हिंदी सिनेमा में बहुत कम बार ऐसा देखने को मिला है जब किन्नर समुदायों पर बनी फ़िल्में आईं. पिछले दिनों जयपुर इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में उड़िया भाषा में बनी 'टी' फ़िल्म देखकर लगा था सिनेमा बनाने वाले फिर से इस विषय पर कुछ बेहतर रचने लगेंगे. इधर कुछ किन्नर फ़िल्में मसलन 'शबनम मौसी', 'पॉवर ऑफ़ किन्नर', 'ना राजा ना रानी', 'अर्ध', 'तमन्ना' जरुर आई और उन्होंने समाज को एक नए तरीके से सोचने पर मजबूर किया. लेकिन 'पल्लवी रॉय शर्मा' की 'अनवुमन' इन सबसे कहीं ऊपर की श्रेणी में रखी जाने वाली फिल्म है.
राजस्थान के किसी गांव का एक लड़का भंवर जो अपने ताऊ के साथ अकेला रह रहा है. ब्याह की उम्र बीतती जा रही है इसलिए उसका ताऊ भैरों भंवर की जमापूंजी बेच उसे एक दुल्हन लाकर देता है. मोल की यह दुल्हन जब बेची जाती है और ब्याहकर भवंर के घर सेज गर्म करती है तो उसे मालूम होता है उसके साथ धोखा हुआ है. सांवरी नाम की यह लड़की न तो पूरी तरह से लड़की है और न लड़का, असल में वह किन्नर है. यानी एक ऐसा शरीर जिसके कुछ अंग लड़कियों के हैं और कुछ लड़कों के. जी हां वही जिसे हमारा तथाकथित भारतीय समाज हेय दृष्टि से देखता आया है और उन्हें कहता है कभी हिजड़ा, कभी छक्का तो कभी कुछ. लेकिन अर्धनारीश्वर को पूजने वाला यही तथाकथित समाज इन असली अर्धनारीश्वर को इतना हेय दृष्टि से क्यों देखता है? इसकी पड़ताल तो लम्बे समय से जारी है. खैर भंवर ने अपने ताऊ को इस धोखे के बारे में बताया तो उन्होंने मन मारकर उसे घर में काम करने के लिए पनाह दे दी.
अब धीरे-धीरे सांवरी और भवंर के दिलों में प्रेम अपनी राह बनाने लगा. स्नेह, प्रेम के सहारे जब इन दोनों के दिलों में अपनापे का पानी गिरा तो दो शरीर एक जान बन गये. लेकिन मर्दवादी समाज ने तो हमेशा से जब औरतों को अपने पांव की जूती ही समझा और तो और अपनी दो टांगों के बीच के खूंखार...
हिंदी सिनेमा में बहुत कम बार ऐसा देखने को मिला है जब किन्नर समुदायों पर बनी फ़िल्में आईं. पिछले दिनों जयपुर इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में उड़िया भाषा में बनी 'टी' फ़िल्म देखकर लगा था सिनेमा बनाने वाले फिर से इस विषय पर कुछ बेहतर रचने लगेंगे. इधर कुछ किन्नर फ़िल्में मसलन 'शबनम मौसी', 'पॉवर ऑफ़ किन्नर', 'ना राजा ना रानी', 'अर्ध', 'तमन्ना' जरुर आई और उन्होंने समाज को एक नए तरीके से सोचने पर मजबूर किया. लेकिन 'पल्लवी रॉय शर्मा' की 'अनवुमन' इन सबसे कहीं ऊपर की श्रेणी में रखी जाने वाली फिल्म है.
राजस्थान के किसी गांव का एक लड़का भंवर जो अपने ताऊ के साथ अकेला रह रहा है. ब्याह की उम्र बीतती जा रही है इसलिए उसका ताऊ भैरों भंवर की जमापूंजी बेच उसे एक दुल्हन लाकर देता है. मोल की यह दुल्हन जब बेची जाती है और ब्याहकर भवंर के घर सेज गर्म करती है तो उसे मालूम होता है उसके साथ धोखा हुआ है. सांवरी नाम की यह लड़की न तो पूरी तरह से लड़की है और न लड़का, असल में वह किन्नर है. यानी एक ऐसा शरीर जिसके कुछ अंग लड़कियों के हैं और कुछ लड़कों के. जी हां वही जिसे हमारा तथाकथित भारतीय समाज हेय दृष्टि से देखता आया है और उन्हें कहता है कभी हिजड़ा, कभी छक्का तो कभी कुछ. लेकिन अर्धनारीश्वर को पूजने वाला यही तथाकथित समाज इन असली अर्धनारीश्वर को इतना हेय दृष्टि से क्यों देखता है? इसकी पड़ताल तो लम्बे समय से जारी है. खैर भंवर ने अपने ताऊ को इस धोखे के बारे में बताया तो उन्होंने मन मारकर उसे घर में काम करने के लिए पनाह दे दी.
