कंगना रनौत और अरविंद स्वामी की दमदार भूमिका से सजी तमिलनाडु की पूर्व मुख्यमंत्री जे. जयललिता के जीवन पर बनी थलाइवी तमाम तारीफें हासिल करने में कामयाब रही. ना सिर्फ थलाइवी के मेकर्स बल्कि एक्ट्रेस के प्रशंसक भी कंगना की भूमिका को सर्वोत्तम बता रहे हैं. द कपिल शर्मा शो में मेकर्स ने खुलासा भी किया कि आखिर जया की भूमिका के लिए कंगना को कास्ट ही क्यों कास्ट किया गया. सबसे बड़ी वजह तो जया की तरह कंगना की ताकतवर महिला की छवि ही रही. दोनों महिलाओं में काफी समानताएं हैं. निर्माताओं को लगा था कि जया की भूमिका के साथ कंगना ही ईमानदारी से न्याय कर पाएंगी. कंगना उम्मीदों पर खरा बनही उतरती दिखीं. साफ़ है कि कंगना की जो छवि थी, खासकर एक महिला के नाते, उसे जयललिता के साथ भुनाने की कोशिश की गई थी.
थलाइवी में कई जगह जया के जरिए महिलावादी पक्ष को सामने भी रखा गया है. कुल मिलाकर महिलाएं ज्यादा से ज्यादा आकर्षित हों और परिवार के साथ सिनेमाघरों तक पहुंचे. हालांकि थलाइवी के नारीवादी दृष्टिकोणों पर बात करना एक अलग और नई बहस के साथ जाना होगा. फिलहाल तो यही देखना चाहिए कि क्या कंगना और उनकी टीम महिलाओं को प्रभावित कर पाई? महिलाएं कंगना की फ़िल्में देखने आ रही हैं क्या और अगर नहीं आ रही हैं तो इसकी क्या-क्या वजहें हैं, कंगना की फिल्म का औसत होना या और भी दूसरी वजहें? अगर किसी फिल्म की सफलता का पैमाना दर्शक और बॉक्स ऑफिस कलेक्शन है तो दोनों लिहाज से थलाइवी को नाकाम फिल्म कह सकते हैं. पहले दिन फिल्म ने महज करीब 1.25 करोड़ का अनुमानित बिजनेस किया है.
थलाइवी की कमाई तो शर्मनाक है, महिलाओं ने भी क्यों नहीं देखी फिल्म
हिंदी सर्किट में तो पूरी तरह से धराशायी है थलाइवी. सबसे ज्यादा 80 लाख रुपये का कलेक्शन तमिलनाडु से है. ये कलेक्शन बहुत बढ़िया तो नहीं कहा जा सकता मगर कोरोना के मौजूदा हालात में संतोषजनक माने जा सकते हैं. हिंदी सर्किट में महज 20-25 प्रतिशत कारोबार की खबरें आ रही हैं. मुंबई सर्किट बंद होने के बावजूद कंगना की फिल्म के स्केल को देखते हुए...
कंगना रनौत और अरविंद स्वामी की दमदार भूमिका से सजी तमिलनाडु की पूर्व मुख्यमंत्री जे. जयललिता के जीवन पर बनी थलाइवी तमाम तारीफें हासिल करने में कामयाब रही. ना सिर्फ थलाइवी के मेकर्स बल्कि एक्ट्रेस के प्रशंसक भी कंगना की भूमिका को सर्वोत्तम बता रहे हैं. द कपिल शर्मा शो में मेकर्स ने खुलासा भी किया कि आखिर जया की भूमिका के लिए कंगना को कास्ट ही क्यों कास्ट किया गया. सबसे बड़ी वजह तो जया की तरह कंगना की ताकतवर महिला की छवि ही रही. दोनों महिलाओं में काफी समानताएं हैं. निर्माताओं को लगा था कि जया की भूमिका के साथ कंगना ही ईमानदारी से न्याय कर पाएंगी. कंगना उम्मीदों पर खरा बनही उतरती दिखीं. साफ़ है कि कंगना की जो छवि थी, खासकर एक महिला के नाते, उसे जयललिता के साथ भुनाने की कोशिश की गई थी.
