विनोद खन्ना गुजर गए लेकिन उनसे जुड़ी सातवें दशक की यादें अमिट रहेंगी. यह इत्तेफाक है कि वे सत्तर साल जिए और सत्तर के दशक में ही उन्होंने सफलता की चरम सीमा को छुआ. सुनील दत्त को उनकी मौजूदगी ने मजबूर कर दिया कि वे उन्हें मन का मीत का ऑफर दें. फिर शुरू हुआ उनका फिल्मी सफर जो उनकी अपनी निजी जिंदगी के सफर का प्रतिबिंब था.
उनका परिवार बंटवारे की अस्तव्यवस्तता के बाद का संघर्ष और सफलता के चरम पर पहुंचा. उसी तरह उनका फिल्मी करियर भी खलनायक या ऐंटी-हीरो से शुरू होकर फिल्मी सफलता के चरम पर पहुंच गया. यह कहानी साधारण स्क्रिप्ट के अनुसार बिल्कुल परफेक्ट थी. लेकिन परम सफलता के बाद सब त्यागकर संन्यास लेना, फिर उसी सांसारिक समाज में न सिर्फ लौट आना बल्कि राजनीति में उतरकर मंत्री के पद तक पहुंचना किसी बायोपिक की कहानी मालूम होती है. शायद संजय दत्त की बायोपिक के बाद उन पर स्क्रिप्ट बने क्योंकि इस कहानी में वे सारे पहलू मौजूद हैं जिनसे लोग खुद को जुड़ा हुआ महसूस कर सकते हैं.
उनकी अपील का कारण उनकी वह डिंपल्ड चिन थी, जो हॉलीवुड सुपरस्टार किर्क डगलस की तरह काफी महिलाओं को आकर्षित करती थी. उसके साथ ही पतले होठों पर हल्की मुस्कान, बोलती आंखें और एथलेटिक शरीर, उनकी मेल मैकिज्मो की अपील को बढ़ाता था. उस जमाने के सुपरस्टार राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन पुरुष प्रशंसकों से ही लोकप्रिय हुए थे. लेकिन विनोद के फैन दोनों वर्गों से थे. उनकी खासियत थी मेल मैकिज्मो के साथ एक तरह का सॉफ्टनेस, जिसको 'इम्तिहान' फिल्म में प्रोफेसर के रोल में मोटा चश्मा पहनाकर उभारा गया. उनका डिफाइनिंग रोल 'मेरा गांव मेरा देश' में जब्बर सिंह का था, जिस चरित्र को शोले में गब्बर सिंह नाम देकर पुनर्जिवित करना पड़ा. उनका भृकुटियों से भय पैदा करने वाला यह रोल सबको याद रहेगा.
विनोद खन्ना गुजर गए लेकिन उनसे जुड़ी सातवें दशक की यादें अमिट रहेंगी. यह इत्तेफाक है कि वे सत्तर साल जिए और सत्तर के दशक में ही उन्होंने सफलता की चरम सीमा को छुआ. सुनील दत्त को उनकी मौजूदगी ने मजबूर कर दिया कि वे उन्हें मन का मीत का ऑफर दें. फिर शुरू हुआ उनका फिल्मी सफर जो उनकी अपनी निजी जिंदगी के सफर का प्रतिबिंब था.
उनका परिवार बंटवारे की अस्तव्यवस्तता के बाद का संघर्ष और सफलता के चरम पर पहुंचा. उसी तरह उनका फिल्मी करियर भी खलनायक या ऐंटी-हीरो से शुरू होकर फिल्मी सफलता के चरम पर पहुंच गया. यह कहानी साधारण स्क्रिप्ट के अनुसार बिल्कुल परफेक्ट थी. लेकिन परम सफलता के बाद सब त्यागकर संन्यास लेना, फिर उसी सांसारिक समाज में न सिर्फ लौट आना बल्कि राजनीति में उतरकर मंत्री के पद तक पहुंचना किसी बायोपिक की कहानी मालूम होती है. शायद संजय दत्त की बायोपिक के बाद उन पर स्क्रिप्ट बने क्योंकि इस कहानी में वे सारे पहलू मौजूद हैं जिनसे लोग खुद को जुड़ा हुआ महसूस कर सकते हैं.
