जाते हुए ऋषि कपूर की आखिरी मूवी. मौत ने उनके हिस्से का रोल पूरा होने से पहले ही पैक अप बोल दिया तो बचे रहे लाइट कैमरा एक्शन का जिम्मा परेश रावल के कंधे हैं. नाम सुनकर लगता है फिल्म में शर्मा जी का किरदार नुक्कड़ के "नन्हे नमकीन", चौराहे के "तिवारी के समोसे" जैसे किसी कांसेप्ट के इर्द गिर्द या केंद्र में होना चाहिए. जो है भी. नहीं भी. फिल्म शुरू होती है शर्मा जी की रिटायरमेंट अनाउंसमेंट के साथ. 60 के बाद की जिंदगी जिसमें बीवी की शिरकत नहीं है. सुख–दुख, कहने सुनने, लड़ने झगड़ने के लिए सैटल होते और जवान होते दो बेटों की वैकल्पिक व्यवस्था के बीच शर्मा जी रिटायर मेंट के बाद की जिंदगी को व्यथित करने में लगे हैं. जिंदगी, जिसमें 'अब जा के फुर्सत मिली है, आराम करेंगे.' शुरुवात में एक्साइटिंग लगता है. बाद में उबाऊ, फिर थकाऊ और आखिरकार झिलाऊ लगने लगता है. लेकिन शर्मा जी ठहरे आदमी जुझारू.
कहते हैं जब 75 साल की उम्र में अमिताभ बच्चन रिटायर नहीं हो रहे. तो मैं सिर्फ बिजली और केबल का बिल ही जमा करने के लिए बचा हूं क्या? फिल्म एक सीरियस इश्यू को नॉन सीरियस होकर कहना चाहती है. रिटायरमेंट के बाद की जिंदगी की कश्मकश. बेटे का रवैया बाप में तब्दील होना. मन का काम करने के लिए अपने ही बच्चों को कन्विंस करना. यानी सिर्फ औरतों को ही नही, ढल रहे पिताओं को भी किसी का का मुंह ताकना पड़ता है.
अब बेटे, बाप को 'लोग क्या कहेंगे' वाला जुमला पकड़ा देते हैं. चूंकि फिल्म में ऋषि कपूर के बचे रोल को परेश रावल ने किया है सो दोनों अभिनेता आते जाते रहते है. यह ऐसा है जैसे दरवाजे के अंदर गए ऋषि और बाहर निकले परेश. बार बार का ट्रांस फॉर्मेशन थोड़ा खलता...
जाते हुए ऋषि कपूर की आखिरी मूवी. मौत ने उनके हिस्से का रोल पूरा होने से पहले ही पैक अप बोल दिया तो बचे रहे लाइट कैमरा एक्शन का जिम्मा परेश रावल के कंधे हैं. नाम सुनकर लगता है फिल्म में शर्मा जी का किरदार नुक्कड़ के "नन्हे नमकीन", चौराहे के "तिवारी के समोसे" जैसे किसी कांसेप्ट के इर्द गिर्द या केंद्र में होना चाहिए. जो है भी. नहीं भी. फिल्म शुरू होती है शर्मा जी की रिटायरमेंट अनाउंसमेंट के साथ. 60 के बाद की जिंदगी जिसमें बीवी की शिरकत नहीं है. सुख–दुख, कहने सुनने, लड़ने झगड़ने के लिए सैटल होते और जवान होते दो बेटों की वैकल्पिक व्यवस्था के बीच शर्मा जी रिटायर मेंट के बाद की जिंदगी को व्यथित करने में लगे हैं. जिंदगी, जिसमें 'अब जा के फुर्सत मिली है, आराम करेंगे.' शुरुवात में एक्साइटिंग लगता है. बाद में उबाऊ, फिर थकाऊ और आखिरकार झिलाऊ लगने लगता है. लेकिन शर्मा जी ठहरे आदमी जुझारू.
