पिछले हफ्ते जीडीपी की बढ़ोतरी को लेकर अच्छी खबर आई. चालू वित्त वर्ष के प्रथम तिमाही में जीडीपी विकास दर अनुमान से कहीं अधिक यानी 8.2% रही. लेकिन इस ऐतिहासिक विकास दर के दौरान रोजगार के आंकड़े चिंतनीय रहे. इसी दौरान रोजगार में 1% की कमी आई है. तिमाही की जीडीपी संगठित क्षेत्रों के प्रदर्शन पर आधारित होती है. दूसरी तिमाही में भी रोजगार में तेजी से गिरावट आई है. जुलाई 2017 से जुलाई 2018 के बीच काम करने वालों की संख्या में 1.4% की गिरावट आई है. अगस्त में 1.2% की गिरावट है. नवंबर 2017 से ही रोजगार में गिरावट आती जा रही है. सबसे चिंता जनक मामला यह है कि रोजगार में गिरावट तब जारी है, जब लेबर फोर्स बढ़ती जा रही है. लेबर फोर्स बढ़ने से आशय है कि काम के लिए ज्यादा लोगों की उपलब्धता होते जाना. नोटबंदी के बाद लेबर फोर्स सिकुड़ गया था. लोगों को काम मिलने की उम्मीद नहीं रही थी, इसलिए वे लेबर मार्केट से चले गए थे.
वर्तमान में बैंकिंग व्यवस्था चरमराई हुई है. महंगाई की चिंता में भारतीय रिजर्व बैंक ने लंबे अरसे के बाद नीतिगत ब्याज दरों में बढ़ोतरी शुरू की है. रूपये की स्थिति इतिहास के किसी भी समय के मुकाबले सबसे खराब है. व्यापार संतुलन ठीक करने की तमाम कोशिशें नाकाम रही हैं. ऐसे में रोजगार के घटते आंकड़े अर्थव्यवस्था के गंभीर संकट को प्रतिबिंबित करते हैं.
रोजगार के ये आंकड़े और भी डरावने हैं
2014-15 में 8 ऐसी कंपनियां हैं, जिनमें से हर किसी ने औसत 10,000 लोगों को काम से निकाला है. इसमें प्राइवेट और सरकारी कंपनियां दोनों हैं. वेदांता ने 49,141 लोगों की छंटनी की, तो फ्यूचर एंटरप्राइज ने 10,539 लोगों की. वहीं स्वास्थ्य क्षेत्र की सुप्रसिद्ध कंपनी फोर्टिस हेल्थकेयर...
पिछले हफ्ते जीडीपी की बढ़ोतरी को लेकर अच्छी खबर आई. चालू वित्त वर्ष के प्रथम तिमाही में जीडीपी विकास दर अनुमान से कहीं अधिक यानी 8.2% रही. लेकिन इस ऐतिहासिक विकास दर के दौरान रोजगार के आंकड़े चिंतनीय रहे. इसी दौरान रोजगार में 1% की कमी आई है. तिमाही की जीडीपी संगठित क्षेत्रों के प्रदर्शन पर आधारित होती है. दूसरी तिमाही में भी रोजगार में तेजी से गिरावट आई है. जुलाई 2017 से जुलाई 2018 के बीच काम करने वालों की संख्या में 1.4% की गिरावट आई है. अगस्त में 1.2% की गिरावट है. नवंबर 2017 से ही रोजगार में गिरावट आती जा रही है. सबसे चिंता जनक मामला यह है कि रोजगार में गिरावट तब जारी है, जब लेबर फोर्स बढ़ती जा रही है. लेबर फोर्स बढ़ने से आशय है कि काम के लिए ज्यादा लोगों की उपलब्धता होते जाना. नोटबंदी के बाद लेबर फोर्स सिकुड़ गया था. लोगों को काम मिलने की उम्मीद नहीं रही थी, इसलिए वे लेबर मार्केट से चले गए थे.
वर्तमान में बैंकिंग व्यवस्था चरमराई हुई है. महंगाई की चिंता में भारतीय रिजर्व बैंक ने लंबे अरसे के बाद नीतिगत ब्याज दरों में बढ़ोतरी शुरू की है. रूपये की स्थिति इतिहास के किसी भी समय के मुकाबले सबसे खराब है. व्यापार संतुलन ठीक करने की तमाम कोशिशें नाकाम रही हैं. ऐसे में रोजगार के घटते आंकड़े अर्थव्यवस्था के गंभीर संकट को प्रतिबिंबित करते हैं.
