इसमें कोई शक नहीं कि बॉलीवुड में लीड कैरेक्टर में पुरुष वर्चस्व की धारणा टूटी है. महिलाओं को केंद्रित कर कहानियां बनाई जा रही हैं. मुख्यधारा के सिनेमा में ये सिलसिला पिछले कुछ सालों में बढ़ा है. लेकिन इसकी वजह क्या है? जल्द ही आने वाली महिला प्रधान फिल्म "हसीन दिलरुबा" की नायिका तापसी पन्नू ने तो तीन फीमेल एक्टर्स को श्रेय दिया कि उनकी वजह से महिलाओं के लिए इंडस्ट्री में मौके बने. विद्या बालन, तब्बू और प्रियंका चोपड़ा को श्रेय देते हुए तापसी ने कहा- "अगर मुझे तीन नाम चुनना पड़े जिन्होंने दर्शकों को फीमेल एक्टर्स को गंभीरता से लेने को तैयार किया तो मैं विद्या बालन, तब्बू और प्रियंका चोपड़ा का नाम लूंगी."
हालांकि तापसी ने इस लिहाज से फैशन, क्वीन, तनु वेड्स मनु और लक्ष्मीबाई जैसी फ़िल्में देने वाली एक्टर कंगना रनौत का नाम भुला दिया. हो सकता है कि तापसी ने ऐसा जानबूझकर किया हो. मगर इसमें कोई दो राय नहीं कि जिन वजहों के लिए उन्होंने तीन नाम गिनाए उस लिस्ट में कंगना भी डिजर्व करती हैं. बहरहाल, एक्ट्रेस ने जो कहा उस बात में कोई शक नहीं. विद्या, तब्बू या प्रियंका की महिला केंद्रित फिल्मों ने ना सिर्फ निर्माता-निर्देशकों बल्कि दर्शकों को भी तैयार किया. तीनों अभिनेत्रियों की कई फिल्मों ने दर्शकों का खूब मनोरंजन तो किया ही, साथ ही साथ यह धारणा भी तोड़ दी कि सिर्फ मेल एक्टर के कंधों पर चढ़कर कोई फिल्म बॉक्स ऑफिस पर कामयाब हो सकती है.
अगर पिछले 10-12 साल में फीमेल लीड के साथ हिट होने वाली फिल्मों को देखें तो श्रीदेवी की इंग्लिश विंग्लिश और मॉम, दीपिका की पीकू कंगना कई फ़िल्में, कुछ दूसरी अभिनेत्रियों की कई फ़िल्में गिनाई जा सकती हैं. इसमें तापसी की भी मुल्क, नाम शबाना और पिंक को भी रखा जा सकता है. लेकिन महिला प्रधान फिल्मों के लिए बॉलीवुड की धारणा क्या सच में तीन एक्टर्स या कुछ और की वजह से ही बदली या इसके पीछे दूसरी वजहें रही हैं?
किसी फिल्म का विषय चाहे जो भी हो, मगर उसके प्रति पहला आकर्षण स्टारकास्ट, बैनर और निर्देशकों के नाम की वजह से ही होता है. बॉलीवुड फिल्मों में स्टारकास्ट की अहमियत बहुत ज्यादा है. इतना कि फिल्म में किसी मेल सुपरस्टार का होना ही सफलता की गारंटी मान लिया जाता है. भले ही फिल्म में कुछ भी ख़ास ना हो, फ़िल्में लागत वसूल ही लेती हैं. स्टारडम के इसी जादू की वजह से कई सालों से निर्माता बैग में रुपये भरकर पुरुष सितारों की ड्योढी पर लाइन में लगे रहते हैं. मौजूदा दौर में सलमान खान का उदाहरण देखा जा सकता है.
सलमान का फिल्म में होना मतलब निर्माताओं के लिए पैसा वसूल की गारंटी. ट्यूबलाईट से लेकर राधे: योर मोस्ट वांटेड तक सलमान ने एक पर एक कई हादसे रचे हैं. मगर उनकी हर फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर 100 करोड़ से ज्यादा का बिजनेस कर ट्रेड एनालिस्ट को चौंका दिया. जबकि कई फ़िल्में इतनी सतही थीं कि आज भी उसके लिए सलमान की आलोचना होती है. इंडस्ट्री के हर दौर में स्टारडम पुरुषों का ही दिखा. दिलीप कुमार-अमिताभ बच्चन से लेकर सलमान खान-कार्तिक आर्यन तक के दौर में हीरोइनों का इस्तेमाल प्राय: तड़क-भड़क और मसाला मनोरंजन के लिए ही हुआ है. हालांकि इस बीच श्रीदेवी और माधुरी दीक्षित के रूप में दो ऐसी अभिनेत्रियों का भी काम है जिनका रुतबा मेल सुपरस्टार से कभी कम नहीं रहा. दोनों ने कुछ फ़िल्में भी कीं जहां नारी प्रधान विषय थे.
