'मेरी तो आवाज और आत्मा दोनों ही चली गई'...बॉलीवुड के शोमैन राज कपूर ने ये बात तब कही थी, जब उनकी आंखों में आंसू और सामने फिल्म इंडस्ट्री के महान गायक मुकेश का पार्थिव शरीर था. साल 1976 के अगस्त महीने के उस मनहूस दिन को भला कौन भूल सकता है, जब 'दर्द भरे नगमों के देवता' कहे जाने वाले गायक मुकेश का अमेरिका में निधन हो गया. उनका पार्थिव शरीर जब भारत लाया गया, तो मुंबई एयरपोर्ट पर दिलीप कुमार, राजेंद्र कुमार, राजेश खन्ना, देवानंद, लता मंगेशकर जैसी बड़ी फिल्मी हस्तियां मौजूद थीं. मुकेश के शव को देखते ही राज कपूर रोने लगे. उनको बहुत मुश्किल से संभाला जा सका. राज कपूर साहब कहा करते थे, 'अगर मैं जिस्म हूं तो मुकेश मेरी आत्मा हैं'. जब आत्मा ही साथ छोड़ जाए, तो जिस्म बेजान हो जाती है. राज कपूर का भी उस वक्त कुछ ऐसा ही हाल हुआ था.
मुकेश के दर्द भरे नगमे हमेशा के लिए अमर हो चुके हैं. हर उम्र के लोगों की पसंद हैं उनके गाने. जीना यहां मरना यहां, मेरा जूता है जापानी, जाने कहां गए वो दिन, सजन रे झूठ मत बोलो, सावन का महीना, दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समाई, दोस्त दोस्त ना रहा, जैसे शानदार गाना गाने वाले मुकेश अक्सर कहा करते थे, 'मेरे सामने दस हल्के गीत हों, एक उदासी से भरा हो, तो मैं दस गीत छोड़ दूंगा और उदास गीत को चुनूंगा.' उनका पूरा नाम मुकेश चंद्र माथुर, जो आज तक सबके लिए मुकेश के रूप में ही पर्याप्त हैं, लेकिन प्रतिभा का उत्कर्ष देखें उदासी भरे गीतों के लिए नर्म दिल रखने वाले मुकेश ने हर प्रकार के गीत गाए और खूब गाए. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि उनको फिल्मी दुनिया लाने वाले उनके मेंटर एक्टर मोती लाल ने उन्हें सलाह दी था कि वह अपना अंदाज चुनें. वहीं गाएं, जो गा सकते हैं.
'मेरी तो आवाज और आत्मा दोनों ही चली गई'...बॉलीवुड के शोमैन राज कपूर ने ये बात तब कही थी, जब उनकी आंखों में आंसू और सामने फिल्म इंडस्ट्री के महान गायक मुकेश का पार्थिव शरीर था. साल 1976 के अगस्त महीने के उस मनहूस दिन को भला कौन भूल सकता है, जब 'दर्द भरे नगमों के देवता' कहे जाने वाले गायक मुकेश का अमेरिका में निधन हो गया. उनका पार्थिव शरीर जब भारत लाया गया, तो मुंबई एयरपोर्ट पर दिलीप कुमार, राजेंद्र कुमार, राजेश खन्ना, देवानंद, लता मंगेशकर जैसी बड़ी फिल्मी हस्तियां मौजूद थीं. मुकेश के शव को देखते ही राज कपूर रोने लगे. उनको बहुत मुश्किल से संभाला जा सका. राज कपूर साहब कहा करते थे, 'अगर मैं जिस्म हूं तो मुकेश मेरी आत्मा हैं'. जब आत्मा ही साथ छोड़ जाए, तो जिस्म बेजान हो जाती है. राज कपूर का भी उस वक्त कुछ ऐसा ही हाल हुआ था.
