शमशेरा के रूप में लगातार तीसरी बड़ी बजट की बॉलीवुड फिल्म का पिटना दिखाता है कि वक्त या दिमाग या ट्रेंड कुछ तो है जो बदल रहा है. मेनस्ट्रीम बॉलीवुड से रचनात्मक अपेक्षाएं बहुत वर्ष पहले खत्म हो चुकी हैं. ये कथ्य अधिकतर पर सही है गाहे बगाहे आयी फिल्मो पर नहीं. कभी किसी फिल्म की कहानी,ऑथेंटिसिटी पर कुछ कहो तो मधुमक्खियों के छत्ते में पड़े पत्थर के बाद का हाल होता है. शाहरुख, सलमान, रणबीर, दीपिका, अनन्या अलान फलान के फैन खड़े होते है नहीं नहीं ऐसा नहीं और ये बॉलीवुड है एंटरटेनमेंट के लिए देखिए बिना दिमाग लगाए. आश्चर्य कि क्रिएटिविटी से अधिकतर हिन्दुस्तानियों का लेना देना फिल्म देखने और संगीत सुनने तक ही सिमित है.
ऐसे में घटिया बे सिरपैर की फिल्मे और भौंड़ा संगीत चार्टबस्टर हो तो आम हिंदुस्तान के दिमाग का पता चलता है. तो क्या हमारे एंटरटेनमेंट के मानक वाकई इतने घटिया और निम्नस्तरीय है या अब तक ये औसत हिंदुस्तानी की चॉयस नहीं मज़बूरी थी ?
ड्रामा विथ नो रिसर्च
बॉलीवुड में पीरियड ड्रामा या फिक्शन किरदार पर किसी खास समय काल खंड का ड्रामा बनाने वाले ऊँगली पर गिने जाने लायक डाइरेक्टर है. ये फिल्मे रिसर्च मांगती है और रिसर्च के लिए समय देना होगा. उसके बाद फिल्म की ट्रीटमेंट, उसकी भाषा, पहनावा संगीत , कहानी का कसाव सभी कुछ पर ध्यान देना होगा और फिल्म के इन सभी हिस्सों को पकना होगा साथ जिससे की जो बन कर आये वो खूबसूरत हो. लेकिन रिसर्च के लिए टाइम कहां और अगर है तो खुदा जाने कौन सा रिसर्च कौन लोग करते हैं. हालिया आयी शमशेरा भी शायद इसी रिसर्च की कमी का शिकार हुई.
1897 के किरदार, पहनावा और फिल्म की आबो हवा सब तीतर बितर थे. क्या वजह है की वेल रिसर्च फिल्म बनाने...
शमशेरा के रूप में लगातार तीसरी बड़ी बजट की बॉलीवुड फिल्म का पिटना दिखाता है कि वक्त या दिमाग या ट्रेंड कुछ तो है जो बदल रहा है. मेनस्ट्रीम बॉलीवुड से रचनात्मक अपेक्षाएं बहुत वर्ष पहले खत्म हो चुकी हैं. ये कथ्य अधिकतर पर सही है गाहे बगाहे आयी फिल्मो पर नहीं. कभी किसी फिल्म की कहानी,ऑथेंटिसिटी पर कुछ कहो तो मधुमक्खियों के छत्ते में पड़े पत्थर के बाद का हाल होता है. शाहरुख, सलमान, रणबीर, दीपिका, अनन्या अलान फलान के फैन खड़े होते है नहीं नहीं ऐसा नहीं और ये बॉलीवुड है एंटरटेनमेंट के लिए देखिए बिना दिमाग लगाए. आश्चर्य कि क्रिएटिविटी से अधिकतर हिन्दुस्तानियों का लेना देना फिल्म देखने और संगीत सुनने तक ही सिमित है.
ऐसे में घटिया बे सिरपैर की फिल्मे और भौंड़ा संगीत चार्टबस्टर हो तो आम हिंदुस्तान के दिमाग का पता चलता है. तो क्या हमारे एंटरटेनमेंट के मानक वाकई इतने घटिया और निम्नस्तरीय है या अब तक ये औसत हिंदुस्तानी की चॉयस नहीं मज़बूरी थी ?
ड्रामा विथ नो रिसर्च
बॉलीवुड में पीरियड ड्रामा या फिक्शन किरदार पर किसी खास समय काल खंड का ड्रामा बनाने वाले ऊँगली पर गिने जाने लायक डाइरेक्टर है. ये फिल्मे रिसर्च मांगती है और रिसर्च के लिए समय देना होगा. उसके बाद फिल्म की ट्रीटमेंट, उसकी भाषा, पहनावा संगीत , कहानी का कसाव सभी कुछ पर ध्यान देना होगा और फिल्म के इन सभी हिस्सों को पकना होगा साथ जिससे की जो बन कर आये वो खूबसूरत हो. लेकिन रिसर्च के लिए टाइम कहां और अगर है तो खुदा जाने कौन सा रिसर्च कौन लोग करते हैं. हालिया आयी शमशेरा भी शायद इसी रिसर्च की कमी का शिकार हुई.
1897 के किरदार, पहनावा और फिल्म की आबो हवा सब तीतर बितर थे. क्या वजह है की वेल रिसर्च फिल्म बनाने से गुरेज़ है हमे ? साल की चार फिल्मे निकल कर फिल्मों का मास प्रोडकशन करने के इरादे से हम रचनात्मकता को तिलांजलि दे चुके. "द फिल्म इस डिफरेंट " कहने से फिल्म अलग नहीं होगी ये समझना ज़रूरी है.