थलाइवी में कई जगह जया के जरिए महिलावादी पक्ष को सामने भी रखा गया है. कुल मिलाकर महिलाएं ज्यादा से ज्यादा आकर्षित हों और परिवार के साथ सिनेमाघरों तक पहुंचे. हालांकि थलाइवी के नारीवादी दृष्टिकोणों पर बात करना एक अलग और नई बहस के साथ जाना होगा. फिलहाल तो यही देखना चाहिए कि क्या कंगना और उनकी टीम महिलाओं को प्रभावित कर पाई? महिलाएं कंगना की फ़िल्में देखने आ रही हैं क्या और अगर नहीं आ रही हैं तो इसकी क्या-क्या वजहें हैं, कंगना की फिल्म का औसत होना या और भी दूसरी वजहें? अगर किसी फिल्म की सफलता का पैमाना दर्शक और बॉक्स ऑफिस कलेक्शन है तो दोनों लिहाज से थलाइवी को नाकाम फिल्म कह सकते हैं. पहले दिन फिल्म ने महज करीब 1.25 करोड़ का अनुमानित बिजनेस किया है.
थलाइवी की कमाई तो शर्मनाक है, महिलाओं ने भी क्यों नहीं देखी फिल्म
हिंदी सर्किट में तो पूरी तरह से धराशायी है थलाइवी. सबसे ज्यादा 80 लाख रुपये का कलेक्शन तमिलनाडु से है. ये कलेक्शन बहुत बढ़िया तो नहीं कहा जा सकता मगर कोरोना के मौजूदा हालात में संतोषजनक माने जा सकते हैं. हिंदी सर्किट में महज 20-25 प्रतिशत कारोबार की खबरें आ रही हैं. मुंबई सर्किट बंद होने के बावजूद कंगना की फिल्म के स्केल को देखते हुए माना जा सकता है कि कलेक्शन औसत से भी बहुत मामूली है. कलेक्शन साफ़ करते हैं कि हिंदी क्षेत्रों में जहां कंगना का प्रभाव था वहां दर्शक फिल्म देखने ही नहीं आए. मध्यवर्गी शहरी लड़कियां और महिलाएं भी नहीं, जिनमें कंगना का मजबूत बेस समझा जाता है. हिंदी क्षेत्रों में मैंने खुद थियेटर के हालात पता किए. दर्शकों की संख्या कम है और उसकी जेन्यूइन वजहें भी हैं. उसमें भी महिलाएं इक्का दुक्का नजर आ रही हैं. कहां तो उम्मीद थी कि महिलाएं जया और कंगना की वजह से थलाइवी के लिए सिनेमाघरों की ओर रुख करेंगी.
मोदी के उभार से पहले ही पिछले कुछ सालों में कंगना ने बेबाक, निडर और साहसी महिला की छवि बनाई है. कंगना खुद के महिला होने के सवाल को लेकर बॉलीवुड के वर्चस्वशाली पुरुष ढांचे पर हमला करती रही हैं. आदित्य पंचोली, अध्ययन सुमन, रितिक रोशन और करण जौहर से जुड़े निजी विवादों में भी उन्होंने खुद को एक संसाधनहीन-संघर्षशील, पीड़ित महिला और आउटसाइडर के रूप में ही पेश किया. नारीवादियों का समूह उत्साह के साथ कंगना से जुड़ा भी. आम महिलाएं तमाम मुद्दों पर उनके साथ आतीं नजर आईं. कंगना की छवि को फैशन, तनु वेड्स मनु और क्वीन जैसी फिल्मों ने भी खासी मजबूती प्रदान कर दी. कंगना की बेबाकी उनके अंदाज में जारी रही और इसके जरिए उन्होंने खुद को एक ताकतवर महिला के रूप में स्थापित किया. आसपास नजर घुमाइए, कई उन्हें बॉलीवुड की इकलौती "फौलादी" महिला की उपाधि देते नजर आ जाएंगे. लेकिन मोदी के उदय के साथ कंगना ने अपना राजनीतिक स्टैंड भी साफ़ किया. महिलावादी नजरिए में राष्ट्रवाद के साथ हिंदुत्व भी जुड़ गया.
कंगना सरेआम पार्टी पक्षधरता का इजहार करते दिखीं. हालांकि उन्हें 'लिबरल' नारीवादियों का समर्थन गंवाना पड़ा है, लेकिन सुशांत सिंह राजपूत केस और बाद में महाराष्ट्र सरकार के साथ हुए विवाद में कंगना की मजबूत महिला छवि को और प्रचार मिला. ठाकरे सरकार से सीधे पंगा लेती नजर आई एक्ट्रेस निश्चित ही देशभर में एक बड़े हिस्से खासकर महिलाओं के लिए रोल मॉडल बनकर सामने आईं. कंगना की छवि और स्टारडम के मुकाबले मनोरंजक कंटेंट होने के बावजूद थलाइवी का प्रदर्शन एक्टर्स की फैन सपोर्ट सिस्टम को लेकर निराश करता है. थलाइवी के हश्र के पीछे सबसे अहम वजह प्रशंसकों का मुंह मोड़ लेना है या कुछ और.
