रुपए ने अब अपना रिकॉर्ड स्तर छू लिया है. इस वाक्य का अर्थ गलत मत निकालिएगा, दरअसल रिकॉर्ड स्तर निचले स्थान पर छुआ है. हाल ही में रुपया 70.08 प्रति डॉलर पर ट्रेड कर रहा था और आज़ादी यानी 1947 के बाद से रुपए ने 21 गुना नुकसान उठाया है यानी 2000% नीचे लुढ़का है. 1948 में 1 डॉलर 4 रुपए में मिलता था और अब 71 साल बाद ये 70 रुपए हो गया है. पर ऐसा क्या हुआ कि भारतीय अर्थव्यवस्था की हालत ऐसी हो गई और रुपया इतना गिर गया.
पहला विदेशी कर्ज..
आज़ादी के समय भारत की बैलेंस शीट में किसी भी तरह का कोई भी विदेशी कर्ज नहीं था. 1951 के बाद पंच वर्षीय योजना के तहत भारत ने विदेशी कर्ज लेना शुरू किया. उस समय तक भी रुपए को पाउंड की तरह देखा जाता था, लेकिन 18 सितंबर 1949 को पाउंट स्टर्लिंग की वैल्यू कम होने के बाद रुपए की जमीन भी खिसकने लगी और रुपए की कीमत कम हो गई.
1960 तक संघर्ष का पहला दशक..
बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था होने के कारण भारत के लिए ये आसान नहीं था कि वो अपने आयात कम कर सके. इससे लगातार पेमेंट करने की क्षमता कम होती रही. 1960 में बढ़ते विदेशी कर्ज और आयात के बावजूद भारत ने अगले एक दशक तक मामला काबू में रखा. IANS के मुताबिक रुपया 4.79 प्रति डॉलर के रेट में 1950 और 60 के दशक में रहा. उस दौरान लगातार मिलने वाली बाह्य मदद के कारण रुपए की गिरावट कम रही.
युद्ध और सूखे में फंसा रुपया..
1965 के आस-पास हालात बिगड़ने लगे. एक तरफ तो सरकार का बजट पहले ही गड़बड़ था, दूसरा सरकार के पास कोई भी सेविंग नहीं थी. इसके अलावा, इंडो-चाइना 1962 की जंग और उसके बाद इंडो-पाक जंग की तैयारी ने सेना का बजट बहुत बढ़ा दिया था. इसी के साथ, विदेशी मदद मिलनी भी बंद हो गई थी और उस...
रुपए ने अब अपना रिकॉर्ड स्तर छू लिया है. इस वाक्य का अर्थ गलत मत निकालिएगा, दरअसल रिकॉर्ड स्तर निचले स्थान पर छुआ है. हाल ही में रुपया 70.08 प्रति डॉलर पर ट्रेड कर रहा था और आज़ादी यानी 1947 के बाद से रुपए ने 21 गुना नुकसान उठाया है यानी 2000% नीचे लुढ़का है. 1948 में 1 डॉलर 4 रुपए में मिलता था और अब 71 साल बाद ये 70 रुपए हो गया है. पर ऐसा क्या हुआ कि भारतीय अर्थव्यवस्था की हालत ऐसी हो गई और रुपया इतना गिर गया.
पहला विदेशी कर्ज..
आज़ादी के समय भारत की बैलेंस शीट में किसी भी तरह का कोई भी विदेशी कर्ज नहीं था. 1951 के बाद पंच वर्षीय योजना के तहत भारत ने विदेशी कर्ज लेना शुरू किया. उस समय तक भी रुपए को पाउंड की तरह देखा जाता था, लेकिन 18 सितंबर 1949 को पाउंट स्टर्लिंग की वैल्यू कम होने के बाद रुपए की जमीन भी खिसकने लगी और रुपए की कीमत कम हो गई.
1960 तक संघर्ष का पहला दशक..
बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था होने के कारण भारत के लिए ये आसान नहीं था कि वो अपने आयात कम कर सके. इससे लगातार पेमेंट करने की क्षमता कम होती रही. 1960 में बढ़ते विदेशी कर्ज और आयात के बावजूद भारत ने अगले एक दशक तक मामला काबू में रखा. IANS के मुताबिक रुपया 4.79 प्रति डॉलर के रेट में 1950 और 60 के दशक में रहा. उस दौरान लगातार मिलने वाली बाह्य मदद के कारण रुपए की गिरावट कम रही.
युद्ध और सूखे में फंसा रुपया..
