माना कि टैक्स में राहत नहीं दी. माना कि कई जगह जेब पर कैंची चलाई. ये भी माना कि मूर्ख बनाने की पूरी कोशिश की, लेकिन इसके बावजूद इस बजट में कुछ ऐसा है जो देश को कुछ बेहतर दे सकता है. इस बजट को समझने के लिए दो आर्थिक विकास की धारणाओं को समझना होगा.
ट्रिकल डाउन थ्योरी
ये अवधारणा कहती है कि आम लोगों को सहूलियतें नहीं देना चाहिए. जितना हो सके कॉर्पोरेट को सुविधाएं, सहूलियतें, और देश के अधिकतम संसाधन दे देना चाहिए. जब कॉर्पोरेट कमाता है तो रोजगार पैदा होते हैं. और समाज में तरक्की होती है. लेकिन ये थ्योरी खुद उसके सबसे बड़े गढ़ अमेरिका में भी कामयाब होती नहीं दिख रही. अमीर और अमीर हो रहे हैं और गरीबों की गरीबी बढ़ती जा रही है. कॉर्पोरेट का पेट देश के संसाधनों से नहीं भरा गरीब गरीब ही रह गए. अब अमेरिका के उदयोगपति पूरी दुनिया में धन चूसने जा रहे हैं. सारी कमज़ोर सरकारों को ऐसी नीतियां बनाने पर मजबूर किया जा रहा है जो इनके कारोबार को बढ़ाएं. पिछले 20-15 साल से भारत की नीतियां ऐसे ही पूंजीवादी स्वरूप को आगे बढ़ाने में लगी हैं. मोदी सरकार ने अब तक इसे जिद की हद तक आगे बढ़ाया है.
फीडिंग द रूट थ्योरी
ये अवधारणा जर्मनी, चीन, रूस और भारत जैसे देशों में अपनाई जाती रही हैं. इस अवधारणा में समाज के सबसे नीचे तबके को देश के संसाधनों से मजबूत किया जाता है. जैसे गरीबों को सब्सिडी देना. ज्यादा से ज्यादा निर्माण कार्य जैसे सड़क, पुल बगैरह बनाना, नरेगा मनरेगा जैसे काम, खेती के लिए सब्सिडी. इस अवधारणा को मानने वाले कहते हैं कि गरीब के हाथ में पैसा होगा तो वो उसे अपनी ज़रूरतों पर खर्च करता है. माचिस, घी, तेल, साबुन वगैरह खरीदकर वो छोटे दुकानदार को पैसे देता है. आखिर धन उत्पादक तक जाता है और उत्पादक और उत्पादन करने के लिए पैसे फिर समाज को दे...
माना कि टैक्स में राहत नहीं दी. माना कि कई जगह जेब पर कैंची चलाई. ये भी माना कि मूर्ख बनाने की पूरी कोशिश की, लेकिन इसके बावजूद इस बजट में कुछ ऐसा है जो देश को कुछ बेहतर दे सकता है. इस बजट को समझने के लिए दो आर्थिक विकास की धारणाओं को समझना होगा.
ट्रिकल डाउन थ्योरी
ये अवधारणा कहती है कि आम लोगों को सहूलियतें नहीं देना चाहिए. जितना हो सके कॉर्पोरेट को सुविधाएं, सहूलियतें, और देश के अधिकतम संसाधन दे देना चाहिए. जब कॉर्पोरेट कमाता है तो रोजगार पैदा होते हैं. और समाज में तरक्की होती है. लेकिन ये थ्योरी खुद उसके सबसे बड़े गढ़ अमेरिका में भी कामयाब होती नहीं दिख रही. अमीर और अमीर हो रहे हैं और गरीबों की गरीबी बढ़ती जा रही है. कॉर्पोरेट का पेट देश के संसाधनों से नहीं भरा गरीब गरीब ही रह गए. अब अमेरिका के उदयोगपति पूरी दुनिया में धन चूसने जा रहे हैं. सारी कमज़ोर सरकारों को ऐसी नीतियां बनाने पर मजबूर किया जा रहा है जो इनके कारोबार को बढ़ाएं. पिछले 20-15 साल से भारत की नीतियां ऐसे ही पूंजीवादी स्वरूप को आगे बढ़ाने में लगी हैं. मोदी सरकार ने अब तक इसे जिद की हद तक आगे बढ़ाया है.
फीडिंग द रूट थ्योरी
ये अवधारणा जर्मनी, चीन, रूस और भारत जैसे देशों में अपनाई जाती रही हैं. इस अवधारणा में समाज के सबसे नीचे तबके को देश के संसाधनों से मजबूत किया जाता है. जैसे गरीबों को सब्सिडी देना. ज्यादा से ज्यादा निर्माण कार्य जैसे सड़क, पुल बगैरह बनाना, नरेगा मनरेगा जैसे काम, खेती के लिए सब्सिडी. इस अवधारणा को मानने वाले कहते हैं कि गरीब के हाथ में पैसा होगा तो वो उसे अपनी ज़रूरतों पर खर्च करता है. माचिस, घी, तेल, साबुन वगैरह खरीदकर वो छोटे दुकानदार को पैसे देता है. आखिर धन उत्पादक तक जाता है और उत्पादक और उत्पादन करने के लिए पैसे फिर समाज को दे देता है. अमेरिका के असर में इस थ्योरी से भारत जैसे देश लगातार दूर होते रहे हैं.