कहते हैं जब 75 साल की उम्र में अमिताभ बच्चन रिटायर नहीं हो रहे. तो मैं सिर्फ बिजली और केबल का बिल ही जमा करने के लिए बचा हूं क्या? फिल्म एक सीरियस इश्यू को नॉन सीरियस होकर कहना चाहती है. रिटायरमेंट के बाद की जिंदगी की कश्मकश. बेटे का रवैया बाप में तब्दील होना. मन का काम करने के लिए अपने ही बच्चों को कन्विंस करना. यानी सिर्फ औरतों को ही नही, ढल रहे पिताओं को भी किसी का का मुंह ताकना पड़ता है.
अब बेटे, बाप को 'लोग क्या कहेंगे' वाला जुमला पकड़ा देते हैं. चूंकि फिल्म में ऋषि कपूर के बचे रोल को परेश रावल ने किया है सो दोनों अभिनेता आते जाते रहते है. यह ऐसा है जैसे दरवाजे के अंदर गए ऋषि और बाहर निकले परेश. बार बार का ट्रांस फॉर्मेशन थोड़ा खलता है.
रनवीर सिंह शुरूवात में ही फिल्म इंडस्ट्री के इतिहास में पहली बार हुए इस प्रयोग उर्फ मजबूरी के पक्ष में डिस्क्लेमर दे चुके है. इसलिए आप मानसिक रूप से तैयार भी रहते हैं.
परेश रावल ने ऋषि द्वारा छोड़ी गई खाली जगह को भरने की कोशिश की है. जो ठीक ठाक है लेकिन ऋषि कपूर शेव किए ढले गालों में ज्यादा कनविंसिंग, अपीलिंग अपने एक्सप्रेशन में ज्यादा इरिटेटिंग, मासूम और क्यूट लगे हैं. आखिरी फिल्म की वजह से दर्शक भावुक भी हो सकते हैं.
यह बॉलीवुड का कंगलापन है कि इन दिनों अच्छे सब्जेक्ट के बावजूद फिल्म को बेहद सतही तरीके से ट्रीट किया जा रहा है. सम लैंगिक रिश्तों पर बनी 'बधाई लो' हो या ट्रांस जेंडर पर 'चंडीगढ़ करे आशिकी' और अब इस फिल्म के ज़रिए रिटायरमेंट के बाद की जिंदगी की उलझनों, उपेक्षाओं, अपेक्षाओं और चाहनाओ को दिखाने की कोशिश हो.
एक सीन है जहां पिता द्वारा छुपकर किट्टी पार्टी में की गई कुकिंग की बात खुल जाती है. बेटा अब पिता की तरह तहकीकात करता हुए सवाल पूछता है और पिता, किसी बेटे की तरह हकलाते हुए जवाब ढूंढता है.
यह सीन पूरी फिल्म का आधार है. जिसमें डिटेलिंग, ठहराव और ज्यादा गहराई की जरूरत थी. लेकिन पूरे सीन में ऋषि कपूर के एक्सप्रेशन के अलावा कोई चीज मज़बूत नहीं है. अच्छी शुरुवात लेकिन आखिरी तक पहुंचते फिल्म भटक जाती है. डायरेक्टर पैक अप की जल्दी में रहे. ऋषि का पूरी तरह न होना फिल्म को कमजोर करता है.
जूही चावला भी ठीक ही हैं. जूही से याद आया, हिंदी सिनेमा जाने क्यूं हर सब्जेक्ट में हीरो हीरोइन और उनके बीच हो सकने वाले प्यार की संभावना को खोज लेता है. ना भी हो तो दर्शकों को संभावना का अश्वासन दे ही देता है. बॉलीवुड खुद को इस परिपाटी से कब आज़ाद करेगा, अल्लाह जाने. फिलहाल एक आखिरी बार सिर्फ ऋषि कपूर के लिए फिल्म देखी जा सकती है.
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