ईद के मौके पर सलमान खान स्टारर "राधे : योर मोस्ट वांटेड भाई" रिलीज हुई हैं. ये एक एक्शन एंटरटेनर मूवी है. वैसे सलमान की राधे का परिवेश मुस्लिम नहीं है. बस ये सलमान के प्रशंसकों के लिए "ईद" वीकेंड का तोहफा भर है. जिन्हें एक्शन फ़िल्में नहीं पसंद हैं वो ईद पर हिंदी सिनेमा की कुछ बेहतरीन फ़िल्में देखा सकते हैं. मुस्लिम परिवेश को लेकर दर्जनों फ़िल्में बनी हैं. आगे जिन तीन फिल्मों की चर्चा होगी उन्हें सिनेमा में क्लासिक का दर्जा दिया गया है.
चौदहवीं का चांद: गुरुदत्त-वहीदा रहमान
निर्माता-निर्देशक-अभिनेता के रूप में गुरुदत्त हिंदी सिनेमा के महान फिल्मकारों में शुमार हैं. प्यासा, कागज़ के फूल, आर या पार, साहेब बीवी और गुलाम जैसी कई फ़िल्में बनाई और उसमें अभिनय किया. आगे चलकर सभी को क्लासिक का दर्जा भी मिला. उनकी एक और फिल्म बहुत ख़ास है- "चौदहवीं का चांद". ये साल 1960 में आई थी. मुस्लिमों के सामजिक परिवेश पर आधारित गुरुदत्त की इकलौती फिल्म है. गुरुदत्त ने चौदहवी का चांद को प्रोड्यूस करने के साथ ही वहीदा रहमान के साथ मुख्य भूमिका भी निभाई थी. फिल्म का बैकड्रॉप लखनऊ का नवाबी माहौल है जिसकी मिसालें दी जाती हैं.
असलम (गुरुदत्त) और नवाब साहब (रहमान) दो गहरे दोस्त हैं जिन्हें एक ही लड़की जमीला (वहीदा रहमान) से प्यार हो जाता है. प्रेम त्रिकोण के आगे-पीछे पूरी कहानी है और मुस्लिमों खासकर लखनऊ की तहजीब और मुस्लिम रवायत को दिखाया गया है. गुरुदत्त, रहमान और वहीदा के साथ जॉनी वाकर भी अहम भूमिकाओं में हैं. चौदहवीं का चांद का निर्देशन मोहम्मद सादिक ने किया था, ये फिल्म अपने जमाने की म्यूजिकल ब्लॉकबस्टर में शुमार की जाती है. आज भी इसके कई गाने चाव से सुने जाते हैं. खासकर द ग्रेट मोहम्मद रफ़ी की आवाज में टाइटल सॉंग - "चौदहवीं का...
ईद के मौके पर सलमान खान स्टारर "राधे : योर मोस्ट वांटेड भाई" रिलीज हुई हैं. ये एक एक्शन एंटरटेनर मूवी है. वैसे सलमान की राधे का परिवेश मुस्लिम नहीं है. बस ये सलमान के प्रशंसकों के लिए "ईद" वीकेंड का तोहफा भर है. जिन्हें एक्शन फ़िल्में नहीं पसंद हैं वो ईद पर हिंदी सिनेमा की कुछ बेहतरीन फ़िल्में देखा सकते हैं. मुस्लिम परिवेश को लेकर दर्जनों फ़िल्में बनी हैं. आगे जिन तीन फिल्मों की चर्चा होगी उन्हें सिनेमा में क्लासिक का दर्जा दिया गया है.
चौदहवीं का चांद: गुरुदत्त-वहीदा रहमान
निर्माता-निर्देशक-अभिनेता के रूप में गुरुदत्त हिंदी सिनेमा के महान फिल्मकारों में शुमार हैं. प्यासा, कागज़ के फूल, आर या पार, साहेब बीवी और गुलाम जैसी कई फ़िल्में बनाई और उसमें अभिनय किया. आगे चलकर सभी को क्लासिक का दर्जा भी मिला. उनकी एक और फिल्म बहुत ख़ास है- "चौदहवीं का चांद". ये साल 1960 में आई थी. मुस्लिमों के सामजिक परिवेश पर आधारित गुरुदत्त की इकलौती फिल्म है. गुरुदत्त ने चौदहवी का चांद को प्रोड्यूस करने के साथ ही वहीदा रहमान के साथ मुख्य भूमिका भी निभाई थी. फिल्म का बैकड्रॉप लखनऊ का नवाबी माहौल है जिसकी मिसालें दी जाती हैं.
