अब हैरानी नहीं होती जब समाज यह कहता है 'वह अपने बच्चों पर ध्यान देने की जगह अपने काम पर ध्यान कैसे दे सकती है? अवॉयड कैसे कर सकती है?' हाल ही में रिलीज़ हुई फ़िल्म 'त्रिभंग' की आलोचना दो बिंदुओं पर की जा रही है.
1) नयनतारा शराब पीती थी, अनु सिगरेट हाथ में पकड़े रहती थी, कुछ गालियां भी देती थी क्या यह सही है?
2) मां होकर नयनतारा कैसे अपने आप में इतनी खो सकती थी कि वह अपने बच्चों को भूल गई, लिखने के लिए कोई स्त्री घर से कैसे अलग हो सकती है?
इन दोनों की सवालों के जवाब बस इतने हैं कि आज भी हमारा समाज परिवार, बच्चों और सुसंस्कृत गृहस्थी के लिए स्त्री को ही ज़िम्मेदार मानता है. नयनतारा की कहानी तो फिर भी 70 के दशक से शुरू होती है. आज भी कई लड़कियों को पता नहीं होता कि वे मां अपनी मर्ज़ी से बन रही हैं या बस क्योंकि एक सोशल रूटीन जॉब है जो करनी ही है, वर्ना लोग चैन से जीने नहीं देंगे. औरत से पूछा नहीं जाता कि 'क्या तुम मां बनना चाहती हो? क्या तुम तैयार हो इस ज़िम्मेदारी को उठाने के लिए? क्या तुम कुछ समय के लिए अपने काम के साथ इतना सेक्रिफाइज़ कर पाओगी कि बच्चे को भरपूर समय दे सको?'
यह तीसरा सवाल तो तब उठे जब यह स्वीकारा जाए कि औरत का काम, जो कि लेखन भी हो सकता है, को महत्वपूर्ण समझा जाए. ज़्यादा दूर क्यों जा रहे हैं, फ़िल्म इंडस्ट्री में बड़े निर्देशक, बड़े गीतकार, बड़े कहानीकार सब पुरुष हैं, क्यों? क्या किसी स्त्री में क्षमता नहीं थी कि वह गुलज़ार, अख़्तर, कुमार विश्वास, यश चोपड़ा, अमीश, चेतन, अश्विन या ऐसी ही कोई ख़ुद के दम पर खड़ी हुई महिला बन पाती? हां स्त्रियां बड़ी से बड़ी अदाकारा...
अब हैरानी नहीं होती जब समाज यह कहता है 'वह अपने बच्चों पर ध्यान देने की जगह अपने काम पर ध्यान कैसे दे सकती है? अवॉयड कैसे कर सकती है?' हाल ही में रिलीज़ हुई फ़िल्म 'त्रिभंग' की आलोचना दो बिंदुओं पर की जा रही है.
1) नयनतारा शराब पीती थी, अनु सिगरेट हाथ में पकड़े रहती थी, कुछ गालियां भी देती थी क्या यह सही है?
2) मां होकर नयनतारा कैसे अपने आप में इतनी खो सकती थी कि वह अपने बच्चों को भूल गई, लिखने के लिए कोई स्त्री घर से कैसे अलग हो सकती है?
इन दोनों की सवालों के जवाब बस इतने हैं कि आज भी हमारा समाज परिवार, बच्चों और सुसंस्कृत गृहस्थी के लिए स्त्री को ही ज़िम्मेदार मानता है. नयनतारा की कहानी तो फिर भी 70 के दशक से शुरू होती है. आज भी कई लड़कियों को पता नहीं होता कि वे मां अपनी मर्ज़ी से बन रही हैं या बस क्योंकि एक सोशल रूटीन जॉब है जो करनी ही है, वर्ना लोग चैन से जीने नहीं देंगे. औरत से पूछा नहीं जाता कि 'क्या तुम मां बनना चाहती हो? क्या तुम तैयार हो इस ज़िम्मेदारी को उठाने के लिए? क्या तुम कुछ समय के लिए अपने काम के साथ इतना सेक्रिफाइज़ कर पाओगी कि बच्चे को भरपूर समय दे सको?'
यह तीसरा सवाल तो तब उठे जब यह स्वीकारा जाए कि औरत का काम, जो कि लेखन भी हो सकता है, को महत्वपूर्ण समझा जाए. ज़्यादा दूर क्यों जा रहे हैं, फ़िल्म इंडस्ट्री में बड़े निर्देशक, बड़े गीतकार, बड़े कहानीकार सब पुरुष हैं, क्यों? क्या किसी स्त्री में क्षमता नहीं थी कि वह गुलज़ार, अख़्तर, कुमार विश्वास, यश चोपड़ा, अमीश, चेतन, अश्विन या ऐसी ही कोई ख़ुद के दम पर खड़ी हुई महिला बन पाती? हां स्त्रियां बड़ी से बड़ी अदाकारा ज़रूर बन जाती हैं जिन्हें आपका समाज वैश्या या नचनिया कहने से नहीं चूकता.
स्त्रियों का लिखना वैसे भी समाज को कब सुहाया है और इस पर यदि सिर्फ लिखने के लिए वह अपना भरपूर समय मांगे तो कैसे बर्दाश्त होगा? नयनतारा की सास को लगता था कि वह लिखने में समय बर्बाद करती है. वह चाहती थी कि नयनतारा ही घर के सारे काम करे. उसकी सास को उसका लिखना पसंद नहीं था जबकि नयनतारा के लिए लेखन ही उसकी साँसेँ थीं... क्यों यह स्वीकार करने में इतनी कठिनाई है कि एक स्त्री के लिए भी लेखन जुनून हो सकता है?