रोजगार के ये आंकड़े और भी डरावने हैं
2014-15 में 8 ऐसी कंपनियां हैं, जिनमें से हर किसी ने औसत 10,000 लोगों को काम से निकाला है. इसमें प्राइवेट और सरकारी कंपनियां दोनों हैं. वेदांता ने 49,141 लोगों की छंटनी की, तो फ्यूचर एंटरप्राइज ने 10,539 लोगों की. वहीं स्वास्थ्य क्षेत्र की सुप्रसिद्ध कंपनी फोर्टिस हेल्थकेयर ने 18,000 लोगों की छंटनी की. टेक महेंद्रा ने 10,470 कर्मचारी कम किए हैं. सेल सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी है, इसने 30,413 लोगों की छंटनी की है, तो बीएसएनएल ने 12,765 लोगों को काम से निकाला. इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन ने भी 11,924 लोगों की छंटनी की. इस तरह केवल तीन सरकारी कंपनियों ने करीब 55,000 नौकरियां कम की हैं.
सीएमआईई नामक संस्था लगातार रोजगार के आंकड़ों पर नजर रखती है. इस संस्था के अनुसार 2013-14 में 1443 कंपनियों ने 67 लाख रोजगार देने के आंकड़े दिए, जबकि 2016-17 में 3,441 कंपनियों ने 84 लाख रोजगार देने का डेटा दिया है. इस हिसाब से देखें तो कंपनियों की संख्या में दोगुनी से भी ज्यादा वृद्धि के बावजूद रोजगार के आंकड़ों में खास वृद्धि नहीं दिखती है.
कर्मचारी भविष्य निधि संगठन के आंकड़े भी रोजगार को लेकर चिंता प्रकट करने वाले हैं. पिछले साल सितंबर से इस साल मई के बीच कितने कर्मचारी इससे जुड़े हैं, इसकी समीक्षा की गई है. पहले अनुमान बताया गया था कि इस दौरान 45 लाख कर्मचारी जुड़े. समीक्षा के बाद इसमें 12.4% की कमी आ गई. इस तरह अब यह संख्या 39 लाख हो गई है.
निर्यातोन्मुखी हो हमारी अर्थव्यवस्था
लघु एवं मध्यम उद्योग भारतीय अर्थव्यवस्था में रोजगार की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण हैं. नोटबंदी ने लघु एवं मध्यम उद्योगों की कमर तोड़ दी. आरबीआई के अनुसार मार्च 2017 से मार्च 2018 के बीच उनके लोन न चुकाने की क्षमता दुगुनी हो गई है. मार्च 2017 तक लोन न चुकाने का मार्जिन 8,249 करोड़ था, जो मार्च 2018 तक बढ़कर 16,111 करोड़ हो गया.
भारतीय रुपया डॉलर के मुकाबले कमजोर हो रहा है, और अब तो रुपया डॉलर के मुकाबले 72.12 के स्तर को भी पार कर गया है. इस तरह रुपया लगातार कमजोर हो रहा है. ऐसे में आवश्यक है कि हमारी अर्थव्यवस्था निर्यातोन्मुखी बने, लेकिन भारत का निर्यात लंबे समय से ठहराव की दशा में है. इस स्थिति में देश का कपड़ा उद्योग संपू्ण अर्थव्यवस्था में प्राण फूंक सकता था. भारत में कृषि के बाद सबसे बड़ा रोजगार प्रदान करने वाला कपड़ा उद्योग लगभग 3.5 करोड़ लोगों को रोजगार प्रदान करता था, जबकि निर्यात क्षेत्र में इसकी भागीदारी 24.6% थी. इस तरह कपड़ा उद्योग न केवल निर्यातोन्मुखी अर्थव्यवस्था बल्कि रोजगार देने वाली अर्थव्यवस्था के लिए भी अपरिहार्य है.
