सरकारी नौकरी और समानता का नारा जितना बेंचा गया है देश में शायद ही कोई और शब्द बिका हो. आजादी के 75 साल हो गए. देश की चुनावी प्रक्रिया में हिस्सा लेने वाली सभी पार्टियां युवाओं को सरकारी नौकरी देने के नाम पर उल्लू ही बनाती हैं. चुनाव से पहले वादे ऐसे किए जाते हैं कि फलाने पार्टी की सरकार बनने पर सबको सरकारी नौकरी मिल ही जाएगी. बावजूद कि नहीं मिलती. मिलती इसलिए नहीं कि कोई पार्टी चाहने के बावजूद दे ही नहीं सकती. इसलिए भी नहीं मिलती कि व्यावहारिक रूप से सबको सरकारी नौकरी देना असंभव है. दुनिया के और देशों का नहीं मालूम लेकिन भारत के संदर्भ में हर साल जितनी संख्या में युवा रोजी रोजगार के लिए तैयार होते हैं- दावे से कहा जा सकता है कि सबको नहीं दी जा सकती.
वादों में मारे गए गुलफामों का क्या ही कहा जाए. अब तो स्थिति यह है कि कुछ हजार या लाख युवाओं को संविदा की नौकरियां, सरकारी नौकरी के नाम पर ही बांटी जा रही हैं. यह कुछ कुछ वैसा ही है जैसे बॉलीवुड फिल्म "रन" का मशहूर संवाद है- यमुना बता के नाले में कुदा दिया. बावजूद जनता के मन में सरकारी नौकरी पाने का आकर्षण ऐसा बना हुआ कि चुनाव दर चुनाव लगभग सभी पार्टियां युवाओं को सरकारी नौकरी के झांसे से अपना एजेंडा साध ही लेती हैं.
समानता का नारा पूरी तरह से खोखला है, असल मुद्दा सबको समान मौका देना है बस
समानता का नारा तो इससे भी ज्यादा खोखला है. सरकारी नौकरी तो वैसे भी कुछ युवाओं को मिल सकती है जिनके पास ना हों, लेकिन व्यावहारिक रूप से दुनिया को समान नहीं बनाया जा सकता. बावजूद कि इसी खोखले नारे को और मजबूती देते हुए कैलिफोर्निया के रास्ते केबिन फ्री कार्यालय, एक जैसे टॉयलेट और हर कर्मचारी को उसके नाम से बुलाने के नाना प्रकार के प्रपंच से प्राइवेट कंपनियों के एचआर अपने कर्मचारियों को समानता का फील देने की कोशिश करते हैं. लेकिन किसी कॉरपोरेट ऑफिस में बैठा चपरासी 29 दिन तक अपने सीईओ को नाम से बुलाकर और उसी के जैसी एक कुर्सी पर बैठकर समानता के नारे का सुख भोगता रहता है, पर महीने के...
सरकारी नौकरी और समानता का नारा जितना बेंचा गया है देश में शायद ही कोई और शब्द बिका हो. आजादी के 75 साल हो गए. देश की चुनावी प्रक्रिया में हिस्सा लेने वाली सभी पार्टियां युवाओं को सरकारी नौकरी देने के नाम पर उल्लू ही बनाती हैं. चुनाव से पहले वादे ऐसे किए जाते हैं कि फलाने पार्टी की सरकार बनने पर सबको सरकारी नौकरी मिल ही जाएगी. बावजूद कि नहीं मिलती. मिलती इसलिए नहीं कि कोई पार्टी चाहने के बावजूद दे ही नहीं सकती. इसलिए भी नहीं मिलती कि व्यावहारिक रूप से सबको सरकारी नौकरी देना असंभव है. दुनिया के और देशों का नहीं मालूम लेकिन भारत के संदर्भ में हर साल जितनी संख्या में युवा रोजी रोजगार के लिए तैयार होते हैं- दावे से कहा जा सकता है कि सबको नहीं दी जा सकती.
