अभी कल की बात तो थी जब पूरा देश Metoo मूवमेंट से गुजर रहा था. महिलाओं ने अपने खिलाफ यौन शोषण के आरोपों पर बोलना, मुंह खोलना शुरु कर दिया. कई हाइप्रोफाइल एलीट लोगों तक की कलई खुली. मगर मेरी नजर में यह फिल्म उस जगह जहां महिलाएं Metoo के जरिए पहुंच गई थीं वहां से नीचे धकेलने की कोशिश है. एक नकारात्मक छवि और नैरेटिव इसके जरिए स्थापित हो रहा है कि फिल्म इंडस्ट्री में तो यह सब होता ही रहता है. पितृसत्ता के खिलाफ महिलाओं की लड़ाई को फिल्म कमतर कर देती है.
यौन शोषण की सत्य घटनाओं से प्रेरित होकर निर्देशक अजय बहल फिल्म बनाते हैं Section 375. पूरी फिल्म मर्ज़ी या जबरदस्ती इन्हीं दो शब्दों की लड़ाई है जिसे दो वकील लड़ते हैं- एक कहता है मर्ज़ी, एक कहता है जबरदस्ती. और अंत में एक स्टैंड लेकर फिल्म खत्म हो जाती है और आप हॉल से असंवेदनशीलता का तोहफा अपने दिमाग में लेकर निकलते हैं.
कहानी कुछ यूं है
फिल्म डायरेक्टर रोहन खुराना यानी राहुल भट पर अपनी जूनियर कास्ट्यूम डिज़ाइनर अंजलि दांगले यानी मीरा चोपड़ा के रेप का आरोप लगता है. सेशंस कोर्ट तमाम सबूतों के आधार पर रोहन खुराना को दस साल की जेल की सजा सुनाता है. डायरेक्टर खुराना की पत्नी पति को बचाने के लिए हाईकोर्ट के नामी वकील तरुण सलूजा यानी Akshay Khanna को चुनती है. जिसका मानना है कि जस्टिस इज़ एबस्ट्रैक्ट एंड लॉ इज़ द फैक्ट. विक्टिम का केस लड़ती है पब्लिक प्रॉसिक्यूटर हीरल गांधी यानी Richa chaddha जिसका न्याय पर अटूट विश्वास है और जो मानती है कि न्याय सबको मिलना चाहिए. हाईकोर्ट के जज बने हैं कैलाश कदम और कृतिका देसाई. जिसमें कदम नो नॉनसेंस की सोच वाले हैं तो वहीं कृतिका हैं प्रोग्रेसिव और लिबरल.
अभी कल की बात तो थी जब पूरा देश Metoo मूवमेंट से गुजर रहा था. महिलाओं ने अपने खिलाफ यौन शोषण के आरोपों पर बोलना, मुंह खोलना शुरु कर दिया. कई हाइप्रोफाइल एलीट लोगों तक की कलई खुली. मगर मेरी नजर में यह फिल्म उस जगह जहां महिलाएं Metoo के जरिए पहुंच गई थीं वहां से नीचे धकेलने की कोशिश है. एक नकारात्मक छवि और नैरेटिव इसके जरिए स्थापित हो रहा है कि फिल्म इंडस्ट्री में तो यह सब होता ही रहता है. पितृसत्ता के खिलाफ महिलाओं की लड़ाई को फिल्म कमतर कर देती है.
यौन शोषण की सत्य घटनाओं से प्रेरित होकर निर्देशक अजय बहल फिल्म बनाते हैं Section 375. पूरी फिल्म मर्ज़ी या जबरदस्ती इन्हीं दो शब्दों की लड़ाई है जिसे दो वकील लड़ते हैं- एक कहता है मर्ज़ी, एक कहता है जबरदस्ती. और अंत में एक स्टैंड लेकर फिल्म खत्म हो जाती है और आप हॉल से असंवेदनशीलता का तोहफा अपने दिमाग में लेकर निकलते हैं.
