जिसका आधार सामजिक और राजनीतिक होता है.
पा रंजीत ने सरपट्टा के जरिए मौजूदा राजनीति पर तंज कसा है और उसकी तुलना आपातकाल से की है. दरअसल, फिल्म की कहानी 1970 के दशक में मद्रास की है. जहां बॉक्सिंग रिंग से बादशाहत तय होती है. ये रिंग सामजिक वर्चस्व भी तय करता है. यह भी तय करता है कि कौन रिंग में उतरेगा और कौन नहीं. किसे जीतना चाहिए और कैसे किसी जीते हुए को हराना है. रंजीत ने आपातकाल, स्वाययत्ता के रिफ्रेंस भी उठा लिए हैं. उस वक्त इंदिरा प्रधानमंत्री थीं. किसी का नाम लिए बिना उन्होंने प्रधानमंत्री की कार्यशैली पर कुछ जगह सवाल उठाए हैं. बाद में एक जगह इंदिरा की तस्वीर का भी इस्तेमाल किया है. असल में रंजीत इंदिरा भर से सवाल नहीं करते. रंजीत ने इशारों में नरेंद्र मोदी पर भी निशाना साधा है और केंद्र के साथ दक्षिण के गैर भाजपाई राज्यों के रिश्ते पर टिप्पणी की है.
रंजीत पहले ही फ्रेम में सरपट्टा की कहानी का बेस साफ़ कर देते हैं कि बॉक्सिंग रिंग की लड़ाई दरअसल, राजनीति और समाज के उस वर्ग से हो रही है जो सबसे निचले पायदान पर रहे लोगों को किसी भी सूरत में दबाकर नियंत्रित करना चाहता है. इसके लिए वो सही-गलत तमाम रास्तों का इस्तेमाल करता है. अड़चनें पैदा करता है. जबकि निचले पायदान में गजब की नैसर्गिक प्रतिभाएं हैं जिन्हें कभी मकसद ही नहीं मिला है. सरपट्टा का कबिलन (आर्या) जो एक साधारण मजदूर है वो भी बेमकसद है. उसे ना तो ट्रेनिंग मिली है और ना ही कभी रिंग में उतरा है. हां, बॉक्सिंग बचपन से उसका जुनून है. उसके पिता भी बॉक्सर थे. उन्हें जुनून बदलने की कीमत जान देकर चुकानी पड़ी थी.
रंगन पॉलिटिकल एक्टिविस्ट और बॉक्सिंग कोच है. जब रिंग में रंगन के स्वाभिमान को चुनौती मिलती है और उनका अपमान होता है तब कबिलन मुकाबले के लिए सामने आता है. ताकत उसके पास पहले से थी. रंगन उसे इतना तराश देता है कि उसके आगे रिंग में कोई खड़ा होने लायक नहीं है. कबिलन एक ही मैच से हीरो बन जाता है. यही बात कुछ लोगों को चुभती है. वो नहीं चाहते कि बॉक्सिंग रिंग में उसका दबदबा बने. रिंग में कबिलन का मुकाबला नहीं किया जा सकता. इसलिए उसे साजिश के जरिए रोकने का काम होता है. ना चाहते हुए भी एक उभरते बॉक्सर को अपराध के रास्ते पर पहुंचा दिया जाता है. कबिलन की गलती क्या थी? सिर्फ यह कि वो सामने खड़ा हुआ. साजिशों और हालात ने उसके परिवार और उसकी जिंदगी को तबाही के मुहाने खड़ा कर दिया. वो सबकुछ हार चुका है. मां, पत्नी, कोच, दोस्त और अपने समाज तक भरोसा खो चुका है.
