विवेक अग्निहोत्री की 'द कश्मीर फाइल्स' डिबेट का नेशनल टॉपिक बना हुआ है. सोशल मीडिया पर हर कोई पक्ष-विपक्ष में लिखता दिख सकता है. भक्ले उसने फिल्म देखी हो या कश्मीर से जुड़े तथ्यों के बारे में परिचित ना हो. कश्मीर में जो है वो अपनी जगह- लोगों का अपना कश्मीर भी उनके नजरिए में दिख रहा है. वैसे व्यापक लोगों के लिए फिल्म पहला अनुभव हैं जिसमें उन्होंने आतंकवाद, घाटी से हिंदू-सिखों का पलायन और अपने देश में ही शरणार्थी बन जाने की ऐसी कई वजहें जानी जो उन्हें पहले कभी नहीं पता थीं. लेकिन एक समूह ऐसा भी है जो फिल्म में दिखाई चीजों को प्रोपगेंडा ही मान रहा है. और इसलिए मान रहा कि मीडिया ने उन्हें कभी रिपोर्ट नहीं किया. इन चीजों पर कभी बात नहीं हुई.
कुछ तो इसमें भी संघ, भाजपा बनाम अन्य की राजनीति देख रहे हैं और इसी लिहाज से प्रतिक्रियाएं जाहिर कर रहे हैं. चीजों को सच या झूठ बताने के लिए तर्क गढ़े जा रहे हैं. आइए नीचे कश्मीर के हालात से जुड़े सच और झूठ के साथ उनका काउंटर जानते हैं.
1. तब केंद्र में बीजेपी के सपोर्ट से वीपी सिंह की सरकार थी
द कश्मीर फाइल्स को खारिज करने वाला एक तबका चिल्ला चिल्लाकर कह रहा है कि तब तो केंद्र में भाजपा के समर्थन वाली वीपी सिंह की सरकार थी. लेकिन, वो यह नहीं बता रहा कि भाजपा का उसे बाहर से समर्थन था. सरकार में शामिल तो वामपंथी थे. यह भी नहीं बताया जा रहा है कि सरकार बनने के एक महीने में ही कश्मीरी हिंदुओं का पलायन कर दिया गया. यह भी नहीं बताया जा रहा है कि इस पूरे मसले को वीपी सिंह सरकार में गृहमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद देख रहे थे. जिन्होंने सारे सूत्र अपने हाथ में ले रखे थे. इस बात पर भी मौन है कि मुफ्ती का झुकाव तब किस ओर रहा होगा. यह भी साझा नहीं किया जा रहा है कि कश्मीर मुद्दे में लापरवाही और रथयात्रा के विरोध पर भाजपा ने नवंबर 1990 में समर्थन वापस ले लिया था. और वीपी सिंह को प्रधानमंत्री पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा था.
विवेक अग्निहोत्री की 'द कश्मीर फाइल्स' डिबेट का नेशनल टॉपिक बना हुआ है. सोशल मीडिया पर हर कोई पक्ष-विपक्ष में लिखता दिख सकता है. भक्ले उसने फिल्म देखी हो या कश्मीर से जुड़े तथ्यों के बारे में परिचित ना हो. कश्मीर में जो है वो अपनी जगह- लोगों का अपना कश्मीर भी उनके नजरिए में दिख रहा है. वैसे व्यापक लोगों के लिए फिल्म पहला अनुभव हैं जिसमें उन्होंने आतंकवाद, घाटी से हिंदू-सिखों का पलायन और अपने देश में ही शरणार्थी बन जाने की ऐसी कई वजहें जानी जो उन्हें पहले कभी नहीं पता थीं. लेकिन एक समूह ऐसा भी है जो फिल्म में दिखाई चीजों को प्रोपगेंडा ही मान रहा है. और इसलिए मान रहा कि मीडिया ने उन्हें कभी रिपोर्ट नहीं किया. इन चीजों पर कभी बात नहीं हुई.
कुछ तो इसमें भी संघ, भाजपा बनाम अन्य की राजनीति देख रहे हैं और इसी लिहाज से प्रतिक्रियाएं जाहिर कर रहे हैं. चीजों को सच या झूठ बताने के लिए तर्क गढ़े जा रहे हैं. आइए नीचे कश्मीर के हालात से जुड़े सच और झूठ के साथ उनका काउंटर जानते हैं.