मुकेश के दर्द भरे नगमे हमेशा के लिए अमर हो चुके हैं. हर उम्र के लोगों की पसंद हैं उनके गाने. जीना यहां मरना यहां, मेरा जूता है जापानी, जाने कहां गए वो दिन, सजन रे झूठ मत बोलो, सावन का महीना, दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समाई, दोस्त दोस्त ना रहा, जैसे शानदार गाना गाने वाले मुकेश अक्सर कहा करते थे, 'मेरे सामने दस हल्के गीत हों, एक उदासी से भरा हो, तो मैं दस गीत छोड़ दूंगा और उदास गीत को चुनूंगा.' उनका पूरा नाम मुकेश चंद्र माथुर, जो आज तक सबके लिए मुकेश के रूप में ही पर्याप्त हैं, लेकिन प्रतिभा का उत्कर्ष देखें उदासी भरे गीतों के लिए नर्म दिल रखने वाले मुकेश ने हर प्रकार के गीत गाए और खूब गाए. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि उनको फिल्मी दुनिया लाने वाले उनके मेंटर एक्टर मोती लाल ने उन्हें सलाह दी था कि वह अपना अंदाज चुनें. वहीं गाएं, जो गा सकते हैं.
22 जुलाई 1923 को दिल्ली में पैदा हुए मुकेश की फिल्मी दुनिया में एंट्री की कहानी भी बहुत दिलचस्प है. हुआ यूं कि मुकेश ने 10वीं की परीक्षा पास करके दिल्ली लोक निर्माण विभाग में सहायक सर्वेयर की नौकरी कर रहे थे. इसी बीच उनके बहन की शादी थी, जिसमें बारात आई हुई थी. मेहमानों की देखभाल में मुकेश लगे हुए थे. नाश्ता-खाना होने के बाद कुछ लोगों ने मुकेश से गाने की फरमाइश की, जो ये जानते थे कि वो बहुत अच्छा गाना गाते हैं. मुकेश ऐसा गाना गाया कि महफिल पूरी रात झूमती रही. अगले दिन सुबह बारातियों में शामिल एक रिश्तेदार उनके पिता के पास पहुंचे और मुकेश को मुंबई ले जाने की बात कहने लगे. उन्होंने कहा, 'आपका बेटा बहुत अच्छा गाना गाता है. हम चाहते हैं कि इसे मुंबई ले जाकर फिल्मों में गाना गवाएं.' पिता को गाने वाली बात समझ में नहीं आई, तो उन्होंने मना कर दिया.
ऐसे हुई मुकेश के फिल्मी करियर की शुरूआत
मुकेश को मुंबई ले जाने का ऑफर देने वाले शख्स मशहूर अभिनेता मोतीलाल थे. मुकेश के पिता की मनाही के बाद वो मुंबई लौट आए, लेकिन उनके कानों में गानों की आवाज गूंजती रही. इधर मुकेश का मन भी गानों में रमता रहता था. वो लगातार अपने पिता से मुंबई जाने की बात कहते रहते थे. अंत में पिता ने उनकी अपनी किस्मत आजमाने की इजाजत दे ही थी. साल 1940 में वो मुंबई चले आए. मोती लाल के सहयोग से साल 1941 में उनको एक हिन्दी फिल्म निर्दोष में अभिनेता बनने का मौका मिला. इस फिल्म में मुकेश ने अपना पहला गीत 'दिल ही बुझा हुआ हो तो भी' गाया. साल 1945 में रिलीज हुई फिल्म 'पहली नजर' के गीत 'दिल जलता है तो जलने' के सफलता के बाद मुकेश बतौर प्लेबैक सिंगर फिल्म इंडस्ट्री में स्थापित हो गए. इसके बाद फिल्मी संगीत की दुनिया में उनका जादू चलने लगा.
शंकर-जयकिशन, राजकपूर और मुकेश की तिकड़ी
फिल्म इंडस्ट्री में शंकर जयकिशन, राज कपूर और मुकेश की तिकड़ी सबसे ज्यादा मशहूर और सफल मानी जाती थी. मुकेश ने केवल शंकर जय किशन के लिए 133 फिल्मों में प्लैबैक सिंगिंग किया था. बहुत कम लोग जानते हैं कि मुकेश ने अपने 35 साल के फ़िल्म संगीत करियर में लगभग 525 हिन्दी फ़िल्मों में लगभग 900 गीत ही गाये. जो रफ़ी, किशोर कुमार और लता मंगेशकर की तुलना में बहुत ही कम हैं. लेकिन मुकेश के गाये गीतों की लोकप्रियता इतनी ज्यादा रही कि अक्सर लोग यही समझते हैं कि मुकेश ने भी हज़ारों फ़िल्म गीत गाये होंगे. मुकेश कई सारी फिल्मों में मशहूर अभिनेता राज कपूर की आवाज बने जिसमें आवारा, मेरा नाम जोकर, संगम, श्री 420 आदि शामिल हैं. उन्होंने मनोज कुमार, फिरोज खान, सुनील दत्त आदि के लिए भी अपनी आवाज दी है. लोगों ने मुकेश की गायकी को खूब पसंद किया.