असलम (गुरुदत्त) और नवाब साहब (रहमान) दो गहरे दोस्त हैं जिन्हें एक ही लड़की जमीला (वहीदा रहमान) से प्यार हो जाता है. प्रेम त्रिकोण के आगे-पीछे पूरी कहानी है और मुस्लिमों खासकर लखनऊ की तहजीब और मुस्लिम रवायत को दिखाया गया है. गुरुदत्त, रहमान और वहीदा के साथ जॉनी वाकर भी अहम भूमिकाओं में हैं. चौदहवीं का चांद का निर्देशन मोहम्मद सादिक ने किया था, ये फिल्म अपने जमाने की म्यूजिकल ब्लॉकबस्टर में शुमार की जाती है. आज भी इसके कई गाने चाव से सुने जाते हैं. खासकर द ग्रेट मोहम्मद रफ़ी की आवाज में टाइटल सॉंग - "चौदहवीं का चांद हो या आफताब हो, तुम जो भी हो खुदा की कसम लाजवाब हो..." इस गाने को शकील बदायूंनी ने लिखा था और संगीत से संवारा था रवि ने.
पाकीजा: राजकुमार-मीना कुमारी
यूं तो मीना कुमारी और राजकुमार के खाते में हिंदी की दर्जनों सर्वश्रेष्ठ फ़िल्में हैं. कथानक, अभिनय, संवाद और गीत-संगीत के लिहाज से इनका कोई तोड़ नहीं है. मगर इन सबमें साल 1972 में आई "पाकीजा" सबसे उत्कृष्ट है. इसका निर्माण और निर्देशन कमाल अमरोही ने किया था. पाकीजा, दरअसल साहिबजान के नाम से विख्यात नरगिस (मीना कुमारी) नाम की एक तवायफ की कहानी है जिसका पालन-पोषण कोठे पर हुआ. नवाब सलीम अहमद खान (राज कुमार) साहिबजान को पहली ही नजर में देखकर दिल दे बैठता है. एक तवायफ से प्यार में नवाब सलीम को सामजिक बंदिशों का सामना करना पड़ता. प्यार इस कदर है कि दोनों भागने का फैसला लेते हैं. साहिबजान, का नाम पाकीजा बदलने पर भी एक तवायफ के रूप में उसका अतीत पीछा करता रहता है.
आखिरकार सहिबजान दिल पर पत्थर रखकर नवाब सलीम से रिश्ते तोड़ लेती है. नवाब सलीम की शादी दूसरी जगह तय होती है और मुजरे के लिए साहिबजान को बुलाया जाता है. इसके बाद फिल्म का क्लाइमेक्स समाज की कुरीतियों पर चोट करने वाला है और तवायफों की दिक्कतों को सामने रखती है. फिल्म में अशोक कुमार भी महत्वपूर्ण भूमिका में हैं. संगीत गुलाम मोहम्मद ने तैयार किया था. उनकी मौत के बाद नौशाद ने भी संगीत दिया था. फिल्म के लगभग हर गीत कालजयी हैं. लता मंगेशकर के करियर में पाकीजा ऐतिहासिक पड़ाव की तरह है.
निकाह: राज बब्बर-सलमा आगा- दीपक पाराशर
मुस्लिम बैकड्रॉप पर दर्जनों फ़िल्में बनीं मगर इसमें निकाह का दर्जा सिर्फ इसलिए ऊपर है क्योंकि इसने भारतीय मुस्लिम समाज की सबसे दुखती नस तीन तलाक के विषय को टच किया था. निकाह साल 1982 में आई थी. फिल्म में सलमा आगा, दीपक पाराशर और राज बब्बर ने मुख्य भूमिकाएं निभाई थी. सलमा आगा को पाकिस्तान से लाया गया था. फिल्म की कहानी में प्रेम, मुस्लिम परम्पराओं और उनके बीच तीन तलाक की त्रासदी पर आधारित थी.
हैदर (राज बब्बर) और नीलोफर (सलमा आगा) एक-दूसरे को प्यार तो करते हैं मगर दुर्भाग्य से नीलोफर की शादी वसीम (दीपक पाराशर) से हो जाती है. सबकुछ ठीक ही चल रहा है इस बीच पति-पत्नी में मनभेद शुरू होते हैं. नीलोफर संग मतभेद और झगड़े के बाद वसीम तीन बार तलाक बोलकर अलग हो जाता है. फिल्म मुस्लिम समाज की महिलाओं का प्रतिनिधित्व करते हुए पुरुषों के गैरवाजिब अधिकारों पर चोट की तरह है. वैसे तो पूरी फिल्म म्यूजिकल हिट थी लेकिन इसमें सलमा आगा की आवाज में गाया गाना- "दिल के अरमां आंसुओं में बह गए, हम वफ़ा करके भी तनहा रह गए..." ने उस साल के सभी रिकॉर्ड तोड़ दिए थे. फिल्म का संगीत रवि ने दिया था जबकि इसका निर्देशन बीआर चोपड़ा ने किया था.
इसे कलाकारों का दुर्भाग्य भी कह सकते हैं कि ब्लॉकबस्टर फिल्म देने के बावजूद सलमा आगा और दीपक पाराशर के करियर को ऊंची उड़ान नहीं मिल सकी. इन दोनों कलाकारों के करियर में सिर्फ निकाह ही मील का पत्थर है.
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