इन दिनों देश की शीर्ष अदालत में ‘वैसी वैसी’(समलैंगिक) विवाह को क़ानूनी मान्यता देने के प्रश्न पर जोरदार बहस चल रही है. सुनवाई अभी भी चल रही है लेकिन सुनवाई के छठे दिन सुप्रीम कोर्ट के तेवर कुछ नरम इस मायने में पड़े कि पीठ ने माना यह विषय संसद के अधिकार क्षेत्र में आता है. एक प्रकार से कोर्ट ने केंद्र सरकार की इस दलील को स्वीकार कर लिया कि ऐसी शादी की मान्यता देने से कई दूसरे कानूनों पर अमल मुश्किल हो जाएगा. हालांकि 5 जजों की बेंच ने सरकार से पूछा कि क्या वह समलैंगिक जोड़ों को सामाजिक सुरक्षा देने के लिए कोई कानून बनाना चाहेगी.
जजों का मानना था कि पति-पत्नी की तरह साथ रह रहे समलैंगिक जोड़ों को साझा बैंक अकाउंट खोलने जैसी सुविधा दी जानी चाहिए. चूँकि समलैंगिक संबंध 'अब' अपराध नहीं है, देर-सबेर समलिंगी कपलों की सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित करनी ही पड़ेगी और उनके विवाह को मान्यता देने का मकसद भी वही है. परंतु किसी भी तरह का उतावलापन ठीक नहीं है. जब आपसी सहमति से बने ऐसे संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर निकालने में सदी से ज्यादा समय लग गया तो फिर अब इसलिए तत्परता दिखाई जाए चूंकि गे/लेस्बियन मुखरता से आगे आ रहे हैं, कदापि उचित नहीं है. वास्तविकता आज की यही है कि जब 377 था तब तक लोग सामने नहीं आ सकते थे कहने के लिए कि वह समलैंगिक है. लेकिन अब केस फॉर के लिए पब्लिक परसेप्शन बन रहा है, उसे हाइट(ऊंचाई) लेने दीजिए और इस कदर लेने दीजिए कि अगेंस्ट वाले नगण्य हो जाएं सामाजिक संरचना में.
इन दिनों देश की शीर्ष अदालत में ‘वैसी वैसी’(समलैंगिक) विवाह को क़ानूनी मान्यता देने के प्रश्न पर जोरदार बहस चल रही है. सुनवाई अभी भी चल रही है लेकिन सुनवाई के छठे दिन सुप्रीम कोर्ट के तेवर कुछ नरम इस मायने में पड़े कि पीठ ने माना यह विषय संसद के अधिकार क्षेत्र में आता है. एक प्रकार से कोर्ट ने केंद्र सरकार की इस दलील को स्वीकार कर लिया कि ऐसी शादी की मान्यता देने से कई दूसरे कानूनों पर अमल मुश्किल हो जाएगा. हालांकि 5 जजों की बेंच ने सरकार से पूछा कि क्या वह समलैंगिक जोड़ों को सामाजिक सुरक्षा देने के लिए कोई कानून बनाना चाहेगी.
जजों का मानना था कि पति-पत्नी की तरह साथ रह रहे समलैंगिक जोड़ों को साझा बैंक अकाउंट खोलने जैसी सुविधा दी जानी चाहिए. चूँकि समलैंगिक संबंध 'अब' अपराध नहीं है, देर-सबेर समलिंगी कपलों की सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित करनी ही पड़ेगी और उनके विवाह को मान्यता देने का मकसद भी वही है. परंतु किसी भी तरह का उतावलापन ठीक नहीं है. जब आपसी सहमति से बने ऐसे संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर निकालने में सदी से ज्यादा समय लग गया तो फिर अब इसलिए तत्परता दिखाई जाए चूंकि गे/लेस्बियन मुखरता से आगे आ रहे हैं, कदापि उचित नहीं है. वास्तविकता आज की यही है कि जब 377 था तब तक लोग सामने नहीं आ सकते थे कहने के लिए कि वह समलैंगिक है. लेकिन अब केस फॉर के लिए पब्लिक परसेप्शन बन रहा है, उसे हाइट(ऊंचाई) लेने दीजिए और इस कदर लेने दीजिए कि अगेंस्ट वाले नगण्य हो जाएं सामाजिक संरचना में.
'वैसी वैसी' से मतलब है 'गे' और 'लेस्बियन' कैरेक्टर या समलैंगिक कंटेंट्स पर बनी फ़िल्में,डॉक्यूमेंट्री या कोई टीवी या वेब सीरीज. बैन तो तब भी नहीं होती थी जब समलैंगिकता अपराध माना जाता था यहां. कहा गया बीमारी है या कहा गया प्रकृति के विरुद्ध बनाये गए रिश्ते हैं सो अनैतिक है ,अपराध हैं ! वो कहते हैं ना बहुत देर कर दी मेहरबां आते आते तो सितम्बर 2018 आ गया, सदियों से व्याप्त लेकिन दबी छिपी एक सामाजिक सच्चाई को अपराध की श्रेणी से अलग करने में ! विधिवत मान्यता तो आज भी नहीं मिली है चूंकि गे या लेज़्बीयन कपल विवाह हिंदुस्तान में तो फिलहाल नहीं कर सकते.
