कोई ग़ज़ल जिसे कोई शायर पूरे दिल से लिखना चाह रहा हो लेकिन काग़ज़ क़लम लेते ही उसके अल्फ़ाज़ खो जायें या फिर कोई कविता जो किसी उदास शाम में जल्दी उग आए किसी अकेले तारे को देख कर मन में आए और लिखने की कोशिश में कई पन्ने फाड़ दिए जायें. एक ऐसा अधूरापन जो अधूरा हो कर भी पूरा हो. कुछ-कुछ वैसी ही तो है रत्ना और अश्विन की कहानी. सब कुछ आधा-अधूरा फिर भी अपने आप में पूरा. रात Netflix पर कुछ खोजते हुए अचानक मुझे एक फ़िल्म दिखी ‘Sir’. पता नहीं कुछ तो ख़ास लगा मुझे पोस्टर में शायद नए चेहरे, नए इसलिए क्योंकि मैंने नहीं देखी थी इन दोनों की कोई फ़िल्म. फिर छोटी सी फ़िल्म थी तो यूं ही देखने लगी और पता नहीं चला कब फ़िल्म शुरू हुई और कब ख़त्म. सालों में मैंने इतनी प्यारी हिंदी फ़िल्म नहीं देखी.
वैसे देखा जाए तो कुछ भी ख़ास नहीं है इस फ़िल्म में. एक गांव की लड़की जो 19 साल में विधवा हो जाती है और उसे ज़िंदगी जीने के लिए शहर आना पड़ता है. शहर में वो किसी अमीर शख़्स के घर पर काम-वाली बाई की नौकरी करने लगती है. वो अमीर शख़्स भी अकेला है क्योंकि उसकी मंगेतर ने उस पर चीट किया है तो वो अपनी शादी तोड़ कर वापिस लौट आया है. बस दो अकेले लोग जो अपनी-अपनी ड्यूटी निभा रहे हैं कैसे उनके बीच में अपनेपन की चाशनी घुलने लगती है, बस ये फ़िल्म इतनी सी बात बताती है.
लेकिन, लेकिन... मेरे लिए ये फ़िल्म सिर्फ़ इतनी सी फ़िल्म नहीं है. मेरे लिए ये पाब्लो नेरूदा की कविता है जिसे मैं किसी भी अकेली रात में कितनी ही बार देख सकती हूं. मैं अक्सर कहती हूं कि अगर कोई किताब पढ़ कर या फ़िल्म देख कर आपके अंदर कुछ भी नहीं बदला, आप पहले जैसे थे वैसे ही रह गए...
कोई ग़ज़ल जिसे कोई शायर पूरे दिल से लिखना चाह रहा हो लेकिन काग़ज़ क़लम लेते ही उसके अल्फ़ाज़ खो जायें या फिर कोई कविता जो किसी उदास शाम में जल्दी उग आए किसी अकेले तारे को देख कर मन में आए और लिखने की कोशिश में कई पन्ने फाड़ दिए जायें. एक ऐसा अधूरापन जो अधूरा हो कर भी पूरा हो. कुछ-कुछ वैसी ही तो है रत्ना और अश्विन की कहानी. सब कुछ आधा-अधूरा फिर भी अपने आप में पूरा. रात Netflix पर कुछ खोजते हुए अचानक मुझे एक फ़िल्म दिखी ‘Sir’. पता नहीं कुछ तो ख़ास लगा मुझे पोस्टर में शायद नए चेहरे, नए इसलिए क्योंकि मैंने नहीं देखी थी इन दोनों की कोई फ़िल्म. फिर छोटी सी फ़िल्म थी तो यूं ही देखने लगी और पता नहीं चला कब फ़िल्म शुरू हुई और कब ख़त्म. सालों में मैंने इतनी प्यारी हिंदी फ़िल्म नहीं देखी.
