सदी दो हज़ार की शुरुआत में फ़िल्मकार प्रियदर्शन (Priyadarshan) की बहुत फिल्में आया करती थीं. ज़्यादातर फिल्में कॉमेडी ज़ोनर की होती थीं और उनमें तकरीबन एक ही सा अंत होता था. फिल्म किसी नाम, किसी जगह और अमूमन पैसे की तंगी के बेस पर शुरु होती थीं लेकिन अंत में फिल्म के सारे पात्र, एक जगह इकठ्ठा होकर ऐसा हंगामा काटते थे, ऐसी भागम-भाग करते थे जिससे ऐसी हलचल मचती थी कि सारी हेराफेरी समझ आ जाती थी. दर्शक लोट-पोट होने लगते थे. कोई दस फिल्में उस वक़्त आईं तो नौ के क्लाइमेक्स में यही स्क्रिप्ट मौजूद मिली. मजे कि बात कि नौ नहीं, दस की दस फिल्में सिनेमा हॉल और सेटिलाईट पर पसंद की गयीं. कुछ समय पहले हैदराबाद में एक डॉक्टर (Hyderabad Gangrape) के साथ चंद असामाजिक तत्वों ने बेरहमी से बलात्कार करके, उसकी हत्या कर जला दिया था. लोगों का आक्रोश सरकार और प्रशासन पर जमकर फूटा था. कुछ ही समय में केस की गुत्थी खुल गयी थी कि चार अपराधियों ने मिलकर इस घटना को अंजाम दिया था. पहले लड़की की स्कूटी पंचर की थी, फिर उसे मदद के नाम पर गोदामनुमा जगह में पहुंचाया गया था जहां उसका सामूहिक बलात्कार करके उसे फिर किसी अन्य जगह ले जाकर जला दिया गया था.
हैदराबाद पुलिस ने इस केस को रिकॉर्ड समय में हल कर दिखाया था. चारों आरोपी पकड़े भी गए थे. लेकिन यहां पकड़ने के बाद ‘सीन रिक्रिएशन’ (वास्तविक घटना को जानने के लिए फिर घटनास्थल पर अपराधियों को ले जाकर एक-एक दृश्य को दोहराने/बताने के लिए कहा जाता है) के दौरान बकौल पुलिस, अपराधियों ने भागने की कोशिश की और पुलिस को उनपर मजबूरन गोली चलानी पड़ी.
सारे देश में पुलिस के इस कृत्य की जमकर प्रशंसा हुई लेकिन कुछ जन की...
सदी दो हज़ार की शुरुआत में फ़िल्मकार प्रियदर्शन (Priyadarshan) की बहुत फिल्में आया करती थीं. ज़्यादातर फिल्में कॉमेडी ज़ोनर की होती थीं और उनमें तकरीबन एक ही सा अंत होता था. फिल्म किसी नाम, किसी जगह और अमूमन पैसे की तंगी के बेस पर शुरु होती थीं लेकिन अंत में फिल्म के सारे पात्र, एक जगह इकठ्ठा होकर ऐसा हंगामा काटते थे, ऐसी भागम-भाग करते थे जिससे ऐसी हलचल मचती थी कि सारी हेराफेरी समझ आ जाती थी. दर्शक लोट-पोट होने लगते थे. कोई दस फिल्में उस वक़्त आईं तो नौ के क्लाइमेक्स में यही स्क्रिप्ट मौजूद मिली. मजे कि बात कि नौ नहीं, दस की दस फिल्में सिनेमा हॉल और सेटिलाईट पर पसंद की गयीं. कुछ समय पहले हैदराबाद में एक डॉक्टर (Hyderabad Gangrape) के साथ चंद असामाजिक तत्वों ने बेरहमी से बलात्कार करके, उसकी हत्या कर जला दिया था. लोगों का आक्रोश सरकार और प्रशासन पर जमकर फूटा था. कुछ ही समय में केस की गुत्थी खुल गयी थी कि चार अपराधियों ने मिलकर इस घटना को अंजाम दिया था. पहले लड़की की स्कूटी पंचर की थी, फिर उसे मदद के नाम पर गोदामनुमा जगह में पहुंचाया गया था जहां उसका सामूहिक बलात्कार करके उसे फिर किसी अन्य जगह ले जाकर जला दिया गया था.