किरदार वर्सेज हीरो
लार्जर देन लाइफ - ये इमेज है हमारे हीरो हीरोइनों की. ऐसे में अक्सर वो जिस किरदार को निभाते है उस मुखौटे में से हीरो की झलक मिल ही जाती है. बहुत कम ऐसे किरदार है जहां हीरो केवल किरदार के तौर पर याद रहा. कुछ हीरो कभी किसी किरदार को नहीं निभाते वो केवल स्वयं के रूप में आते है ,फिर नाम चाहे प्रेम हो या राहुल - आपने नाम सुना होता है और बार बार सुनना चाहते है. लेकिन ऐसा हर एक के साथ नहीं हो सकता और हर समय तो कतई नहीं हो सकता.
रणबीर के हर किरदार में 'बन्नी', की झलक दिख ही जाती है. इस मामले में हीरोइने किरदारों में खुद को ढालने में ज़्यादा कामयाब हुई. 2020 के बाद से खास तौर पर ड्राइंगरूम में OTT के आने से दर्शक किरदार को समझने और कलाकार को देखने की लज़्ज़त समझ गए शायद इसीलिए - कालीन भाई के नाम से बुलाने पर कोई भी समझ जायेगा कि बात पंकज त्रिपाठी की हो रही है. जीतू भैया , गुड्डू ,फॅमिली मैन बस इन शब्दों में ही किरदार और कहानी की याद है. ये जादू बॉलीवुड के पिटारे में तब तक नहीं आएगा जब तक स्टार को छोड़ कर कलाकार का गर्दा नहीं उड़ेगा!
ह्यूमर बनाम बेइज़्ज़ती
ह्यूमर के मामले में हम भारतीय काफी टची है.हमें मज़ाक केवक तब तक भाता है जब तक उसका विषय दूसरे हो लेकिन सुई हमारी तरफ घूमी की हम ऑफेंड हो जाते है. वही ह्यूमर के असल मायने हमें दूसरों की बेइज़्ज़ती या अश्लीलता के तड़के के साथ कही गई डबल मीनिंग जोक्स लगते हैं. पति पत्नी या स्त्री पुरुष के नाम पर सेक्सिस्ट जोक्स भी हमारे फनी बोन्स को खूब गुदगुदाते हैं.
यही वजह है की स्टैंड उप कॉमेडी के साथ साथ ऐसी फिल्मे जहां कहानी के नाम पर किसी सिचुएशन में फंसे कुछ किरदार और ग्लैमर के के लिए इंच से नपे कपडे पहने हुई हीरोइने और बेवजह के डबल माइनिंग वाली पंचलाइन मारने वाले साइड किरदार होते है , इन्ही को हमने अपने ह्यूमर के दायरे की सीमा बना रखा है.
विषय से भटकाव - रिस्क लेने से डर
सबसे हालिया फेल हुई फिल्म फिल्म शमशेरा में भी दर्शक कंफ्यूज ही रहा कि फिल्म जातियता पर है या अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ाई पर या कुछ और ! 1897 में में सेट हुई अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ता 'बन्नी' ! रिसर्च वाले टॉपिक उठाते क्यों है माशाल्लाह शक्ल सूरत है सेफ लव स्टोरी -ब्रेक उप स्टोरी खेलिए! वहीं एक और आई गयी फिल्म "जुग जुग जियो ' जिसे यकीनन बहुत लोगों ने देखा ही नहीं होगा, एक ज़रूरी संवेदनशील मुद्दे को मज़ाक बना कर पेश करती दिखी.
आखिर क्यों हम एक मच्योर लव स्टोरी या रिश्ते में डिवोर्स को बेहतर ढंग से नहीं दिखा पाते. यंग कपल में रिश्तों को ना समझने के वजह से या एक दूसरे से मिजाज़ में बेहद अलग होने की वजह से अलग होने का फैसला लेते हैं और वही 35 साल साथ रहते हुए एक जोड़ा भी अलग होने का फैसला लेता है. विषय बोल्ड है और यकीं मानिये समाज में आम सुने जानेवाला किस्सा हो गया है, फिर भी दरकते रिश्ते को नासमझी और पुरुष के एक्स्ट्रा मेरिटियल अफेयर को उसकी 'ठरक' दिखा कर अंत में फिल्म को उम्मीद पर छोड़ा की मात्र छह महीने में 'ठरकी ' पुरुष दोबारा अपनी पत्नी को पटा लेगा!
आला दर्ज़े की घटिया सेक्सिस्ट फिल्म जो की बहुत उम्दा हो सकती थी अगर विषय को लेखक और डाइरेक्टर ने भौंडा मज़ाक न समझा होता. उम्रदराज़ कलाकार जिन्हे कहानी में कोई गलती नज़र नहीं आयी और लेखक की सोच तो संकुचन के लग लेवल पर है.
बदलते हिंदुस्तान में लोग बदल रहे हैं. पिछले दो सालों की सबसे अच्छी बात यही रही की अच्छे लेखक, डाइरेक्टर OTT के ज़रिये हमारे घरों तक आरहे और कुछ बेहतरीन कहानियाँ वेब सीरीज़, यूट्यूब पर देखने को मिली. ये वाला हिंदुस्तान वर्ल्ड सिनेमा भी देख रहा है. आप कहीं से कुछ चुराएं तो देख समझ के क्योंकी हॉलीवुड से हट कर ईरानी, जापानी कोरियन सिनेमा भी पहुंच से दूर नहीं. बॉलीवुड के तथाकथित गुटों को समझना होगा कि अब बदलाव के दौर में बदलने और थोड़ा दिमाग लगाने का समय आ गया है.
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