मेरी बात लंबी है मगर आसान है. कुछ ज्ञान खास लोगों तक ही सीमित रहता है इसलिए आम लोग उससे वंचित रह जाते हैं. इकोनॉमिक्स ऐसी ही बला है. इसे समझने में मेहनत करनी पड़ती है और उससे मैं शुरू से बचता रहा हूं. काफी बाद में समझ आया कि देश के कर्ताधर्ता दिखाएं भले जो भी, लेकिन उनकी सारी नीतियां पूंजीपतियों के फायदे के ईर्दगिर्द ही घूमा करती हैं. देश का आम आदमी सीधी बात समझता है लेकिन ना राजनीति इतनी सीधी है और ना अर्थशास्त्र इतना सरल. नोटबंदी जैसी चीज़ को प्रधानमंत्री ने काला धन से जोड़कर आम वोटर को फैसले से राजी करा लिया. लेकिन क्या इस फैसले के और आयाम नहीं हैं?
नोटबंदी के जो नतीजे आए हैं वो बेहद निराशाजनक हैं |
मैं अर्थशास्त्री नहीं हूं मगर रोज कुछ ना कुछ पढ़ने समझने और जानने की कोशिश में जुटा हूं. शुरू से ही मैंने माना है कि सरकार का ये फैसला साहसी है, लेकिन 'ईमानदारी के इस महापर्व' के पखवाड़ा बीतने के आसपास मैं ये और जोड़ूंगा कि अगर आपको फैसले से होनेवाले निगेटिव प्रभावों की चिंता ही ना करनी पड़े तो फिर कोई भी सरकार या इंसान ऐसे फैसले कर ही सकता है.
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इस नोटबंदी से कालाधन रुकेगा या नहीं, रुकेगा तो कितना रुकेगा, उसे कब तक रोका जा सकेगा जैसे सवालों के जवाब बस अनुमान पर आधारित हैं, लेकिन कुछ बातें ऐसी हैं जो अभी से सामने हैं. उन्हें आप...
मेरी बात लंबी है मगर आसान है. कुछ ज्ञान खास लोगों तक ही सीमित रहता है इसलिए आम लोग उससे वंचित रह जाते हैं. इकोनॉमिक्स ऐसी ही बला है. इसे समझने में मेहनत करनी पड़ती है और उससे मैं शुरू से बचता रहा हूं. काफी बाद में समझ आया कि देश के कर्ताधर्ता दिखाएं भले जो भी, लेकिन उनकी सारी नीतियां पूंजीपतियों के फायदे के ईर्दगिर्द ही घूमा करती हैं. देश का आम आदमी सीधी बात समझता है लेकिन ना राजनीति इतनी सीधी है और ना अर्थशास्त्र इतना सरल. नोटबंदी जैसी चीज़ को प्रधानमंत्री ने काला धन से जोड़कर आम वोटर को फैसले से राजी करा लिया. लेकिन क्या इस फैसले के और आयाम नहीं हैं?
नोटबंदी के जो नतीजे आए हैं वो बेहद निराशाजनक हैं |
मैं अर्थशास्त्री नहीं हूं मगर रोज कुछ ना कुछ पढ़ने समझने और जानने की कोशिश में जुटा हूं. शुरू से ही मैंने माना है कि सरकार का ये फैसला साहसी है, लेकिन 'ईमानदारी के इस महापर्व' के पखवाड़ा बीतने के आसपास मैं ये और जोड़ूंगा कि अगर आपको फैसले से होनेवाले निगेटिव प्रभावों की चिंता ही ना करनी पड़े तो फिर कोई भी सरकार या इंसान ऐसे फैसले कर ही सकता है.
