सलमान ख़ान की फिल्म टाइगर ज़िंदा है बड़े पर्दे पर आ चुकी है. भाईजान के फैन बिना कुछ सोचे समझे उनकी किसी भी फिल्म को शीर्ष पर पहुंचाने के लिए काफी होते है. दबंग के बाद से जिस तरह से सलमान ने कम-बैक किया वह व्यावसायिक सिनेमा का असली रूप रूप को समझने के लिए काफी है. दर्शकों की पसंद से लेकर फिल्म में टेक्निकल फेरबदल से कैसे कम-बैक किया जाए यह सलमान की फिल्मों से सीखा जाना चाहिए.
तो टाइगर ज़िंदा है. पाकिस्तानी खूफ़िया एजेंसी आईएसआई से संबंद्ध जोया भी ज़िंदा हैं, और दोनों साथ रह रहे हैं. चूंकि फिल्म हिन्दुस्तानी है तो इसे टाइगर के एंगल से देखने की जरूरत है. आप चाहे तो इसे पाकिस्तान के एंगल से भी देख सकते हैं. पाकिस्तानी सेंसरबोर्ड ने इसे अपने एंगल से देखा तो इसे प्रदर्शित करने से मना कर दिया और बताया कि यह फिल्म उनकी राष्ट्रीय भावना को ठेस पहुंचाती है. इससे उनके देश की सुरक्षा व्यवस्था पर खतरा भी उठ सकता है. फिलहाल फिल्म पाकिस्तान में बैन है. कुवैत में बैन होने का कारण भी जगजाहिर है.
आइये बात करें टाइगर ज़िंदा है की कहानी पर. फिल्म की कहानी देशप्रेम से ओत प्रोत है. इराक में अमरीकी पत्रकार को जासूस समझ कर मार देने की घटना से शुरू हुई कहानी में, जब अमेरिकी सेना दखल देती है तो हिन्दुस्तानी सरकार के हाथ पांव फूलने लगते है. चूंकि भारत को यह पता है कि अमेरिका इराक को नहीं छोड़ने वाला. यह संदेश अमेरिका अपनी फिल्मों से देता आया है कि वह किसी भी देश को कभी भी खत्म कर सकता है. वह पावरफुल सत्ता है.
इराक में फंसी 25 भारतीय और 15 पाकिस्तानी नर्सों को यहां अचीवमेंट के तौर पर पेश किया गया. फिल्म सत्य घटना पर आधारित है पर कितना सत्य है यह सरकार ही बता...
सलमान ख़ान की फिल्म टाइगर ज़िंदा है बड़े पर्दे पर आ चुकी है. भाईजान के फैन बिना कुछ सोचे समझे उनकी किसी भी फिल्म को शीर्ष पर पहुंचाने के लिए काफी होते है. दबंग के बाद से जिस तरह से सलमान ने कम-बैक किया वह व्यावसायिक सिनेमा का असली रूप रूप को समझने के लिए काफी है. दर्शकों की पसंद से लेकर फिल्म में टेक्निकल फेरबदल से कैसे कम-बैक किया जाए यह सलमान की फिल्मों से सीखा जाना चाहिए.
तो टाइगर ज़िंदा है. पाकिस्तानी खूफ़िया एजेंसी आईएसआई से संबंद्ध जोया भी ज़िंदा हैं, और दोनों साथ रह रहे हैं. चूंकि फिल्म हिन्दुस्तानी है तो इसे टाइगर के एंगल से देखने की जरूरत है. आप चाहे तो इसे पाकिस्तान के एंगल से भी देख सकते हैं. पाकिस्तानी सेंसरबोर्ड ने इसे अपने एंगल से देखा तो इसे प्रदर्शित करने से मना कर दिया और बताया कि यह फिल्म उनकी राष्ट्रीय भावना को ठेस पहुंचाती है. इससे उनके देश की सुरक्षा व्यवस्था पर खतरा भी उठ सकता है. फिलहाल फिल्म पाकिस्तान में बैन है. कुवैत में बैन होने का कारण भी जगजाहिर है.