कहानी कुछ यूं है
फिल्म डायरेक्टर रोहन खुराना यानी राहुल भट पर अपनी जूनियर कास्ट्यूम डिज़ाइनर अंजलि दांगले यानी मीरा चोपड़ा के रेप का आरोप लगता है. सेशंस कोर्ट तमाम सबूतों के आधार पर रोहन खुराना को दस साल की जेल की सजा सुनाता है. डायरेक्टर खुराना की पत्नी पति को बचाने के लिए हाईकोर्ट के नामी वकील तरुण सलूजा यानी Akshay Khanna को चुनती है. जिसका मानना है कि जस्टिस इज़ एबस्ट्रैक्ट एंड लॉ इज़ द फैक्ट. विक्टिम का केस लड़ती है पब्लिक प्रॉसिक्यूटर हीरल गांधी यानी Richa chaddha जिसका न्याय पर अटूट विश्वास है और जो मानती है कि न्याय सबको मिलना चाहिए. हाईकोर्ट के जज बने हैं कैलाश कदम और कृतिका देसाई. जिसमें कदम नो नॉनसेंस की सोच वाले हैं तो वहीं कृतिका हैं प्रोग्रेसिव और लिबरल.
इसमें कोई शक नहीं हाईकोर्ट के कोर्टरूम में अक्षय और ऋचा के बीच की हार्डकोर बहस के जबरदस्त संवाद हैं मनीष ने कसी हुई स्क्रिप्ट लिखी. ऐसे मामलों के कई ग्रे ज़ोन अक्षय के तर्कों के जरिए रखने की सफल कोशिश तो की गई मगर साथ ही साथ अक्षय से यह भी कहलवाया गया कि हम न्याय के नहीं कानून के व्यवसाय मे हैं जो फिल्म के अंत मे साबित भी हो जाता है जब इस फिल्म के डायरेक्टर अजय बहल अंत में मर्ज़ी या जबरदस्ती में से एक को चुन लेते हैं तो वो इस बात को गढ़ देते हैं कि कानून सबसे ऊपर है भले न्याय मिले या नहीं मिले. तब ऐसी घटनाओं को आम होने का तमगा मिल जाता है और समाज स्त्रियों के प्रति फिर असंवेदनशीलता की गर्त में जाता दिखता है.
आईपीसी की धारा 375 पितृसत्तात्मक मर्दवादी सोच से लड़ने के लिए स्त्रियों की गरिमा और आत्मसम्मान को बरकरार करते हुए एक शानदार उपहार है जो मर्दवादी सोच के खिलाफ उनकी लड़ाई में उन्हें आगे करता है बल देता है आत्मविश्वास जगाता है. लेकिन दुखद है कि फिल्म का अंत महिलाओं की इस लड़ाई को ही कमजोर करता है. और बेमानी बताता है. मैं यह नहीं कहती कि कानून का दुरुपयोग नहीं होता लेकिन अगर आरोपी को बचाने के लिए उसके अकाउंट पर स्त्रियों की छवि धूमिल की जाती है तो यह प्रस्तुतीकरण की विवेकहीनता ही मानी जाएगी.
एंटरटेनमेंट के हिसाब से, अक्षय-ऋचा की एक्टिंग के लिहाज़ से, उनके एक दूसरे के साथ प्रोफ़ेशनल बिहेवियर के लिए, कसी हुई पटकथा और बेहतरीन ध्यान खींचने वाले संवादों के लिए फिल्म को मैं 3 स्टार देती हूं मगर अगर फिल्मों का समाज में कोई सकारात्मक योगदान आप मानते हैं तो अजय बहल इस लिहाज से अदूरदर्शी साबित हुए क्योंकि फिल्म से उपजे नैरेटिव स्त्रियों की छवि को नुकसान पहुंचाते हैं.
फिल्म के अंत में ऋचा चड्ढा अक्षय खन्ना से कहती हैं जो फिल्म में वकालात के पेशे में उनके सीनियर दिखाए गए हैं और उनकी सोच की वजह से ही ऋचा चड्ढा उनका चैंबर छोड़ देती है. वह फिल्म के अंत में उनसे कहती है जस्टिस इज़ नॉट डन सर. और मैं भी समीक्षा के अंत में अजय बहल से यही कहूंगी की मर्दवादी पितृसत्तात्मक स्टीरियोटाइप सोच के खिलाफ Justice is not done अजय बहल सर.
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