उनकी अपील का कारण उनकी वह डिंपल्ड चिन थी, जो हॉलीवुड सुपरस्टार किर्क डगलस की तरह काफी महिलाओं को आकर्षित करती थी. उसके साथ ही पतले होठों पर हल्की मुस्कान, बोलती आंखें और एथलेटिक शरीर, उनकी मेल मैकिज्मो की अपील को बढ़ाता था. उस जमाने के सुपरस्टार राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन पुरुष प्रशंसकों से ही लोकप्रिय हुए थे. लेकिन विनोद के फैन दोनों वर्गों से थे. उनकी खासियत थी मेल मैकिज्मो के साथ एक तरह का सॉफ्टनेस, जिसको 'इम्तिहान' फिल्म में प्रोफेसर के रोल में मोटा चश्मा पहनाकर उभारा गया. उनका डिफाइनिंग रोल 'मेरा गांव मेरा देश' में जब्बर सिंह का था, जिस चरित्र को शोले में गब्बर सिंह नाम देकर पुनर्जिवित करना पड़ा. उनका भृकुटियों से भय पैदा करने वाला यह रोल सबको याद रहेगा.
अजीब है कि आजादी के बाद दिलीप कुमार, राज कपूर और देव आनंद त्रिमूर्ति ने फिल्मी दुनिया पर राज किया. सत्तर और अस्सी के दशक में राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन और विनोद खन्ना ने राज किया और पिछले दशकों में आमिर, सलमान और शाहरुख खान की त्रिमूर्ति ने राज किया जबकि इसी दौरान राजेंद्र कुमार, धर्मेंद्र, अक्षय कुमार भी सफल रहे.
फिल्म स्टार्स अपनी इमेज से इतने जुड़ जाते हैं कि वे अपने वास्तविक इमेज को दूर रखते हैं. देव आनंद ने अपनी वसीयत में लिखा था कि उनका मरणोपरांत चेहरा जनता को न दिखाएं. राज कुमार ने भी कुछ ऐसा ही किया और बंगाल की सुपरस्टार सुचित्रा सेन ने भी ग्रेटा गार्बो की तरह अपना चेहरा नहीं दिखाया.
विनोद खन्ना भी कुछ ऐसा ही रहते लेकिन पर्सनल फोन और सोशल मीडिया आजकल प्राइवेसी की सीमा को नहीं समझते. उन्होंने उनकी बीमारी की तस्वीरें लीक कर दी, जिन्हें उनके फैंस याद नहीं रखना चाहते. लोग कहते हैं कि अच्छा ही है कि मधुबाला, लेडी डायना और मर्लिन मुनरो की इमेज अभी भी उतना ही प्रभाव डालती हैं जबकि ब्रिजिट बार्डो कर वृद्धावस्था की तस्वीरों ने उनकी सेक्स अपील को कम किया है.
हालांकि आशा पारेख और वहीदा रहमान अक्सर नजर आती हैं. रजनीकांत तो इस मामले में काबीले तारीफ हैं कि उनकी स्क्रीन इमेज और निजी जीवन की इमेज में जमीन-आसमान का फर्क है और इसके बावजूद उनकी अपील दोनों मामले में बढ़ी है.
मैंने अपने किशोरवय के दिनों में विनोद खन्ना की सारी फिल्में देखी हैं और मेरी पत्नी भी उनकी बड़ी फैन हैं. मैं उनको नहीं जानता पर उनके गुरु को पढ़ा है. उनके गुरु का संदेश था कि भीड़ में रहकर सब सांसारिक क्रियाएं करने के बावजूद साक्षी भाव से मुक्ति पाई जा सकती है. हो सकता है शायद उन्होंने साधारण जीवन ऐसा जिया जिसमें पद, प्रतिष्ठा और पैसा पाने के बावजूद वे खुश रहे. खैर अब तो विनोद खन्ना सांसारिक सफर के बाद पूर्णता में विलीन हो गए हैं.
ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे.
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