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इस नोटबंदी से कालाधन रुकेगा या नहीं, रुकेगा तो कितना रुकेगा, उसे कब तक रोका जा सकेगा जैसे सवालों के जवाब बस अनुमान पर आधारित हैं, लेकिन कुछ बातें ऐसी हैं जो अभी से सामने हैं. उन्हें आप राष्ट्रवाद जैसी भावना की आड़ में अनदेखा नहीं कर सकते. बुनियादी ज़रूरतों के सामने भावुक सवाल ज़्यादा देर वैसे भी नहीं ठहरते. ऐसी ही एक बात बिलकुल सामने ये है कि नोटबंदी के फिलहाल जो नतीजे आए हैं वो बेहद निराशाजनक हैं.
आपको किसी पर भरोसा करने की ज़रूरत नहीं है, बस खुद ही बाज़ार तक हो आइए. किसी छोटे व्यापारी से बात कीजिए या ठेलेवाले से हाल जानिए. कम से कम 75 फीसदी व्यापार प्रभावित हुआ है. नौकरीपेशाओं की बात नहीं कर रहे मगर एक बहुत बड़ा तबका छोटे-मोटे व्यापार से ही पेट भरता है. नोटबंदी की असामान्य घटना से पैदा हुए हालात जब तक नहीं सुधरेंगे तब तक ये तबका घाटा खाने को मजबूर है.
ये एक बिलकुल अलग बात है कि वो इस नीति का समर्थन राष्ट्रहित के नाम पर कर दें, जो सरकार का असल ट्रंप कार्ड है. नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी के प्रोफेसर अजय शाह ने तो अपने एक लेख में इस फैसले से मंदी आने का अंदेशा भी जताया है. वो अपने लेख में अमेरिका का उदाहरण देते हैं जहां खराब मौद्रिक नीतियों ने अर्थव्यवस्था को बुरी तरह प्रभावित किया था.
अमेरिकी केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व की गलतियों के चलते 1929 से 1933 के बीच देश की मौद्रिक आपूर्ति में 30 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई थी जिसके चलते वैश्विक मंदी की शुरुआत हुई थी. अजय शाह ने लिखा है कि इस पैमाने से देखा जाए तो हमारी मुद्रा आपूर्ति को लगा यह झटका अर्थव्यवस्था को बुरी तरह प्रभावित कर सकता है. शाह ये लिखकर डरा देते हैं कि यह झटका पूरी अर्थव्यवस्था को प्रभावित करेगा. सभी फर्मों को खरीद की दिक्कत से जूझना पड़ रहा है. संगठित क्षेत्र भी इससे बचा नहीं है. नतीजा दोपहिया वाहनों की बिक्री में गिरावट आना तय है. इससे आगे मांग पर और बुरा असर होगा. देश के दूरदराज इलाकों में हालात का और बुरा होना तय है. शहरी लोग तो अपने डेबिट कार्ड की मदद से खाना और ई-वॉलेट की मदद से कैब बुक करने में सक्षम हैं लेकिन सामान्य रेस्तरां और टैक्सी चालकों की हालत खस्ता है क्योंकि वे ई-भुगतान नहीं लेते. बीमारू कहे जाने वाले राज्यों में इस आर्थिक झटके का प्रभाव कहीं अधिक व्यापक होगा. धीरे-धीरे यह पूरे देश में फैलेगा.
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देश की प्रतिष्ठित बिज़नेस न्यूज़ वेबसाइट मनी कंट्रोल शाह की बात की पुष्टि करती है. खबर है कि दिल्ली-एनसीआर के मायापुरी, ओखला फेज-2 और नारायणा जैसे इंडस्ट्रियल इलाकों में करीब 800 लोग तो महज 8 ही दिन में बेरोजगार हो गए हैं. स्टॉक क्लीयर न होने की वजह से कंपनियों ने प्रोडक्शन बंद कर रखा है और कर्मचारियों को छुट्टी पर जबरन भेजा जा रहा है. बाकी जगह के हालात आप खद गूगल कर लें या फिर छुट्टी के दिन किसी झुग्गी तक घूम आएं.