वादों में मारे गए गुलफामों का क्या ही कहा जाए. अब तो स्थिति यह है कि कुछ हजार या लाख युवाओं को संविदा की नौकरियां, सरकारी नौकरी के नाम पर ही बांटी जा रही हैं. यह कुछ कुछ वैसा ही है जैसे बॉलीवुड फिल्म "रन" का मशहूर संवाद है- यमुना बता के नाले में कुदा दिया. बावजूद जनता के मन में सरकारी नौकरी पाने का आकर्षण ऐसा बना हुआ कि चुनाव दर चुनाव लगभग सभी पार्टियां युवाओं को सरकारी नौकरी के झांसे से अपना एजेंडा साध ही लेती हैं.
समानता का नारा पूरी तरह से खोखला है, असल मुद्दा सबको समान मौका देना है बस
समानता का नारा तो इससे भी ज्यादा खोखला है. सरकारी नौकरी तो वैसे भी कुछ युवाओं को मिल सकती है जिनके पास ना हों, लेकिन व्यावहारिक रूप से दुनिया को समान नहीं बनाया जा सकता. बावजूद कि इसी खोखले नारे को और मजबूती देते हुए कैलिफोर्निया के रास्ते केबिन फ्री कार्यालय, एक जैसे टॉयलेट और हर कर्मचारी को उसके नाम से बुलाने के नाना प्रकार के प्रपंच से प्राइवेट कंपनियों के एचआर अपने कर्मचारियों को समानता का फील देने की कोशिश करते हैं. लेकिन किसी कॉरपोरेट ऑफिस में बैठा चपरासी 29 दिन तक अपने सीईओ को नाम से बुलाकर और उसी के जैसी एक कुर्सी पर बैठकर समानता के नारे का सुख भोगता रहता है, पर महीने के आखिर में 30वें दिन जो सैलरी चपरासी और सीईओ के खाते में अपडेट होती होगी, वह बिना कुछ कहे चुपचाप शांतिपूर्ण तरीके से ध्वस्त कर देती है और कोई शोर नहीं मचता. शोर इसलिए नहीं मचता कि व्यावहारिक रूप से समानता संभव ही नहीं है.
चपरासी और सीईओ अपने गुण और दक्षता में समान हो ही नहीं सकते- अगर उनका चयन ईमानदारी पूर्ण है तो. हां, ये जरूर है कि यहां समानता के नारे में सबको एक बराबर कर देने का झूठा भ्रमजाल बुनने की बजाए एक चपरासी को अगर सीईओ बनने का मौका दिया जाए तो बड़ी बात है. समानता का नारा खोखला होने की तमाम वजहें हैं. और बहुत हद तक वाजिब भी हैं. सीधी सी बात है कि प्रधानमंत्री एक ही होगा. सभी सांसदों को प्रधानमंत्री नहीं बनाया जा सकता मगर सभी सांसदों के पास प्रधानमंत्री बनने का एक मौका तो रहता ही है. और रहना चाहिए. मौका ही समानता का सबसे बेहतर सिद्धांत है.
सोनी लिव पर लंबे वक्त से एक सीरियल टेलीकास्ट हो रहा है- वागले की दुनिया: नई पीढ़ी नए किस्से. हाल ही में एक प्लाट इसी गैरबराबरी यानी समानता के खोखले नारे पर केंद्रित रहा. और बहुत सहज तरीके से बताया गया कि असल में यह वो दिक्कत है जिसका दुनिया के किसी भी भूगोल में कोई इलाज नहीं है. मगर इसके नाम पर जो दुष्परिणाम पैदा हो रहे हैं, या उन्हें इसी बहाने पैदा किया जा रहा है- उसे थामा जा सकता है. असल में वागले की दुनिया में राजेश वागले का परिवार कहानी का केंद्र है. यह परिवार मुंबई की एक हाइराइज सोसायटी में रहता है. जाहिर तौर पर सोसायटी में कई और परिवार हैं और अगर आर्थिक आधार पर देखा जाए तो सबकी पृष्ठभूमि और सबका वर्तमान एक-दूसरे से अलग है. उदाहरण के लिए राजेश वागले नौकरीपेशा हैं. एक ठीकठाक नौकरी है. उनकी पत्नी हाउस वाइफ है. एक वयस्क बेटी (सखी) और एक अवयस्क बेटा है. बूढ़े माता-पिता भी उसी सोसायटी में नीचे के एक फ़्लैट में रहते हैं.