वैसे देखा जाए तो कुछ भी ख़ास नहीं है इस फ़िल्म में. एक गांव की लड़की जो 19 साल में विधवा हो जाती है और उसे ज़िंदगी जीने के लिए शहर आना पड़ता है. शहर में वो किसी अमीर शख़्स के घर पर काम-वाली बाई की नौकरी करने लगती है. वो अमीर शख़्स भी अकेला है क्योंकि उसकी मंगेतर ने उस पर चीट किया है तो वो अपनी शादी तोड़ कर वापिस लौट आया है. बस दो अकेले लोग जो अपनी-अपनी ड्यूटी निभा रहे हैं कैसे उनके बीच में अपनेपन की चाशनी घुलने लगती है, बस ये फ़िल्म इतनी सी बात बताती है.
लेकिन, लेकिन... मेरे लिए ये फ़िल्म सिर्फ़ इतनी सी फ़िल्म नहीं है. मेरे लिए ये पाब्लो नेरूदा की कविता है जिसे मैं किसी भी अकेली रात में कितनी ही बार देख सकती हूं. मैं अक्सर कहती हूं कि अगर कोई किताब पढ़ कर या फ़िल्म देख कर आपके अंदर कुछ भी नहीं बदला, आप पहले जैसे थे वैसे ही रह गए तो शायद वो किताब या फ़िल्म मुकम्मल नहीं है.
Is Love Enough ‘Sir’ वही फ़िल्म है जिसे देख कर आप अपने पहले वाले वर्ज़न से बेहतर वर्ज़न हो जाएंगे. आप समझ पाएंगे कि कैसे ये सोसायटी वर्क करती है और सब कहते हैं कि मुहब्बत सबसे ज़रूरी शय है लेकिन जब बात ज़िंदगी की आती है तो हम हर चीज़ को मुहब्बत से पहले रखते हैं. समाज के क़ायदे, उसके बनाए फ़्रेम में एक नौकरानी और उसके मालिक के बीच पनपी मुहब्बत जो इबादत से भी ज़्यादा पाक है, उसे भी ये समाज और ख़ुद वही दो लोग अपनाने से कतराने लगते हैं.
फ़िल्म में रत्ना एक ऐसी लड़की है जो स्वाभिमानी है. जो ख़ुद मेड बनकर भी फ़ैशन-डिजायनर बनने के अपने ख़्वाब को छोड़ नहीं पाती और साथ ही साथ अपनी बहन को भी पढ़ा रही है. वो हर ग़लत बात पर स्टैंड लेती है लेकिन जब सवाल मुहब्बत का आया तो डर कर पीछे हट जाती है. क्योंकि ये समाज उसके और उसके Sir रिश्ते को कभी अपना नहीं पाएगा.
ठीक वैसे ही फ़िल्म का हीरो अश्विन जो कि अमीर है और अपनी ज़िंदगी के फ़ैसले ख़ुद लेता है लेकिन रत्ना को अपना लेने की हिम्मत वो नहीं जुटा पाता है. वजह जो भी हो और फ़िल्म वहीं ख़त्म हो जाती है, थोड़े ट्विस्ट के साथ. वो लिख नहीं रही हूं क्योंकि मैं चाहती हूं कि आप सब ये फ़िल्म देखिए. सालों में ऐसी कोई फ़िल्म बनती है जो आपको रुलाएगी तो नहीं लेकिन दिल के किसी कोने को नम कर जाएगी.
सोचिए हम एक समाज के तौर पर कितने निर्दयी हैं. हम को, आपको सबको मुहब्बत चाहिए। लेकिन क़ायदे जो समाज ने बनाए हैं उसके तहत. क्यों नहीं दो लोग जो प्यार में हैं वो साथ रह सकते हैं? क्यों उनको सोसायटी से वैलीडेशन चाहिए. लोग अनचाहे रिश्तों में घुट-घुट कर जी रहें हैं जैसे कि मर रहें हों और जिसके साथ जीना चाहते हैं उसके लिए खुल कर बोल नहीं सकते मानों जैसे मुहब्बत नहीं किसी का क़त्ल कर रहे हों.
ओह, बेरहम दुनिया. ख़ैर, जैसे मौक़ा मिले देखिए इस प्यारी फ़िल्म को. शुक्रिया Rohena Gera इस फ़िल्म के लिए.
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