1. तब केंद्र में बीजेपी के सपोर्ट से वीपी सिंह की सरकार थी
द कश्मीर फाइल्स को खारिज करने वाला एक तबका चिल्ला चिल्लाकर कह रहा है कि तब तो केंद्र में भाजपा के समर्थन वाली वीपी सिंह की सरकार थी. लेकिन, वो यह नहीं बता रहा कि भाजपा का उसे बाहर से समर्थन था. सरकार में शामिल तो वामपंथी थे. यह भी नहीं बताया जा रहा है कि सरकार बनने के एक महीने में ही कश्मीरी हिंदुओं का पलायन कर दिया गया. यह भी नहीं बताया जा रहा है कि इस पूरे मसले को वीपी सिंह सरकार में गृहमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद देख रहे थे. जिन्होंने सारे सूत्र अपने हाथ में ले रखे थे. इस बात पर भी मौन है कि मुफ्ती का झुकाव तब किस ओर रहा होगा. यह भी साझा नहीं किया जा रहा है कि कश्मीर मुद्दे में लापरवाही और रथयात्रा के विरोध पर भाजपा ने नवंबर 1990 में समर्थन वापस ले लिया था. और वीपी सिंह को प्रधानमंत्री पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा था.
2. सिर्फ 399 कश्मीरी पंडित लोग मारे गए
आधिकारिक रूप से कुछ ऐसे ही आंकडे दिए जाते हैं कि 1990 से 2000 तक महज 399 कश्मीरी पंडित मारे गए. लेकिन गैरमुस्लिम कश्मीरियों का मानना है कि आंकड़े बहुत ही कम हैं. आतंकियों को कहर को मामूली और सरकार के कारनामों पर परदा डालने के लिए वहां की सरकार ने ऐसे आंकड़े दिए. घाटी के गैरमुस्लिम समुदायों का मानना है कि हजारों की संख्या में कत्लेआम हुए. इन्हें सरकारों ने दर्ज ही नहीं किया. उस वक्त फारुख अब्दुल्ला मुख्यमंत्री थे, हालात खराब होने के बाद ले. गवर्नर के रूप में जगमोहन की नियुक्ति का विरोध करते हुए उन्होंने इस्तीफ़ा दिया था. वीपी सिंह सरकार में कश्मीर के ही मुफ्ती मोहम्मद सईद गृहमंत्री थे. कश्मीरी गैरमुस्लिम प्रमाणिक तौर पर मानते हैं कि केंद्र सरकार कश्मीर को उस वक्त इन्हीं दो लोगों की नज़रों से देख रहा था. दोनों नेताओं पर दोनों तरफ से राजनीति करने का आरोप है जो फिल्म में दिखता भी है. लोगों का यह भी तर्क है कि शरणार्थी कैम्पों में ट्रामा और बीमारियों और अव्यवस्था और भुखमरी से कितने लोग मरे इसका तो रिकॉर्ड ही नहीं.
3. जगमोहन पंडितों के नरसंहार और पलायन के जिम्मेदार
ऐसा बिल्कुल नहीं कहा जा सकता. 1990 में 19 जनवरी को जगमोहन की नियुक्ति से पहले घाटी के हालात खराब हो चुके थे. घाटी की मस्जिदों से जब गैरमुस्लिमों को काफिर बताकर उनके सफाए का ऐलान किया जा रहा था उस वक्त जगमोहन जम्मू में थे. व्यापक नरसंहार के बाद उन्होंने किसी को भी कश्मीर ना छोड़ने की अपील की थी. उल्टा उन्होंने घाटी में ही कैम्प बनाने की बात कही थी. और हर संभव सुरक्षा भी देने को तैयार थे. उलटे जगमोहन पहले भी जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल थे और उनकी गिनती सख्त प्रशासक के रूप में थी. 90 से पहले उनके राज्यपाल रहने के दौरान घाटी में आतंकियों की उस तरह अराजकता कभी नहीं दिखी जिस तरह 90 और उसके बाद नजर आई. उन्हें 1990 में तब लाया गया जब चीजें हाथ से निकल चुकी थीं. उलटे जगमोहन हमेशा से कश्मीर को मिले विशेष दर्जे का विरोध करते रहे और आतंकियों और अलगावगादियों दोनों के खिलाफ कड़ा कदम उठाने की वकालत करते थे.
4. संघ और बीजेपी के आदमी थे जगमोहन
कम से कम कश्मीरी हिंदुओं के पलायन और नरसंहार तक ऐसा बिल्कुल नहीं माना जा सकता. उलटे जगमोहन कांग्रेस के पसंदीदा अफसरों में थे. इंदिरा और राजीव के करीबी रहें. वीपी सिंह से भी उनकी नजदीकी रही. तीनों के कार्यकाल में जगमोहन महत्वपूर्ण पदों पर रहे. उन्हें राज्यसभा का मनोनीत सदस्य भी बनाया गया. जगमोहन बाद में भाजपा से जुड़े चुनाव लड़ा और वाजपेयी कैबनेट में मंत्री भी रहे. हो सकता है कि निजी तौर पर जगमोहन की संघ से सिम्पैथी रही हो. लेकिन 1990 तक ये चीज कभी जाहिर नजर नहीं आई. इस दौरान तक तो वे कांग्रेस के पसंदीदा नौकरशाहों में शामिल रहें.