हैदराबाद पुलिस ने इस केस को रिकॉर्ड समय में हल कर दिखाया था. चारों आरोपी पकड़े भी गए थे. लेकिन यहां पकड़ने के बाद ‘सीन रिक्रिएशन’ (वास्तविक घटना को जानने के लिए फिर घटनास्थल पर अपराधियों को ले जाकर एक-एक दृश्य को दोहराने/बताने के लिए कहा जाता है) के दौरान बकौल पुलिस, अपराधियों ने भागने की कोशिश की और पुलिस को उनपर मजबूरन गोली चलानी पड़ी.
सारे देश में पुलिस के इस कृत्य की जमकर प्रशंसा हुई लेकिन कुछ जन की आपत्तियों के बाद इसपर जांच के आदेश भी दिए गए. जांच हुई और पूरे दस लोगों की पुलिस टीम को क्लीन चिट मिल गयी, ये सब कुछ इस तरह हुआ जैसे फिल्मों में तय स्क्रिप्ट पर होता है. फिल्म बदल गयी पर स्क्रिप्ट नहीं बदली. अमर दुबे हो या कल मारे गए विकास दुबे, अमर बन्दूक छीनकर भागा और विकास के मामले में ‘अविकसित सड़क’ पर गड्ढों के चलते गाड़ी पलट जाने से विकास को ‘मजबूरन’, मुठभेड़ में मारना पड़ा.
अब ताज़ा ख़बर है कि SIT गठित हो चुकी है, 31 जुलाई तक एनकाउंटर की रिपोर्ट सौंपनी ही होगी. ये क्लाइमेक्स है. यहां सबको पता है क्या होना है, फिर भी सबको इसका इंतेज़ार रहेगा, सबको ठीक वैसे ही हंसी आयेगी जैसे प्रियदर्शन की फिल्मों के क्लाइमेक्स को देखकर आती थी. लेकिन फर्ज़ी एनकाउंटर तो जॉली एलएलबी 2 में भी दिखाया था.
हम विकास दुबे एनकाउंटर की तुलना उस फिल्म के एनकाउंटर से कर सकते हैं, शायद कुछ कर भी रहे हों पर ये तुलना करनी नहीं चाहिए क्योंकि इकबाल कासिम एक होनहार इमानदार शहरी था, विकास दुबे एक हिस्ट्री शीटर था. यहां इकबाल कासिम की नहीं, इकबाल क़ादरी का एनकाउंटर हुआ है जो फिल्म में एक आतंकी था.
अब सवाल ये उठता है कि क्या ऐसे स्क्रिप्टेड एनकाउंटर सही हैं?
जवाब ये निकलता है कि नहीं. ये ग़लत हैं. लेकिन इसके साथ ही एक जवाब और निकलता है कि ये कम ग़लत हैं. ये उस केसेज़ से कम ग़लत हैं जो न्यायालय में बीस-बीस साल लटकते रहते हैं. सीन रिक्रिएशन करिए और ख़ुद सोचिए कि अदालत और फिर जेल भेजने के बाद विकास को सज़ा मिलने में कितना समय लगता?
60 से अधिक हत्याएं, ढेरों एक्सटोर्शन, लूट, घोटाले, ग़बन, कोई बड़ी बात नहीं रेप भी किए हों; इन सबको मिलकर सौ से ऊपर केसेज़, सबकी अलग-अलग तारीखें, सबमें अलग-अलग सुनवाई. इन सबके निपटने से पहले गवाहों का निपटना, वकीलों का बेतुकी दलीले देना, प्रशासन का बिकना, फिर सेशन कोर्ट, हाई-कोर्ट, सुप्रीम कोर्ट, राष्ट्रपति को देने वाली अर्ज़ी, ये सब मिलाकर कोई इतना वक़्त जितने में विकास अपनी पूरी ज़िन्दगी जीने के बाद, आकाश और शानू (बेटे) को अगला रंगबाज बना सकता था.
जेल के अन्दर बैठे-बैठे कैसे गिरोह चलाया जाता है ये हमें प्रकाश झा ने बहुत अच्छे से समझाया हुआ है. ये एनकाउंटर ग़लत था पर इसकी नौबत इसी प्रशासन और कानून के सुस्त होने के चलते बनी है. बादबाकी कितने नेता, अभिनेता या मंत्री इस एनकाउंटर से बचे हैं ये बात बेबुनियाद है. विकास बच जाता तो इन्हें भी कुछ न हो पाता, प्रियदर्शन की फिल्म याद कीजिए, क्या कभी किसी गुंडे नेता का कोई बुरा परिणाम हुआ था?
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