मौजूदा वर्ष देश के वस्त्र निर्यात के लिए अच्छा साबित नहीं हो रहा है. क्लोथिंग मैन्युफैक्चरर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया(सीएमआई) के आंकड़ों के अनुसार इस साल अप्रेल और मई में वस्त्र निर्यात पिछले वर्ष के समान महीनों की तुलना में क्रमश: 23 और 17 प्रतिशत गिरा. वर्ष 2017-18 में भी इस क्षेत्र का प्रदर्शन कमजोर रहा था और पूरे साल के दौरान देश के वस्त्र निर्यात में 4% की कमी आई. सरकार इसके कमजोर प्रदर्शन के लिए यूरोप और अमेरिका में मांग में कमी को मानती है. लेकिन अगर उदाहरणों को देखा जाए तो समस्या वैश्विक बाजारों की स्थिति की नहीं है, बल्कि उसका संबंध देश के परिस्थितियों से है.
दूसरे देशों से सीखे भारत
उदाहरण के लिए जरा वियतनाम पर विचार कीजिए, जिसके वस्त्र निर्यात में इस वर्ष अब तक 14% की वृद्धि दर्ज की जा चुकी है. पिछले वित्त वर्ष में जहां भारतीय वस्त्र निर्यात में 4% की गिरावट दर्ज की गई, वहीं बांग्लादेश ने इसी अवधि में तैयार वस्त्रों के निर्यात के जरिए 9 फीसदी की राजस्व वृद्धि हासिल की. इसके पहले बांग्लादेश में कपड़ा एवं वस्त्र मिलों के बुनियादी ढ़ांचे में जबरदस्त सुधार किया गया ताकि उच्च सुरक्षा मानकों का पालन किया जा सके. मई 2018 में जब देश का वस्त्र निर्यात 17% गिरा तो इसी अवधि में श्रीलंका का वस्त्र निर्यात में सलाना आधार पर 9% की वृद्धि हुई. अप्रैल में जरूर उसके वस्त्र निर्यात में 4% की गिरावट आई थी, लेकिन फिर भी वह भारत की 23% गिरावट से बहुत कम थी. उद्योग जगत एवं सरकार ने कपड़ा उद्योग के घटते निर्यात के लिए अंतरराष्ट्रीय स्थितियों को जिम्मेवार माना है. लेकिन वियतनाम, बांग्लादेश और श्रीलंका के उदाहरणों से स्पष्ट है कि भारत में कपड़ा उद्योग के प्रतिस्पर्धा की ढ़ांचागत कमी है और इसका मांग की परिस्थितियों से कोई लेना देना नहीं है. वियतनाम के कपड़ा उद्योग के निर्यात वृद्धि के लिए हम लोग तर्क दे सकते हैं कि आसियान के टाइगर इकॉनमी के कारण यह संभव है. लेकिन बांग्लादेश और श्रीलंका से भी भारतीय कपड़ा उद्योग का पिछड़ जाना, इसके कई गंभीर मूलभूत समस्याओं की ओर हमारा ध्यानाकर्षण कर रहा है.
दरअसल सरकार को समझना होगा कि रोजगार विहीनता विकास हमें आर्थिक असमानता की गहरी खाई की ओर अग्रसर करेगी. हमें विकास को रोजगारपरक बनाना होगा. इसके लिए आवश्यक है कि सरकार रोजगार प्रदान करने वाले विशिष्ट क्षेत्रों की पहचान करे तथा उसे प्राथमिकता भी प्रदान करें. उद्योग जगत की यह शिकायत भी है कि वस्तु एवं सेवा कर के आगमन के बाद से करों के मामलों में उसकी स्थिति थोड़ी कमजोर हुई है. कपड़ा और वस्त्र उद्योग के साथ दिक्कत यह भी है कि हमारी फैक्टरियां प्रतिस्पर्धी देशों की तुलना में निहायत छोटी हैं. इससे लागत बढ़ती है और छोटे ऑर्डर से निपटने या नई तरह की इन्वेंट्री तैयार करने में दिक्कत होती है. आंकड़े बताते हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था के स्वरोजगार में खासी कमी आई है और उसके स्थानों पर दिहाड़ी मजदूरों की संख्या में वृद्धि हुई है. एक तरफ जीडीपी तेजी से बढ़ रही है, लेकिन रोजगार में वृद्धि तो दूर, कमी ही दिखाई दे रही है. तो फिर इसे रोजगार विहीन विकास कहना अनुचित नहीं होगा. आवश्यक है कि हमलोग अपने विकास को रोजगारोन्मुखी भी बनाएं.
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