थलाइवी उन स्क्रीन्स पर है जहां आने का रास्ता भटक चुके हैं दर्शक
कोरोना महामारी और हिंदी सर्किट में थलाइवी को लेकर मल्टीप्लेक्स का रवैया अहम है. मुंबई को छोड़कर हिंदी के सभी सर्किट लगभग एक्टिव हैं 50 प्रतिशत क्षमता के साथ. थलाइवी के साथ दिक्कत यह हुई कि पीवीआर और आईनोक्स जैसे मल्टीप्लेक्स चेन ने कंगना की फिल्म को रन करने में दिलचस्पी नहीं दिखाई. थलाइवी को स्क्रीन मिले भी तो बेलबॉटम और मार्वल की फिल्मों के मुकाबले जरूरत से बहुत कम. कहीं-कहीं तो मात्र एक या दो शो मिले हैं. कहीं यह भी देखने को मिला कि थलाइवी का तमिल वर्जन दिखाया जा रहा है. हिंदी क्षेत्रों में फिल्म सिंगल स्क्रीन के भरोसे है. जबकि बड़े शहरों या महानगरों में फिल्मों का कारोबार मल्टीप्लेक्स के जरिए ही निकलता रहा है. तमाम वजहों से सिंगल स्क्रीन वजूद बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. सिंगल स्क्रीन फैमिली ऑडियंस के भरोसे में भी नहीं हैं. महामारी के हालात और 50 प्रतिशत दर्शक क्षमता एक अलग ही सियापा है.
थलाइवी की नाकामी उसके कंटेंट में नहीं यहां है
साफ़ है कि फैमिली ऑडियंस पिछले कुछ सालों से जहां फ़िल्में देख रहा था, वहां थलाइवी स्क्रीन ही नहीं हुई. दूसरी अहम बात महामारी के बाद से दर्शकों का बदला मूड और दूसरी तात्कालिक वजहें हैं. ना सिर्फ थलाइवी बल्कि बेल बॉटम के कम उम्मीद से कलेक्शन में भी इसी की भूमिका नजर आती है. दरअसल, सिनेमाघर जाकर फिल्म देखने की आदत को महामारी के बाद ओटीटी प्लेटफॉर्म की आक्रामक रणनीतियों ने बदल दिया है. अब शहरी फैमिली ऑडियंस ओटीटी पर ही नई फ़िल्में और दूसरे कंटेट देखने लगी है. तमाम ओटीटी प्लेटफॉर्म्स के जो बेस बढ़े हैं वो बड़े शहरों से ही निकलकर आते हैं. यह दर्शकों के बदलाव की आदतों को साफ़ दिखाता है. महंगाई की मार से कराह रहा निम्न मध्यवर्ग जोखिमभरे माहौल में फिजूलखर्ची से बच रहा है. भला नई फिल्मों को देखने का जो काम दो तीन सौ रुपये खर्च करके (महीने भर के लिए) बिना जोखिम के घर में ही किया जा सकता है, उसके लिए परिवार को बाहर ले जाकर हजार दो हजार रुपये खर्च करने की क्या जरूरत? वह भी तब जब ओटीटी पर लगातार कई रेंज में फ्रेश कंटेंट का विकल्प मिल रहा हो. दर्शकों को यह भी पता है कि चार से पांच हफ्ते बाद फिल्म ओटीटी पर मिल जाएगी, भला क्यों महामारी में एक रिस्क उठाना जबकि उसके तीसरी लहर की आहट से लोग डरे हुए हैं.
वक्त का इशारा समझने को तैयार कौन है?
ओटीटी प्लेटफॉर्म तो दर्शकों के लिए लगभग माल-ए-मुफ्त भी साबित हो रहे हैं. सेल्युलर कंपनियों के रिचार्ज प्लान में ही मामूली भुगतान पर बड़े ओटीटी प्लेटफॉर्म का सब्सक्रिस्प्शन मिल रहा है. अंदाजा लगाया जा सकता है कि क्रीम शहरों में ओटीटी की पैठ कितनी मजबूती और तेजी से हो रही है. वक्त का इशारा तो यही है कि पिछली कई फिल्मों का हश्र देखने के बाद फिल्मों के वितरण और उनकी कामयाबी के पैमाने बदलने होंगे. कारोबार के लिए भी सिनेमाघर और ओटीटी के बीच का रास्ता तलाशना होगा.
अब बताइए, क्या कंगना रनौत की थलाइवी को फ्लॉप कहा जा सकता है?
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