वहीं शेयर बाजार भी हताश है. दलाल स्ट्रीट के बिग बुल राकेश झुनझुनवाला के स्टॉक पोर्टफोलियो की वैल्यू इस साल 1 नवंबर के बाद से 1,400 करोड़ रुपये घट चुकी है. औरों का भी हाल जुदा नहीं. विदेशी निवेशकों की बाजार में लगातार बिकवाली ने रुपये को कमजोर करके 68 पर पहुंचा दिया है. यानि अब एक डॉलर 68 रुपयों के बराबर है. RBI ने आज ही कहा है कि देश का विदेशी मुद्रा भंडार 11 नवंबर को खत्म हो रहे हफ्ते में 1.190 अरब डॉलर घटकर 367.041 अरब डॉलर रह गया है.
जब कभी कोई देश विमुद्रीकरण करता है तो दुनिया में उसकी साख गिरती ही है ये बेहद आम बात है. जीडीपी की भाषा समझने वाले ये भी समझें कि भारत इस बार वृद्धि दर के मामले में पिछड़ने जा रहा है. 2017 वित्त वर्ष में भारत की घरेलू अर्थव्यवस्था साढ़े 7 फीसदी की दर से बढ़ रही थी. 2015-16 में भारत ने दूसरी बार इस लिहाज से चीन को पछाड़ दिया था मगर नोटबंदी के बाद इस वित्त वर्ष में भारत की जीडीपी ग्रोथ साढ़े 3 फीसदी तक गिरने का अनुमान है जबकि चीन 6.7 फीसदी की दर से बढ़ रहा है.
वैसे इस बीच एक बात बताता चलूं कि चीन विरोध के इस दौर में नोटबंदी का फैसला करने के बाद हम चीन से ही एटीएम मशीन के पुरजे खरीद रहे हैं. 500 और 2000 के नए नोट मशीनों में इन पुर्जों के फिट होने के ही बाद रखे जा सकेंगे.
बहरहाल इस लेख को लंबा नहीं करूंगा वरना नोटबंदी के नुकसान में उन मौत के आंकड़े भी रखना चाहता हूं जो इस दौरान हुईं. वजहें भले ही अलग रहीं लेकिन तार सबके नोटबंदी से जुड़े हैं. मीडिया रिपोर्ट्स का तो यही दावा है. उन बीमारों की संख्या भी आप खुद जोड़ लें जिनका इलाज नहीं हो पा रहा. कलकत्ता हाईकोर्ट के जज ने तो साफ-साफ कह भी दिया कि उनके बेटे को डेंगू है लेकिन अस्पताल कैश लेने को राजी नहीं. उन्होंने तल्खी से कहा कि सरकार ने नोटबंदी के फैसले में ठीक से दिमाग का इस्तेमाल नहीं किया है. रोज़-रोज़ बदले जा रहे फैसलों से लग रहा है कि सरकार ने फैसले से पहले कोई होमवर्क भी नहीं किया था.
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दूसरी तरह सुप्रीम कोर्ट ने भी सरकार से कहा है कि स्थिति अब गंभीर है और दंगे जैसे हालात बन रहे हैं. खैर, ये लेख कालाधन रुक पाने या ना रुक पाने पर तो नहीं है लेकिन फिर भी आखिर में 1978 में विमुद्रीकरण लागू होने के वक्त रिजर्व बैंक के गवर्नर रहे आईजी पटेल की बात आपसे बांटुंगा,जिन्होंने कहा था कि सूटकेस और तकिये के भीतर काले धन के दबे होने की सोच अपने आप में काफी सरल है.
ज़ाहिर है, फिलहाल तो ऐसी ही सरल सोच से काम लिया जा रहा है, तभी असली कालेधन जो विदेशी बैंकों के लॉकर में छिपा है उस पर बात करने से सरकार और उसके साथी बचने लगे हैं.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.