मोदी सरकार के नये बजट को देखें ते इसमें काफी चीज़ें ऐसी हैं जो अमेरिकी आर्थिक गुलामी से दूर ले जाने वाली हैं. इसमें कई ऐसी बातें हैं जो ट्रिकल डाउन थ्योरी की सिद्ध हो चुकी बकवास से अलग रास्ते पर ले जाने वाली हैं.
2022 तक आय दुगुनी करने का वादा तो चुनावी जुमला लगता है लेकिन समर्थन मूल्य में किसानों को लागत का डेढ़ गुना कीमत की गारंटी देना एक बेहतर कदम है. इससे किसान की तरफ से बाज़ार को मिलने वाली रकम मिलती रहेगी. इससे 70 फीसदी किसानों वाले देश में बाजार को तरल (नकदी) मिलती रहेगी.दो करोड़ शौचालय बनाने की योजना में भी रोज़गार पैदा होगा. लोगों को काम मिले इसके लिए कम से कम 48 करोड़ घंटे का रोज़गार पैदा होगा. ये भी गरीब के हाथों से पैसे का संचलन करेगा.
आधारभूत संरचना यानी इन्फ्रास्ट्रक्चर पर मोदी सरकार 5.97 लाख करोड़ रुपये खर्च करने वाली है. इसका मतलब है कि इस पैसे से सड़कें, पुल, बंदरगाह जैसी आधारभूत चीज़ों पर मोटा खर्च होगा. ये सभी वो काम हैं जिनमें मज़दूरों की बड़ी संख्या में ज़रूरत होती है. यानी इससे बड़ी संख्या में रोजगार पैदा होगा. फीडिंग द रूट अवधारणा के मुताबिक इससे अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने में मदद मिलेगी. लेकिन इस सेक्टर में भ्रष्टाचार भी बहुत है. मंत्रालय नितिन गडकरी का है उन्हें ध्यान रखना होगा. कंस्ट्रक्शन क्षेत्र में हाल ही मे सरकार ने बिना इजाजत 100 फीसदी विदेशी निवेश को इजाजत दे दी है. इससे विदेशी कंपनियां आएंगी ये कदम थोड़ा डराने वाला है क्योंकि बड़ी टैक्नोलॉजी के इस्तेमाल से रोजगार सृजन में कमी आ सकती है. हर ब्लॉक में एक एकलव्य स्कूल खोलने, 24 नये मेडिकल कॉलेज खोलने, जैसे काम भी रोजगार पैदा करेंगे साथ में ही लोगों को भी तैयार करेंगे.
लघु, सूक्षण और मध्यम उद्योगों को सरकार ने बड़ी राहत दी है. ये वो उद्योग है जो सीधे आम लोगों से जुड़ा है. भारी उद्योग धंधों में बड़ी बड़ी मशीनें काम करती हैं. मानव संसाधन यानी कर्मचारियों की ज़रूरत कम होती है. इसलिए रोज़गार कम पैदा होता है. छोटे उद्योग उतना ही उत्पादन करने में अधिक लोगों को रोज़गार देते हैं. यानी फिर गरीब लोगों को पैसा जाएगा, मिडिल क्लास को रोजगार मिलेगा और बाज़ार में समृद्धि आएगी. काम धंधे ठीक से चलेंगे. ये नीति ठीक वैसी है जैसी इंदिरा और नेहरू के समय हुआ करती थी. अनुसूचित जाति और जनजाति क्ल्याण पर सरकार ने एक लाख पांच हज़ार करोड़ खर्च करने का प्रावधान रखा है. आरक्षण और अनुसूचित जातियों या वंचित तबके के लोगों को फायदा देकर हम लोगों को मुख्य धारा में लाते हैं. देश के काम आने वाले लोग तैयार होते हैं. लोग पढ़ते लिखते हैं तो देश के काम के बन जाते हैं. वो विकास में योगदान देने लगते हैं.
राष्ट्रीय बांस योजना से भी बड़ी संख्या में रोजगार विकसित होंगे. अभीतक आप बांस पैदाकरके फिर उसका इस्तेमाल कर सकते हैं. जंगल में खड़े बांस को काटने की मनाही है. बांस पर्यावरण में बहुत अधिक योगदान भी नहीं देता. अगर बांस जंगल से काटे जाते हैं तो शिल्पकारों को सस्ती कीमत पर बांस मिलेंगे उनके उत्पाद सस्ते होने के कारण सीधे नया वैल्थ जनरेशन होगा.
कुल मिलाकर बजट पूरी तरह तो नहीं लेकिन फिर भी एक हदतक पुरानी नेहरू इंदिरा वाली नीतियों को सरकार ने अपनाया है. ये आम लोगों के लिए बेहतर है लेकिन फिर भी सरकार का रुझान पूरी तरह अमीरों को ठूंस ठूस कर खिलाने वाली ट्रिकलडाउन थ्योरी पर ही है इसलिए इतना ज्यादा खुश भी नहीं हुआ जा सकता. सरकार ने 100 करोड़ कमाने वाली कंपनियों को इनकम टैक्स में 100 फीसदी छूट दे दी है. यानी उन्हें टैक्स देना ही नहीं होगा. 250 करोड़ रुपये तक कमाने वाली कंपनियों को सिर्फ 25 फीसदी कर देना होगा.
ये भी पढ़ें-
जेटली का हिंदी में बजट भाषण चुभ गया है कुछ लोगों को
जानिए इस बजट में गरीबों और मिडिल क्लास को क्या मिला...
थोड़ी देर बजट को भूल जाइए, क्योंकि "राज" ने "विजय" को हरा दिया है
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.