क्यों ऐसा नहीं हो सका कि अच्छे कमाऊ पति के होते, घर में नौकरानी के होते दादी बच्चों के साथ समय बिताती उनका ख़याल रखती और नयनतारा को उसके लिखने के लिए समय मिलता जहां उसका पति दफ़्तर में समय खपाता था. इसकी जगह ठीक उलट होता तो? क्या बेटे के लेखन से, पुरुष के लेखन से भी यह समाज इतना ही द्वेष रखता? कैसा होता यदि नयनतारा का पति दफ़्तर से आकर 3 घंटे बच्चों के पालन-पोषण में समर्पित करता?
कैसा होता कि वह अपनी मां को समझाता कि 'मां लेखक के लिए माहौल और शांति बहुत ज़रूरी हैं', कैसा होता कि उसकी सास उससे गृहस्थी का भार उठाने की नहीं बड़ी लेखिका बननी की उम्मीद बांधे होती. क्या तब भी नयनतारा वो घर छोड़ती? क्या तब भी अनु को वह सब झेलना पड़ता? और क्या तब भी इस कहानी की ज़रूरत रह जाती? लेकिन नहीं, हमें तो यही सिखाया गया है कि औरतें मांगा नहीं करतीं, जो जितना मिल जाए उसमें ख़ुश रहा करती हैं.
9 से 5 की नौकरी के बाद सुबह-शाम खाना पकाने से इनकार हुआ तो नौकरी पर तलवार लटक जाएगी. आंकड़े उठाकर देखिए-समझिए कि क्यों लॉकडाउन में डॉमेस्टिक वायलेंस के मामले 65% तक बढ़े और इन मामलों में अधिकांश नौकरीपेशा महिलाओं के हैं.मैं यह स्वीकारती हूं कि मातृत्व बड़ी ज़िम्मेदारी है। बच्चा पैदा करने के बाद उसे पालना और एक बेहतर मनुष्य बनाना बड़ी ज़िम्मेदारी है, लेकिन समाज को भी यह स्वीकारना होगा कि यह सिर्फ मां की ज़िम्मेदारी नहीं है. यह परिवार की ज़िम्मेदारी है, पिता की भी उतनी है. पिता का काम सिर्फ बीज रोंपना नहीं होता.
मातृत्व के लिए बैलेंस ज़रूरी है ताकि अपने को भूले बिना बच्चों को उनका समय दिया जा सके लेकिन यह बैलेंस पति, परिवार और समाज के बिना नहीं बन सकता. यह सच है कि नयनतारा ने कई जगह अनदेखी की जिसका नतीजा अनु ने भुगता और इसे फ़िल्म में कहीं से भी सही नहीं ठहराया है बल्कि यही दिखाने की कोशिश है कि उसे इतना अंधा नहीं होना चाहिए था कि वह अपनी बेटी की तकलीफ़ ना देख पाए. लेकिन इसमें सिर्फ दोष नयनतारा का था? अनु के साथ जो हुआ वह नयनतारा के काम की वजह से नहीं बल्कि एक पुरुष पर अंधे विश्वास की वजह से हुआ.
इसमें क्या पूरा दोष नयनतारा पर थोपा जा सकता है? इसी तरह अनु की बेटी ने जो सहा वह सिर्फ अनु की वजह से हुआ या उस समाज की वजह से जिसने एक बच्ची को नाजायज़ कह-कहकर उसका जीना दुश्वार कर दिया? अनु भी ग़लत थी और उसने भी यह स्वीकारा लेकिन उसकी ग़लती क्या थी? यह कि बचपन में उसके पिता ने कभी अपनी मां के आगे अपनी पत्नी का साथ नहीं दिया, बच्चों का साथ नहीं दिया?
अनु के जीवन में किसी स्थाई पुरुष का ना होना हमें दिखता है लेकिन यह नहीं दिखता कि वह अपने पिता, सौतेले पिता और प्रेमी तीनों से चोट खाई हुई थी. इसके बाद भी क्या उससे आदर्श स्त्री की कल्पना उचित है? उसके चरित्र में आया अविश्वास, क्रूरता और ज़ुबान का कसैलापन हमें दिखा लेकिन यह क्यों हुआ क्या इसे देखने की हमने कोशिश की?अब रही बात शराब, सिगरेट और गालियों की तो भाईसाहब आप वही लोग हैं ना जो मर्दों के साथ यह सब पचा लेते स्त्री है तो नस फड़कने लगी? एक अकेला पुरुष जिसके पास परिवार नहीं, साथी नहीं वह यदि शराब में डूबा हो तो समाज को बेचारा लगता है लेकिन वही स्त्री करे तो चरित्रहीन लगती है, क्यों?
मैं हमेशा यही कहती हूं कि शराब, सिगरेट और गालियां जितनी पुरुष के लिए अनुचित, सेहती रूप से ग़लत हैं उतनी ही स्त्री के लिए भी लेकिन आपका यह कहना कि 'औरत होकर ऐसा कैसे?' तो यह और कुछ नहीं पितृसत्ता को ठेस लगने के बाद निकली आवाज़ है. औरत भी मनुष्य है, उसकी भी आकांक्षाएं हैं, वह भी डूबकर काम करना चाहती है, वह अपना अस्तित्व ख़ुद तराशना चाहती है, वह भी ख़ुद को कहीं खड़ा देखना चाहती है.
स्त्रीत्व का इतना महिमामंडन हो चुका है कि हमने उसे इंसान समझना ही छोड़ दिया है. परसों भी कहा था, त्रिभंग एक अच्छी और कई सबक सिखाती फ़िल्म है. अब यह हम पर है कि हम इससे कोई सबक लेते हैं या फिर बस 'स्त्री होकर ऐसा कैसे?' पर अटक जाते हैं.
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