एक बेहद संवेदनशील इंसान थे गायक मुकेश
मुकेश के गाए गीतों में जहां संवेदनशीलता दिखाई देती है वहीं निजी जिंदगी में भी वह बेहद संवेदनशील इंसान थे. दूसरों के दर्द को अपना समझकर उसे दूर करने का प्रयास करते थे. एक बार एक लड़की बीमार हो गई. उसने अपनी मां से कहा कि अगर मुकेश उन्हें कोई गाना गाकर सुनाएं तो वह ठीक हो सकती है. मां ने जवाब दिया कि वह इतने बड़े गायक हैं, भला उनके पास तुम्हारे लिए कहां समय है. डॉक्टर ने मुकेश को उस लड़की की बीमारी के बारे में बताया. मुकेश तुरंत लड़की से मिलने अस्पताल गए और उसे गाना गाकर सुनाया. लड़की को खुश देखकर मुकेश ने कहा, यह लड़की जितनी खुश है उससे ज्यादा खुशी मुझे मिली है.
जब पिता की बात सुन रोने लगे नितिन मुकेश
गायक नितिन मुकेश ने अपने पिता की स्मृतियों से जुड़ा एक किस्सा साझा किया था, 'बात 1962 की है, मैं 12 साल का था. एक अंकल पिता (मुकेशजी) से मिलने आए. पिता ने बताया कि मॉरिशस में टूर होगा उसी संबंध में अंकल मिलने आ रहे हैं. हम होटल पहुंचे. यह शो अगस्त से नवंबर तक चलना था. कुल मिलाकर 30 शोज़ की बुकिंग की गई. इस दौरान ऑर्गेनाइजर ने पिता को एडवांस के तौर पर 3000 रुपए दिए. तब पिता ने मेरी तरफ देखा और मुझसे कहा- इन अंकल ने मुझे 3000 रुपए दिए हैं. अभी यह न मेरे हैं और ना ही तुम्हारे. जब तक मैं शोज़ न कर लूं तब तक यह अमानत अपनी नहीं होगी. यह शो आठ महीने बाद है, इस बीच यदि मुझे कुछ हो गया तो तुम्हें यह पूरी राशि इन्हें लौटानी होगी. पिता की यह बात सुनकर मैं वहीं रोने लगा. वो मुझे छोड़कर गए तो मेरी उम्र 25 वर्ष थी.'
'सत्यम शिवम सुंदरम' के लिए आखिरी रिकॉर्डिंग
राजकपूर की फिल्म 'सत्यम शिवम सुंदरम' के गाने 'चंचल निर्मल शीतल' की रिकॉर्डंग पूरी करने के बाद मुकेश अमेरिका में एक कंसर्ट में भाग लेने के लिए चले गए. वहां 27 अगस्त 1976 को दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया. मुकेश के दिल में यह ख्वाहिश थी कि वह गायक के साथ साथ अभिनेता के रूप में भी अपनी पहचान बनाएं. बतौर अभिनेता साल 1953 में रिलीज हुई फिल्म 'माशूका' और साल 1956 में रिलीज हुई फिल्म 'अनुराग' की विफलता के बाद उन्होंने पूरी तरह गाने की ओर ध्यान देना शुरू कर दिया. गीतों के लिए मुकेश को चार बार फिल्म फेयर के बेस्ट प्लेबैक सिंगर के पुरस्कार से सम्मानित किया गया. साल 1974 में रिलीज हुई फिल्म 'रजनी गंधा' के गाने 'कई बार यूहीं देखा' के लिए नेशनल अवार्ड से सम्मानित किया गया. मुकेश आज भले ही हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी आवाज अमर है.
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