1965 के आस-पास हालात बिगड़ने लगे. एक तरफ तो सरकार का बजट पहले ही गड़बड़ था, दूसरा सरकार के पास कोई भी सेविंग नहीं थी. इसके अलावा, इंडो-चाइना 1962 की जंग और उसके बाद इंडो-पाक जंग की तैयारी ने सेना का बजट बहुत बढ़ा दिया था. इसी के साथ, विदेशी मदद मिलनी भी बंद हो गई थी और उस समय रुपया टूटकर 7.57 प्रति डॉलर पर चला गया था. ये दौर था 1966 का और रुपए में 58 प्रतिशत की गिरावट थी.
वैश्विक समस्याएं..
अगले 25 सालों में रुपए की कीमत धीरे-धीरे गिरती रही. 1971 में रुपए और पाउंड के बीच का संबंध लगभग खत्म हो गया और इसे सीधे तौर पर डॉलर से लिंक कर दिया गया. ऐसा कई कारणों से हुआ, जैसे भारतीय अर्थव्यवस्था की धीमी हालत, राजनैतिक स्तर पर असुरक्षा साथ ही वैश्विक समस्याएं जैसे 1973 का अरब तेल संकट जिसके कारण भारत के व्यापार में और ज्यादा घाटा हो गया था.
ज्यादा घाटे का ये मतलब रहा कि भारत को डॉलर की जरूरत पड़ी अपने बिल भरने के लिए. इससे रुपए की कीमत और गिरी. 1985 तक रुपया डॉलर के मुकाबले 12.34 पर पहुंच गया था.
1990 का वो शर्मनाक साल..
पहला खाड़ी युद्ध 1990 को हुआ था. इसके कारण तेल की कीमतें काफी बढ़ गईं. ग्लोबल क्रेडिट रेटिंग एजेंसी, सोवियत यूनियन का टूटना और भारत पर कर्ज होना ये सब उस दौर में महंगाई बढ़ने और रुपए की कीमत घटाने के लिए दोषी थे. जून 1991 में भारत का विदेशी मुद्रा भंडार गिरकर 1124 मिलियन डॉलर हो गया. ये सिर्फ तीन हफ्तों के आयात के लिए ही काफी था. इसके कारण 18.5% तक रुपए की कीमत गिर गई और इस दौर में रुपया 26 प्रति डॉलर पहुंच गया. नतीजा रुपए का अवमूल्यन करना पड़ा और विदेशी मुद्रा के लिए सोना गिरवी रखना पड़ा.
सालाना गिरावट
1993 में सरकार ने एक संयुक्त एक्सचेंज रेट बनाया. रुपए को आज़ादी मिली. एक्सचेंज रेट तय करने के बाद सरकार ने रुपया को बाजार के हवाले कर दिया. रुपए की कीमत तय करने में RBI का दखल सिर्फ इमरजेंसी (अस्थिरता) वाले हालात के लिए रखा गया. नतीजा ये हुआ कि रुपया 31.37 प्रति डॉलर पर पहुंच गया. अगले एक दशक तक रुपए ने सालाना लगभग 5% की गिरावट दर्ज की. 2002-03 के दौरान यह एक डॉलर के मुकाबले 48.40 रुपए पर खड़ा था.
इसके बाद एक दौर ऐसा आया कि रुपया डॉलर के मुकाबले चढ़ने लगा. यह वो दौर था, जब भारत में FDI का फ्लो काफी बढ़ गया था. उस दौरान स्टॉक मार्केट भी काफी तेज़ हो गया. आईटी और बीपीओ इंडस्ट्री तरक्की करने लगी.
वैश्विक आर्थिक संकट
2007 में रुपए ने डॉलर के खिलाफ 39 का आंकड़ा पार किया. लेकिन 2008 के संकट ने इसे और गिरा दिया और इसी के साथ रुपए ने 51 का आंकड़ा छुआ. उसके बाद 2012 में सरकार का बजट और गड़बड़ाया इस समय स्थिती ग्रीस-स्पेन कर्ज संकट के कारण बिगड़ी और रुपया 56 पर पहुंच गया.
अनियंत्रित तेल की कीमतों और विदेशी आयात के कारण रुपया और गिरा. वैश्विक आर्थिक संकटों में इस बार तुर्की का नाम है जिसकी वजह से रुपया 70 पार कर गया है.
ये भी पढ़ें-
रुपया गिरकर 70 के नीचे, अब समझिए किस पर कितना असर
नीरव तो 'निवृत्त' हो गया लेकिन PNB का 'घर' बिक गया
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.