अब धीरे-धीरे सांवरी और भवंर के दिलों में प्रेम अपनी राह बनाने लगा. स्नेह, प्रेम के सहारे जब इन दोनों के दिलों में अपनापे का पानी गिरा तो दो शरीर एक जान बन गये. लेकिन मर्दवादी समाज ने तो हमेशा से जब औरतों को अपने पांव की जूती ही समझा और तो और अपनी दो टांगों के बीच के खूंखार जानवर से मसलने के लिए उन्हें जब औरत न मिली तो उन्होंने किन्नरों को भी नहीं छोड़ा. कुछ ऐसा ही इस फिल्म में भी देखने मिलता है.
यह फिल्म हमारे समाज के उस कडवे सच को दिखाती है जिसमें इंसानी दिमाग और शरीर जब जिस्मों का भूखा होने लगे तब वह समान या असमान लिंग में भेद नहीं देखता. कुछ पलों के लिए उन मर्दों को अपनी शरीर की तपिश और भूख शांत करने के लिए बस एक शरीर की आवश्यकता होती है. जिसे वे जैसे चाहे अपने तले रौंद सके. यह किसी फिल्म के निर्देशक की सफलता ही कही जानी चाहिए जब वे सिर्फ किन्नर समाज के विषय को उठाकर भी उसमें बीच-बीच में ऐसे संवाद और दृश्य उपस्थित करते जाएं जिससे फिल्म पूरी तरह किन्नर समाज पर होते हुए भी आपको साथ ही भ्रूण हत्या, स्त्रीवादिता पर भी सोचने को मजबूर कर दे.
पहले हाफ के साथ कुछ थम कर चलती यह फिल्म दूसरे हाफ में और अपने क्लाइमैक्स से आपको वो दिखाती है जिसे देखकर आप हैरान होते हैं और सोचते हैं कि होना तो ऐसे चाहिए था लेकिन हुआ वैसा. यानी एक ओर लेखन की सफलता भी इस फिल्म में निर्देशन के साथ झलकती है जिसमें दर्शकों की सोच के विपरीत जाकर निर्देशक लेखक आपको हैरान करते हैं नम आंखों के साथ. भैरों बने भगवान तिवारी, सांवरी बनी कनक गर्ग, भंवर बने सार्थक नरूला, जैसे अनजान से चेहरे भी आपको फिल्म में अभिनय के माध्यम से वह परोसते हैं जिसे देखकर आपको लगता नहीं कि ये किसी बड़े कद कलाकार नहीं होंगे. कैरचरण बने गिरीश पाल और कुछ समय के लिए आने वाले करन मान, प्रमोद देसवाल आदि भी अपने अभिनय से संतुष्ट करते हैं. राजस्थान के ओसियान गांव जोधपुर की रियल लोकेशन मोहती है और लगातार फिल्म देखते रहने को भी लालायित करती है.
फिल्म की कहानी लिखने, निर्देशन करने के साथ स्क्रीनप्ले कर पल्लवी अपने संवादों से यह संदेश देने में कामयाब होती है कि हे बॉलीवुड वालों जरा अपनी कलम को घिसो तो सही कहानियां आपके आस-पास ही बिखरी नजर आयेंगीं. हर बार किसी साउथ का रीमेक बनाकर अपने स्तर को गिरा चुके और लगातार आलोचनाओं का शिकार हो रहे बॉलीवुड वालों को भी यह फिल्म देखनी चाहिए. कई नेशनल, इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल्स में सराही तथा पुरुस्कृत हो चुकी इस फिल्म में 'अभय रुस्तम सोपोरी' का म्यूजिक और बैकग्राउंड स्कोर, धनराज दाधीच के लिखे बोल, शकील रेहान खान की सिनेमैटोग्राफी, तन्वी चोपड़ा के कॉस्टयूम, गुंजन गोयल, फिरोज आलम की एडिटर वाली कैंची के साथ मिलकर कैमरामैन का कैमरा पर्दे पर जो रचते हैं वह सुहाता है, लुभाता है, धीरे-धीरे आपको उस प्रेमरंग के खिलते फूलों को दिखाता है जो उसने रचे और जिसने हम सबको रचा. राजस्थानी और हिंदी भाषा के मिश्रण से बनी इस फिल्म को 5 मई 2023 से सिनेमाघरों में देखिये और सराहिये ऐसे सिने निर्माताओं जो समाज को बदलने वाली सोच वाला सिनेमा परोस रहे हैं आपके लिए.
अपनी रेटिंग- 3.5 स्टार
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