पहली बात ये कि तापसी सही कह रही हैं. मगर जिस दौर की हीरोइनों का नाम उन्होंने लिया वो बॉलीवुड का बदला दौर है और पहले के मुकाबले फीमेल एक्टर्स के लिए ज्यादा गुंजाइश है. अगर देखें तो कास्टिंग और कंटेंट के लिहाज से पिछले 20-25 सालों में बॉलीवुड में सबसे ज्यादा प्रयोग हुए. मुख्यधारा के सिनेमाई इतिहास में इतना प्रयोग कभी नहीं हुए थे. ये वो दौर है जब हीरो की जगह कहानियों और उनकी परफोर्मेंस ने लेनी शुरू की थी. कायदे से श्रेय उन फिल्म मेकर्स को देना चाहिए जिन्होंने अपनी कहानियों और उसे कहने के ढंग से सफलता की परिभाषा को ही पलटकर रख दिया.
राम गोपाल वर्मा, मनोज बाजपेयी जैसे नए नवेले चेहरे को लेकर सत्या जैसी कामयाब फिल्म बना ले जाते हैं. मनोज की ही शूल आती है और हिट हो जाती है जबकि उस वक्त उनका कुछ भी स्टारडम नहीं था. इन फिल्मों ने कंटेट और वर्ड ऑफ़ माउथ की वजह से कारोबार किया था. आयुष्मान खुराना के रूप में एक गुमनाम हीरो विक्की डोनर और दम लगा के हइशा जैसी फ़िल्में हिट करा ले जाता है. गैंग्स ऑफ़ वासेपुर और बधाई हो जैसी फिल्मों में कहानी का एक ही केंद्र है मगर सारे किरदार इतने सशक्त और प्रभावशाली हैं कि तय करना मुश्किल हो जाता है कि किसकी फिल्म है फिल्म का हीरो कौन है. तमाम महिला प्रधान फ़िल्में इसी दौर में प्रयोग और नए ट्रेंड से उपजी हैं. अच्छा ये रहा कि फीमेल एक्टर्स ने बेहतरीन भूमिकाओं से कहानियों को प्रभावशाली बनाकर सफल बनाया.
कायदे से भरोसा कंटेट ने जगाया. अमिताभ बच्चन फिल्म में हैं तो फिल्म ठीक होगी और कँवलजीत फिल्म के हीरो हैं तो फिल्म सी ग्रेड या घटिया होगी जैसी धारणाओं को असल में कहानियों के प्रयोग और उनके विषयों ने ही बदला. पिछले ढाई दशकों में एक पर एक ऐसी फिल्मों की सफलता ने निर्माताओं में भी भरोसा जताया. वो नए नए विषयों पर फिल्म बनाने के लिए तैयार हैं. अब भी दर्शकों के पास फिल्म सिलेक्ट करने के अपने पॉइंट हैं जिसमें - स्टारकास्ट, बैनर, निर्देशक और सबसे अहम कहानी का विषय और प्रयोग है. अब ये फर्क नहीं पड़ता कि आम फिल्म है या महिला प्रधान. कोई सुपरस्टार है या नहीं. कई फ़िल्में तो वर्ड ऑफ़ माउथ से चल रही हैं. भले ही उसमें शाहरुख-सलमान-आमिर या ऋतिक ना हों मगर सोनू के टीटू की स्वीटी मनोरंजक है तो लोगों को कार्तिक से कोई परहेज नहीं.
कहानी अच्छी है और दो-ढाई घंटे बांध कर रखने लायक है तो दर्शक पीकू, भी देखेंगे और पिंक भी. लेकिन अगर कहानी और परफोर्मेंस में दम नहीं है तो दर्शक महिला प्रधान फिल्म के नाम पर गुलाब गैंग को भी खारिज कर देंगे. हकीकत में फीमेल एक्टर्स को मौका कहानियों में वेरायटी तलाशने वाले दर्शक की वजह से मिल तरह है. वो दर्शक जिसकी पसंद अब स्टीरियोटाइप नहीं है. उसे हरबार नया चाहिए. उसे फर्क नहीं पड़ता की तुम्हारी सुलू विद्या बालन लीड कर रही है और "अंग्रेजी में कहते हैं" की लव स्टोरी का हीरो संजय मिश्रा है. अब का दर्शक भाषा के बंधन को तोड़कर सैराट भी देख लेता है.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.