5. सिर्फ पंडितों का नरसंहार हुआ था
घाटी में 90 के हालात को लेकर जो नैरेटिव चलते हैं कश्मीरी पंडितों का पलायन और नरसंहार बताया जाता है. यह पूरा सच नहीं है. असल में घाटी में जब हालात बेकाबू हुए तो आतंकियों ने सभी तरह के गैरमुस्लिमों का व्यापक नरसंहार किया. इसमें कश्मीरी पंडित, डोगरा, सिख, दलित समेत दूसरी हिंदू जातियां, क्रिश्चियन और बुद्धिष्ट भी शामिल थे. गैरमुस्लिम कश्मीरियों का मानना है कि आतंकियों के उत्पीडन को पंडित बनाम मुस्लिम का नैरेटिव बनाने की कोशिश हुई ताकि उस दौर में मंडल राजनीति के दमदार प्रभाव की वजह से हिंदुओं की अन्य जातियां या अन्य धर्मों के लोग व्यापक रूप से एकजुट ना हों.
6. राम मंदिर आंदोलन की प्रतिक्रिया थी घाटी के हिंदू-सिखों का नरसंहार
ऐसा बिल्कुल नहीं कहा जा सकता. कश्मीर में 1984 से ही गैरमुस्लिम समुदायों के खिलाफ संगठित दंगे होने लगे थे. आतंकवाद भी पैर पसार रहा था. छिटपुट घटनाएं देखने को मिल रही थीं. कश्मीर में 19 जनवरी के नरसंहार के बाद कई महीनों बाद भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने रथयात्रा की शुरुआत की थी. तब तक बाबरी मस्जिद को भी नहीं गिराया गया था.
7. पाकिस्तानी आतंकियों ने हत्या की, कश्मीरी मुसलमानों का दोष नहीं
कुछ आतंकियों ने सरेआम इस बात को कबूला कि उन्होंने दर्जनों घाटी के गैरमुस्लिमों की हत्या की. कबूल करने वालों में जेकेएलएफ का नेता रहा यासीन मलिक जैसे आतंकी भी शामिल हैं जो बाद में खुद को गांधीवादी बताता था. हो सकता है कि नरसंहार में व्यापक मुसलमानों की भागीदारी ना रही हो लेकिन यह तथ्य है कि नरसंहार बहुत सांगठनिक और व्यवस्थित तरीके से हुआ. लोगों की हत्याएं करने वाले पाकिस्तानी नहीं मस्जिदों से अपील की गई. गैरमुस्लिम पड़ोसियों की मुखबिरी की गई. यहां तक कि सरकार के तमाम स्थानीय कर्मचारी और सुरक्षा तंत्र ने भी आतंकियों के निर्देश पर काम किया. हो सकता है कि उन्होंने डरवश ही ये सब किया हो.
8. व्यापक नरसंहार कश्मीरियों के फ्रीडम स्ट्रगल और मिलिट्री उत्पीड़न की प्रतिक्रिया
इस तर्क को भी स्वीकार नहीं किया जा सकता. अगर फ्रीडम स्ट्रगल होता तो उसे धार्मिक शक्ल नहीं दी जाती बल्कि गैरमुस्लिम कश्मीरियों को भी साथी जोड़ने की कोशिश होती. मिलिट्री उत्पीड़न के तर्क को भी स्वीकार नहीं किया जा सकता. अगर ऐसा होता तो मिलिट्री उत्पीड़न की प्रतिक्रिया में सरकारी इंस्टीट्यूशन, सुरक्षा तंत्र को निशाना बनाया जाता. लेकिन आतंकी मिलिट्री को निशाना तो बना रहे थे, पर जम्मू कश्मीर पुलिस को नहीं. फ्रीडम स्ट्रगल था तो निर्दोष निहत्थी जनता को शिकार क्यों बनाया गया.
9. हिंदू खुद ही भागे, सरकार सुरक्षा कर रही थी
यह पूरा सच नहीं है. घाटी में पुलिस आतंकियों के फरमान मान रही थी. 90 में इस तरह हालात हो गए थे जिसमें आतंकियों की समानांतर व्यवस्था चल रही थी. राशन की दुकानों से लेकर अस्पताल पुलिस कर्मचारी तक उनके इशारे पर काम कर रहे थे. संगठित हमलों में पंडितों समेत हिंदू सिखों के पास जान बचाकर भागने के अलावा कोई विकल्प नहीं था.
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