देखा जाए तो समलैंगिक रिश्तों का अस्तित्व आदिकाल के पूर्व से रहा है. मध्य प्रदेश स्थित खजुराहो मंदिर के दर्शन के बाद कौन कहेगा कि समलैंगिकता एक पश्चिमी अवधारणा है; बहस इस बात पर हो सकती है कि सामाजिक स्वीकार्यता थी या नहीं लेकिन समलैंगिकता अस्तित्व में थी. शायद यही वजह थी कि कानूनी अस्पष्टता आड़े नहीं आयी इस वर्जित समझे जाने वाले विषय पर फिल्मों के बनाये जाने पर हालांकि विरोध अवश्य हुए.
अब जब रिश्तों की भाषा, परिभाषा और संविधान बदल गए हैं, वर्जना वाली कोई बात रह ही नहीं गयी है ; तभी तो हर दूसरी या तीसरी फ़िल्म या कंटेंट, विषय वस्तु कुछ भी हो, ऐक्शन मूवी हो या कॉमेडी या क्राइम या ऐतिहासिक या साइंस या फिर बायो ही क्यों ना हो, गे या लेसबियन किरदार गढ़ लिए जाते हैं और व्यूअर्स भी नाक भौं नहीं सिकोड़ते, देख रहे हैं और खुलकर देख रहे हैं ! यदि कहें कि ये फ़िल्में लिविंग रूम या ड्राइंग रूम वॉच क्वालीफाई कर गई है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी !
समझने की कोशिश करते हैं समलैंगिकों के प्रति समाज में आये बदलाव की जबकि कई देश हैं दुनिया के खासकर मुस्लिम देश जहाँ इन रिश्तों को आज तक मान्यता नहीं मिल पायी है. पिछले दिनों ही 'लाइट ईयर' नाम की एनीमेशन फिल्म को संयुक्त अरब अमीरात समेत कई मुस्लिम देशों में प्रतिबंधित कर दिया गया था, वजह थी एक सीन जिसमें दो महिला किरदारों को किस करते दिखाया गया है. फिल्म निर्माता कंपनी पिक्सर ने अलिशा और एक अन्य महिला किरदार के बीच किसिंग का यह सीन हटाने पर भी विचार किया था. लेकिन कंपनी के कर्मचारियों ने इस कदम का विरोध किया जिसके बाद सीन को ना हटाने का फैसला किया गया.
हालांकि यूएई ने हाल ही में ऐलान किया था कि वह फिल्मों को सेंसर नहीं करेगा, लेकिन ‘लाइटईयर’ को फिर भी बैन कर दिया गया. वहां समलैंगिक संबंध अपराध है. चीन में भी फिल्मों में समलैंगिकता दिखाने पर सख्ती है और इसकी मिसाल तब मिली जब ‘फैंटैस्टिक बीस्ट्स 3’ फिल्म में दो लाइन के एक डायलॉग को चीनी अधिकारियों की संतुष्टि के लिए हटाया गया. कई ऑस्कर जीतने वाली 2005 की फिल्म ‘ब्रोकबैक माउंटेन’ दो युवकों की प्रेम कहानी थी. इसे चीन में रिलीज नहीं किया जा सका था. ब्रिटिश गायक एल्टन जॉन की जिंदगी पर बनी 2019 की फिल्म ‘रॉकेटमैन’ को भी चीन में बैन किया गया था.
म्यूजिक बैंड ‘क्वीन’ के गायक फ्रेडी मर्करी के बारे में फिल्म ‘बोहेमियन रैप्सडी’ जब चीन में रिलीज हुई तो उसमें ऐसी हर बात लापता थी जिससे गायक की समलैंगिकता का संकेत मिलता था. यहां तक कि कहानी के लिए बेहद अहम बातें जैसे मर्करी का खुलकर यह कहना कि वह समलैंगिक हैं या फिर उन्हें एड्स हो जाना भी हटा दिया गया. रूस में भी समलैंगिकता से जुड़े सीन फिल्मों से हटाए जाते रहे हैं. ‘रॉकेटमैन’ के कई सीन हटाए गए थे, जिसका एल्टन जॉन ने विरोध भी किया था, हालांकि रूस में समलैंगिक संबंधों पर रोक नहीं है लेकिन समलैंगिकता के बारे में प्रॉपेगैंडा फैलाना अवैध है.
अब लोगों ने समझ लिया है या कहें वे मानने लगे हैं कि ऐसे रिश्ते विकृति नहीं है बल्कि मामला ओरिएंटेशन मात्र का है. चूँकि इस तरह का सेक्सुअल ओरिएंटेशन आम कभी नहीं था, अपवाद स्वरूप ही था और आज भी ऐसा नहीं है कि कानूनी मान्यता मिल गयी है तो लोग रिश्ते बनाने लगे हैं ; लेकिन तब बहुसंख्यकों को गवारा नहीं था कि उनकी मान्यता धराशायी हो जाए. फलतः तब ऐसे रिश्तों का पुरजोर विरोध होता था बावजूद ऐसे रिश्तों का आसपास होने का आभास होता था.
