गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स यानी जीएसटी के तहत अबतक लगभग 11.18 लाख लोगों ने ऑनलाइन ई-वे बिल पोर्टल से रजिस्ट्रेशन कराया है. स्थानीय टैक्स के भुगतान के लिए राज्य की सीमाओं के बाहर ट्रकों की लंबी कतारें लगने वाले दिन अब गए. अब एक पोर्टल से पेमेंट का सिस्टम आ गया है, जो न केवल ट्रांसपोर्टरों के जीवन को आसान बनाने का वादा करता है, बल्कि टैक्स ऑथोरिटी के लोगों को भी अंतर्राज्यीय और अंतर-राज्य दोनों ही जगहों पर माल की आवाजाही को ट्रैक करने में मदद करेगा.
तो क्या ई-वे बिल के कार्यान्वयन से कर चोरी का अंत हो गया है?
ई-वे बिल पोर्टल में पंजीकृत 11.18 लाख करदाता बड़े पैमाने पर असंगठित क्षेत्र के वे लोग हैं जिन्हें टैक्स भरना होता है. लेकिन अगर देश के छोटे बाजारों में एक बार घूमकर देखते हैं तो पाएंगे कि वहां हजारों सफल स्थानीय व्यवसायी हैं. लेकिन वो कभी भी किसी भी तरह का टैक्स नहीं भरते. अब अगर आप ये सोच रहे थे कि इस तरह के सभी असंगठित बिजनेस, जीएसटी के आने के बाद खत्म हो जाएंगे या फिर कर के दायरे में आ जाएंगे तो वो सिर्फ एक सपना था. हमारी भारतीय जुगाड़ मानसिकता उन्हें हर टैक्स संबंधी चुनौती से जूझने में मदद करती है और वो सफल भी होते हैं.
अपने स्थानीय फूड ब्रांड के लिए जाना जाने वाला इंदौर शहर, मध्यप्रदेश का बिजनेस हब है. आप वहां किसी भी दुकान में 'नमकीन' खरीदने के लिए जाइए. दुकान में लेज़, बिंगो जैसे ब्रांड तो मौजूद होंगे ही साथ में मोटू पतलू, पेट पूजा, ऑल इज वेल जैसे लोकल ब्रांड की भी भरमार दिखेगी. अधिकतर मामलों में, इन स्थानीय ब्रांड के खरीदार अधिक होते हैं. कारण साफ है कि वे अपनी कीमतें ब्रांडेड चीजों से कम रखते हैं, उत्पाद का वजन भी अधिक होता है और साथ ही साथ रिटेलर को ज्यादा मार्जिन देकर ये उन्हें खुश भी रखते हैं. लेकिन एक स्थानीय थोक व्यापारी का कहना है कि इन ब्रांडों में से कोई भी टैक्स नहीं देता. यहां तक की टैक्स से बचने के लिए ये लोग बिलिंग भी नहीं करते.
व्यापारियों को टैक्स देने की आदत नहीं है बस इसलिए वो टैक्स नहीं भरते.. फायदा कुछ भी नहीं मिलता
इंदौर के एक स्थानीय रिटेल व्यापारी का कहना है कि- पिछले साल जुलाई में जीएसटी की घोषणा होने के बाद कई स्थानीय ब्रांड घबराहट में एक महीने से ज्यादा समय तक बाजार से बाहर चले गए थे. लेकिन अब सिस्टम में खामियों का पता लगाकर और उसका तोड़ खोजकर ये फिर से बाजार में वापस आ गए हैं. अब इनमें से ज्यादातर ब्रांड ने अब अपने उत्पादों के 10-15 फीसदी के लिए बिल बनाने शुरू कर दिया है, अपना ज्यादातर माल अभी भी असंगठित तरीके से ही बेचते हैं. इंदौर स्थित एक प्रसिद्ध फूड ब्रांड के वितरक यानी डिस्ट्रीब्यूटर का कहना है, "मुझे पता नहीं है कि इस तरह से वे कबतक अपना धंधा कर पाएंगे. लेकिन स्थानीय ब्रांडों में से कोई भी संगठित तरीके से बिजनेस नहीं कर रहा है."
जब ई-वे बिल की टेस्टिंग ही चल रही थी तभी से ही ज्यादातर लोकल ब्रांड पोर्टल पर रजिस्ट्रेशन कराने से बचने के उपाय खोजने लगे थे. ये वितरक बताते हैं कि एक प्रचलित 'नमकीन' ब्रांड ने टैक्स से बचने के लिए अपने प्रोडक्ट को वोल्वो बसों के द्वारा भेजना शुरु कर दिया है. वहीं कई लोग दूधवालों के जरिए अपने उत्पादों को वितरीत करते हैं.
इसी तरह, इंदौर के बाहर राउ शहर में एक डिटर्जेंट निर्माता के पास जीएसटी नंबर होने के बावजूद मुश्किलें कम नहीं हैं. वह सही तरीके से व्यवसाय करने में सक्षम नहीं है क्योंकि उसके कच्चे माल के सप्लायर उसे बिल देने से मना करते हैं. उनका कहना है कि- "अगर मैं बिलिंग पर जोर देता हूं तो थोक व्यापारी भी मेरे उत्पादों को खरीदने से मना करते हैं. क्योंकि मैं बहुत ही छोटा निर्माता हूं."
तो, क्या टैक्स से बचने या उचित तरीके से बिजनेस नहीं करने से उन्हें सच में अधिक मुनाफा होता है? डिटर्जेंट निर्माता का कहना है कि, "नहीं. दोनों में कोई फर्क नहीं है. लेकिन क्योंकि लोगों को टैक्स देने की आदत नहीं है बस इसलिए वो इससे बचते हैं."
लेकिन ऐसा नहीं है कि बिल के बगैर बिजनेस करने का ये चलन सिर्फ छोटे शहरों तक ही सीमित है बल्कि बड़े शहरों में भी इसका खूब चलन है. देश की आर्थिक राजधानी मुंबई के थोक बाजार, क्रॉफर्ड मार्केट में चले जाइए. यहां के व्यापारियों को बगैर बिल बनाए नकद लेनदेन करने में खुशी होती है. वे बिना बिल के लेनदेन करने पर जोर देते हैं. यही नहीं ग्राहकों को कैश में सामान लेने के लिए वो जीएसटी नहीं लेने का लालच भी देते हैं.
क्या जीएसटी और ई-वे बिल इन स्थानीय ब्रैंड को टैक्स के दायरे में लाने में सफल हो पाएगा? ये तो समय ही बताएगा. अभी तक तो ज्यादातर स्थानीय बिजनेस इनके दायरे से बाहर रहने के तरीके खोजने में व्यस्त हैं.
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