दुनिया के किसी भी समाज को एक जैसा क्यों नहीं बनाया जा सकता?
कुल मिलाकर राजेश की सैलरी इतनी है कि उनकी जरूरतें (ईएमआई, बच्चों की पढ़ाई लिखाई, घर खर्च आदि) किसी तरह स्वाभिमान के साथ पूरे हो जाते हैं. उन्हें चीजों के लिए कटौती करनी पड़ती है. बार बार बजट पर ध्यान देना होता है. कहीं फैमिली ट्रिप पर जाना हुआ या कोई गैजेट आदि खरीदना हुआ तो उसकी गुंजाइश कटौतियों से ही बनती है. बच्चों को जरूरत भर का जेबखर्च मिलता है. जोर यही है कि बाहर के खाने आदि गैरजरूरी खर्चों में कटौती करते हुए सम्मान के साथ घर गृहस्थी को चलाने की कोशिश की जाए. यानी अपने सामर्थ्य में चीजों को मैनेज किया जाए.
इसी सोसायटी में राजेश के फैमिली फ्रेंड हर्षद अग्रवाल का भी परिवार है. वह शेयर ब्रोकर हैं और उनके पास अकूत पैसा है. खर्च के मामले में वागले परिवार से उलट. इनकी भी वयस्क बेटी (गुनगुन) और अवयस्क बेटा है. दोनों बच्चे वागले के बच्चों के दोस्त हैं. इसी सोसायटी में एक चौकीदार भी है- तिवारी. हाउसमेड भी है एक- आशा. तो सखी जिस कॉलेज में पढ़ती हैं तिवारी जी का बेटा भी किसी तरह वहां फीस भरकर पहुंचा है. पहले यही तिवारी जी का बेटा अपने पिता की नौकरी और आमदनी की वजह से हीन भावना से ग्रस्त था. सखी के कॉलेज में कुछ दोस्त (एनआरआई भी) हैं- और भी अमीर हैं. होता यह है कि कॉलेज कैंटीन में चीजों के दाम बढ़ जाते हैं. फीस भी बढ़ जाती है कुछ. सखी को पॉकेट मनी मिलती है- पर वह भी कैंटीन में दाम बढ़ने की वजह से कम पड़ने लगती है. बावजूद विवान जैसे उसके एनआरआई दोस्तों के लिए यह स्वाभाविक रूप से कोई मसला नहीं है. गुनगुन के लिए भी मसला नहीं है. मगर सखी के लिए मसला है. तिवारी के बेटे को लगता है कि वह अब कॉलेज में नहीं पढ़ पाएगा. सारे दोस्त ही हैं.
सखी समेत सभी लोग कहते हैं कि बढ़ी फीस आपस में सहयोग से मैनेज कर ली जाएगी. पर तिवारी के बेटे को लगता है कि सखी उससे ज्यादा सक्षम, संपन्न है. ये अमीर लोग हैं तो इनके लिए हर चीज पैसे से ही शुरू होती है और उसी पर ख़त्म हो जाती है. इसलिए सखी उसकी परेशानी को समझ नहीं पा रही. कॉलेज में छात्रसंघ का चुनाव भी है और विवान इलेक्शन में खड़ा है. तिवारी का बेटा जब राजेश से कॉलेज छोड़ने की बात करता है तो उसे सलाह मिलती है कि यह कोई सोल्यूशन नहीं है. अगर सिस्टम से लड़ना है तो सिस्टम में रहकर ही चीजों को ठीक करना चाहिए. अगर उसे कुछ खराब लग रहा है तो. कॉलेज छोड़ना उसका हल नहीं है. तिवारी का बेटा लौटता है और चुनाव लड़ने का फैसला करता है. मुद्दे उसके वही हैं- व्यवस्था ऐसी हो जिसे सब अफोर्ड कर पाए. यानी ऐसी चीज ना हो कि समान मौके का सिद्धांत प्रभावित हो. सखी विवान से अलग तिवारी के बेटे का साथ देती है. तिवारी का बेटा भी चीजों को समझ जाता है. और भी घटनाएं आसपास होती हैं.