आइये बात करें टाइगर ज़िंदा है की कहानी पर. फिल्म की कहानी देशप्रेम से ओत प्रोत है. इराक में अमरीकी पत्रकार को जासूस समझ कर मार देने की घटना से शुरू हुई कहानी में, जब अमेरिकी सेना दखल देती है तो हिन्दुस्तानी सरकार के हाथ पांव फूलने लगते है. चूंकि भारत को यह पता है कि अमेरिका इराक को नहीं छोड़ने वाला. यह संदेश अमेरिका अपनी फिल्मों से देता आया है कि वह किसी भी देश को कभी भी खत्म कर सकता है. वह पावरफुल सत्ता है.
इराक में फंसी 25 भारतीय और 15 पाकिस्तानी नर्सों को यहां अचीवमेंट के तौर पर पेश किया गया. फिल्म सत्य घटना पर आधारित है पर कितना सत्य है यह सरकार ही बता पाएगी. इस टास्क को फिल्म का नायक टाइगर और नायिका जोया पूरा करने की शुरुआत करती है. शुरुआत भारत की तरफ से होती है. टाइगर को खोज कर उसमें देशभक्ति का जज्बा जगा कर काम पर लगा दिया जाता है. रॉ को टाइगर पर एक पाकिस्तानी के साथ रहने के कारण शक भी होता है जिसके लिए उस पर नज़र भी रखी गयी है. आबु धाबी, आस्ट्रिया, ग्रीस, मोरक्को में शूट हुए सीन को देखकर फिल्म की क्वालिटी किसी हॉलीवुड फिल्म से कम नहीं नज़र आएगी. स्वैग से स्वागत ग्रीस के नक्सॉस में ही शूट हुआ है. वाकई फिल्म का संगीत पक्ष मजबूत है.
फिल्म आगे बढ़ती है और इस बार 25 हिंदुस्तानी और 15 पाकिस्तानी नर्सो को बचाने के लिए रॉ और आई.एस.आई ने मिल कर मिशन पूरा किया. जो सिने इतिहास की शायद पहली ऐतिहासिक घटना होगी. भले ही नाटकीय हो. निर्देशक अली जफ़र की कोशिश इस बार भारत-पाकिस्तान को भाई-भाई के रूप में पेश करने की है. पर पाकिस्तान ने तो अपने नागरिकों को फिल्म देखने से ही वंचित कर रखा हैं. पायरेसी का जमाना है ऐसे में हमें उम्मीद है कि कुछ पाकिस्तानी दर्शक उसे किसी न किसी तरह देख ही लेंगे. जैसे भारतीय सेंसर बोर्ड चाहे जितनी लगाम लगाता रहें फिल्मों के सम्प्रेषण को रोक पाने में उसे काफी मुश्किलें आती रहती है. वैसे ही पाकिस्तान में भी यही समस्या है. पाकिस्तान और कुवैत ने फिल्म को जिस सोच के साथ प्रतिबंध किया है वही स्थिति भारतीय सेंसरबोर्ड के साथ भी अन्य अमेरिकी और भारतीय फिल्मों के साथ देखने को मिलती रहती है.
सलमान खान की फिल्मों को देखने उनके फैन बिना बुलाये भी जाने को तैयार रहते है. बशर्ते उन्हें मालूम हो कि भाई की फिल्म है. भाई की फिल्म है तो एक्शन, ड्रामा, थ्रिलर,रोमांस सब होगा. नए चेहरे तो होंगे ही. टाइगर ज़िंदा है में भी सब कुछ है जो एक दर्शक को चाहिए. ऊपर से मौजूदा समय की सबसे बड़ी जरूरत देशभक्ति तो कूट-कूट कर भरी है. देशभक्ति का आलम यह है कि खुद अपने ही देश नहीं बल्कि पड़ोसी मुल्क के हिस्से की भी देशभक्ति इस फिल्म में दिखा दी गयी है. यहां संदेश साफ है कि दोनों मुल्क एक साथ मिल कर रहें तो बड़े से बड़ा टार्गेट भी हल किया जा सकता है. फिल्म में परेश रावल, अंगद बेदी, कुमुद मिश्रा, सुदीप, गिरीश कर्नाड, नेहा हींगे का अभिनय भी कमाल का है.