कबिलन बॉक्सिंग रिंग में फिर उतरना चाहता है. लेकिन इस बार यह बताने के लिए उसका वजूद क्या है, वो कौन है और ये कि उसकी ट्रेनिंग सही है. मां की जिद के बावजूद कबिलन कैसे बॉक्सर बनता है, साजिशों का शिकार कैसे होता है और किस तरह दोबारा रिंग में वापस आता है, फिल्म में इसे जबरदस्त तरीके से दिखाया गया है. पा रंजीत ने जिस शानदार अंदाज में सरपट्टा की कहानी लिखी है उसे फिल्माया भी वैसे ही है. पीरियड स्पोर्ट्स ड्रामा का हर रंग उभरकर सामने आता है. यही वजह है कि ये एक अथेंटिक और रियलिस्टिक स्पोर्ट्स फिल्म लगती है. इसके किरदार उपदेश नहीं देते. नाटकीयता को भी कहानी में जगह नहीं दी गई है. रोमांस भी अलग किस्म का है जहां कबिलन की पत्नी, पति के साथ सोने से ज्यादा जागना चाहती है. हालांकि फिल्म की लंबाई करीब दो घंटे 50 मिनट है. ये जरूरत से कुछ ज्यादा है. अच्छी बात ये है कि बॉक्सिंग मैचेस फिल्म झेलू नहीं बनने देते. कॉस्ट्यूम, डिजाइन और सेट रियलिस्टिक लगते हैं. बॉक्सर्स की भूमिका निभाने वाले आर्या और दूसरे कलाकारों की फिटनेस तो कमाल की है.
सभी सितारों ने जबरदस्त काम किया है. खासकर आर्या और पशुपति ने अपने किरदारों में जान डाल दी है. आर्या का लुक भी बहुत प्रभावी है. हाल ही में आई बॉलीवुड की तूफ़ान भी बॉक्सिंग फिल्म है. क्या इत्तेफाक है कि जब राकेश ओमप्रकाश मेहरा बॉलीवुड में हिंदू-मुस्लिम और लवजिहाद की चासनी में एक बॉक्सर की कहानी तूफ़ान कहने की कोशिश करते हैं, रंजीत सरपट्टा लेकर आए हैं. सरपट्टा के हर फ्रेम फ्रेम से ही उनका विजन साफ़ है. सरपट्टा का हर फ्रेम समाज में लेयर्ड कास्ट सिस्टम को चुनौती देता दिख रहा है. और तूफ़ान में? राकेश मेहरा यह अंत तक तय नहीं कर पाए कि इसे मौजूदा परिवेश में एक लावारिस मुस्लिम युवा की कहानी के रूप में दिखाए या फिर एक बॉक्सर के रूप में. उनके नायक का दोनों रूप एक हुआ ही नहीं या फिर किया ही नहीं गया. कन्फ्यूजन का असर ये हुआ कि तूफ़ान का बॉक्सर ना तो अपनी कहानी कह पाता है और ना ही उन धार्मिक राजनीतिक हालात का जिससे उसका हर सेकेंड सामना होता है. रंजीत के सिनेमा में यही कन्फ्यूजन नहीं है. वो पहले सेकेंड से ही साफ हैं कि उन्हें कहना क्या है.
बॉलीवुड की तरह दलितों की आंख में धूल नहीं झोंकते पा रंजीत, उन्हें असल हीरो बनाते हैं
सरपट्टा के साथ सेकेंड भर भी तूफ़ान की तुलना करना आसमान को आइना दिखाने जैसा होगा. राकेश मेहरा को तो सरपट्टा जरूर देखना चाहिए. हालांकि सरपट्टा, रजनीकांत के साथ आई पा रंजीत की फिल्म काबाली और काला से कमजोर है. काबाली और काला ज्यादा मनोरंजक फ़िल्में थीं. सरपट्टा में मनोरंजक मसाले की बजाय वैचारिक पैनापन ज्यादा है. तमिल राजनीति और सामजिक आंदोलनों को नहीं जानने वाले दर्शक सरपट्टा की कहानी में थोड़ा उलझ सकते हैं. काला और काबाली में इस तरह का पॉलिटिकल रिफ्रेंस नहीं था. बल्कि वहां सामजिक राजनीतिक प्रतीक ज्यादा थे और वैचारिकता संकेतों में थी.
सरपट्टा के जरिए रंजीत का मैसेज साफ़ है. हाशिए का समाज शक्तिशाली है. उसे बस मकसद पहचान करना है और ईमानदारी से जीतना है. रास्ते में बहुत सारी अड़चने आएंगी. लेकिन किसी भी सूरत में ट्रैक बदलकर तबाह नहीं होना है. क्योंकि एक जीत कई सपनों की बुनियाद बनती है. सरपट्टा अमेजन प्राइम पर स्ट्रीम हो रही है. यहां उसे देखा जा सकता है.
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