अल्पसंख्यक समलैंगिकों की क्या औकात थी कि वे मुखर होते क्योंकि होते तो कानून के शिकंजे में आ जाते. नतीजन ऐसे ओरिएंटेशन वाले लोग भी सामान्य रिश्तों की डोर में बंध जाते थे और कई अपनी रूचि के लिए दीगर रास्ते अपनाने लगते थे. सामाजिक दृष्टिकोण से वही दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति होती थी. बदले कानून की वजह से ही समलैंगिकों का भय खत्म हुआ है , वे मुखर होकर सामने आ रहे हैं, अपने रिश्तों का खुलासा कर रहे हैं और ऐसा लगता है मानों अचानक ऐसे रिश्ते आम हो चले हैं !
बड़े सुकून की बात है कि इन रिश्तों के प्रति व्याप्त संकीर्णता खुद ब खुद संकीर्ण होती चली जा रही है और वो समय दूर नहीं है जब पूर्णतः समाप्त हो जाएगी. तब गर्व से 'गे' कहेगा या 'लेज़्बीयन' कहेगी कि 'मैं ऐसा हूं!' धिक्कार नहीं उन्हें 'AT PAR' फेस वैल्यू पर स्वीकार किया जाएगा. विरोध या समलैंगिक रिश्तों को नकारे जाने के पीछे धर्म का हाथ मुख्य है लेकिन जब केस फ़ॉर रिलेसंस के लिए तर्क रखें तो खजुराहो और कोणार्क के मंदिरों की भित्तियों पर उकेरी हुई इन संबंधों की बानगी बियोंड डाउट टाइप आर्ग्युमेंट है. ये तो हुई एक धर्म की बात.
अन्य पर बात करने से परहेज ही रखना उचित है. हाँ , साम्यवादियों के विरोध का लॉजिक समझ के परे है. भारत में तो हर फील्ड में सेलिब्रिटी माने जाने वाली कई शख्शियत फख्र से समलैंगिक हैं और आज तो बड़ी सुखद स्थिति हैं कि तमाम वे लोग एक्सेप्टेबल हैं, रेस्पेक्टेबल हैं. अंत में अपने ही शीर्षक के 'वैसी वैसी' शब्दों पर सख्त एतराज जताते हुए इसी विषय पर बनी कुछेक बेहतरीन हिंदी फ़िल्मों का ज़िक्र करते चलें और अपेक्षा करें कि आने वाले समय में वैसी ही विषयक फ़िल्में बनेगी बजाय इन संबंधों को इरॉटिक अंदाज में भुनाया भर जाएगा जैसा आजकल हर दूसरी तीसरी फ़िल्म या कंटेंट में किया जा रहा है.
मसलन 'फ़ायर', 'अलीगढ़', 'कपूर एंड संस , माई ब्रदर निखिल’, 'शुभ मंगल ज्यादा सावधान', 'मार्गरेटा विथ ए स्ट्रॉ' आदि. एक और फिल्म 'आइ एम' ध्यान आती है जिसकी एक कहानी समलैंगिकता पर थी जिसमें राहुल बोस और अर्जुन माथुर ने लीड रोल निभाए थे. पिछले दिनों आयी फिल्म ‘बधाई दो’ कमर्शियल थी लेकिन बखूबी मैसेज दे गई. फिल्म हिट गई थी और इसे हाल ही में फिल्मफेयर अवार्ड का मिलना दर्शाता है धारणा तेजी से बदल रही है.
परंतु स्थिति विकट बन गई है, या कहें शीर्ष न्यायालय भी असमंजस में है. चूंकि भारत में एक सामान्य नागरिक संहिता नहीं है, विवाह पर विभिन्न धार्मिक समूहों के अपने नियम हैं और अदालत आश्चर्य करती है कि क्या व्यक्तिगत धार्मिक समूहों के विवाह नियमों पर इसका अधिकार क्षेत्र है.क्या विशेष विवाह अधिनियम के तहत मान्यता प्राप्त विवाहों पर इसका अधिकार क्षेत्र हो सकता है ? संदेह है कि सुप्रीम अदालत इस अधिनियम के तहत समलैंगिक विवाह की अनुमति देगा.
क्योंकि न्यायपालिका किसी भी धार्मिक समुदाय को एसएमए के तहत समलैंगिक नियमों का पालन करने का निर्देश नहीं दे सकती है, जब तक कि संसद समान नागरिक संहिता को अपनाती नहीं है.क्या उम्मीद करें कि भारत, दुनिया के अन्य लोकतंत्रों की तरह, विभिन्न धार्मिक समूहों पर इस तरह की मान्यता को मजबूर किए बिना, कानूनी रूप से विवाह करने के लिए समलैंगिक जोड़ों को एक अवसर प्रदान करेगा ? जवाब फिलहाल भविष्य के गर्त में है.
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