यह तो रहा नायकत्व का पक्ष. अब बात करते है फिल्म का सबसे मजबूत पक्ष जिस पर पूरी फिल्म टिकी है. वह है इराक के दहशतगर्द और उनका सरगना अबु उस्मान. अबु उस्मान ऐसा कहर बरपा रहे हैं जैसा कि सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर आए हुए इन दहशत गर्दों के वास्तविक वीडियों को देखकर हमें महसूस होता है. डर सा लगता है. मानवता शर्मसार होती है. अबु उस्मान बने ईरानी अभिनेता सज्जाद डेलफ्रोज वाकई बधाई के पात्र हैं. टाइगर अगर वाकई टाइगर दिख पा रहे हैं तो इसमें सज्जाद के अभिनय का महत्वपूर्ण योगदान है.
फिल्म की लोकेशन्स, कैमरा एंगल और डब की गयी आवाज से इसे हॉलीवुड की हिन्दी में डब की गयी फिल्म जैसा बनाया गया है. एक आम दर्शक हॉलीवुड की फिल्मों को इसी रूप में देखता है. दहशतगर्दों के साम्राज्य को दिखाने के लिए इस्तेमाल की गयी गाड़ियां और उन पर लगे झंडों से उन्हे वास्तविक बनाने की सफल कोशिश की गयी है. कई बार महसूस ही नहीं होगा कि यह सलमान की फिल्म है. क्योंकि सलमान भाई खुद कहते है मैं दिल में आता हूं, समझ में नहीं.
इस बार समझ में भी आ रहे हैं. पूरी फिल्म दोनों मुल्कों की अमन चैन को तर्क के साथ प्रस्तुत करने के सफल हुई है. वहीं अमेरिका इस फिल्म में भी हावी रहा है. उसके हावी रहने के पीछे उनकी फिल्मों का बड़ा हाथ है. उनकी फिल्मों में आप देखते हैं कि कैसे वह देश और दुनिया को अपनी प्रौद्योगिकी और संचार तंत्र के इस्तेमाल से बचाने और नष्ट करने में जी जान झोंकते हैं. अमेरिका ने भारत को दीन-हीन समझते हुए 7 दिन का समय दिया और आखिरी 30 मिनट में टाइगर और जोया अर्थात रॉ और आईएसआई ने जिस तरह यह जंग जीती उससे जितना हमें खुश होने की जरूरत है उतना ही अमेरिकी मसले पर सोचने की भी.
अमन चैन की कोशिश के साथ ही अमेरिका का इराक पर हमले वाले सीन से कई बड़े सवाल खड़े होते दिखते हैं. पूरी फिल्म को अलग-अलग दृष्टिकोण से देखने पर पता लगता है कि यह फिल्म जितना दोनों मुल्कों के नागरिकों के लिए जरूरी है उतनी ही सत्ता में बैठे लोगों के लिए भी. पाकिस्तान का छोड़िए क्योंकि वहां तो फिल्म ही नहीं रिलीज हुई पर आप तो समझ सकते हैं जो निर्देशक अली जफ़र समझाना चाहते हैं. दर्शको की पसंद, पड़ोसी देशों में फ़िल्म व्यवसाय की संभावनाओं, कंटेम्परेरी मुद्दे और हॉलीवुड की फ़िल्म शैली की फूहड़ नकल को एक साथ समझने के लिए टाइगर जिंदा है का देखा जाना जरूरी है. आईएसआई और रॉ इधर अपने मिलन पर खुश हैं उधर इस फिल्म में भी अमेरिका धौस दिखा कर चला गया.
यह सच है कि भारतीय दर्शकों ने फिल्म का अपने स्वैग से स्वागत किया लेकिन कुवैत और पाकिस्तान में बैन से भी हमें ही सीख लेने की जरूरत है. कई फिल्मों के संदर्भ में हम भी पाकिस्तानी और कुवैत बनते दिख जाते हैं. फिल्म की ओपनिंग धमाकेदार है. भाईजान इस बार क्रिसमस और न्यू इयर पर तोहफ़ा लेकर आए हैं, अमन और चैन का. समझ सकें तो समझिए. हां ध्यान रखिएगा अभी भी टाइगर जिंदा है. और जोया भी... काश कि एक थी जोया पाकिस्तान में बनें और हम उसे देखें.
ये भी पढ़ें -
टाइगर ज़िंदा है या टाइगर ब्लॉकबस्टर है, बात एक ही है
जी हां, 'टाइगर ज़िंदा है' क्योंकि...
चे ग्वेरा जैसा क्यों है 'टाइगर जिंदा है' का बगदादी
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.