खैर. विवान चुनाव जीत जाता है लेकिन तब तक सभी लोगों को यह समझ आ जाता है कि कैंटीन में जो बढ़ोतरी की गई है वह किसी के हित में नहीं है. बावजूद कि कुछ लोग भले उसे अफोर्ड कर लें. बाद में विवान और सभी लड़के मिलकर कैंटीन के दाम कम करवाते हैं. असल में जब कॉलेज के मुद्दे को लेकर सखी बहुत डिस्टर्ब होती है घर में, तब राजेश उसके मन को जानने की कोशिश करते हैं. सखी सवाल करती है कि तिवारी के बेटे को लगता है कि मैं प्रिविलिज्ड हूं. जबकि मैं जानती हूं कि मेरी महीने भर की पॉकेट मनी विवान के एक दिन की पॉकेट मनी के बराबर है.
राजेश अपनी बेटी को नोटबुक पर तीन लाइनें (एक दूसरे से बड़ी) खींचकर समझाता है. वह कहता है कि समाज या दुनिया बिल्कुल इसी तरह है. कोई ना कोई लाइन किसी से बड़ी है या फिर किसी से छोटी. समाज में भी ऐसी ही एक-दूसरे से बड़ी-छोटी लाइनें हैं और उनकी आर्थिक वजह भी है, सामाजिक भी. बावजूद कि यहां असमानता कि आर्थिक वजहों पर चर्चा की गई हैं जो एक सवाल है. कोई जादू की छड़ी नहीं दिखती कि तीनों लाइनों को एक जैसा कर दिया जाए. और दुनिया जबतक रहेगी शायद यह असमानता बनी ही रहे. लेकिन राजेश कहता है कि एक मौके या समान मौके पर सबका हक़ है. वह मिलना चाहिए. और हमें कोशिश करनी चाहिए कि अपने सामर्थ्य में अपने से किसी छोटी लाइन को बेहतर करने में उनकी मदद करें.
वागले की दुनिया के प्लाट का संदेश भी असल में यही है. सैद्धांतिक तर्क-वितर्क करने की बजाए यह ऐसा मुद्दा है कि हम अपने घरों, आस-पड़ोस से बहुत कुछ कर सकते हैं. एक भाई तो अपने भाई की मदद कर ही सकता है. पड़ोसी की मदद कर ही सकता है. कई परिवार और पड़ोसियों से मिलकर ही समाज बनता है. कई समाज देश बनाते हैं. दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि सामाज छोडिए, अब भाई-भाई में भी सहयोग और समर्पण की भावना ख़त्म हो रही है. अनगिनत परिवारों में ही छोटी बड़ी लाइनें दिखती हैं और आखिर में हम सैद्धांतिक बहसों की जुगाली में व्यावहारिक चीजों को नजरअंदाज कर नाना प्रकार के ब्लेम तलाश लेते हैं. और एक अलग ही वैचारिकी में बहकर चीजों को असल में और ज्यादा बर्बाद कर देते हैं.
वागले मराठी सरनेम है और मुझे नहीं मालूम कि वह किस जाति से आते हैं. तिवारी ऊंची जाति का है. एक ऊंची जाति के चौकीदार और उससे निचली जाति के चौकीदार की स्थितियां और भिन्न और भयावह हो सकती हैं. मगर असमानता और गैरबराबरी को लेकर सीरियल के प्लाट का व्यावहारिक संदेश सार्वभौमिक है.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.