भारत अपने ट्रांसपोर्ट सेक्टर को प्रदूषण मुक्त करने की दिशा में काम करते हुए ई-कारों की ओर स्विच कर रहा है. हालांकि, इस लक्ष्य को हासिल करना इतना आसान नहीं होगा. ई-कारों को जिन लीथियम आयन बैट्रीज से एनर्जी मिलती है, उन्हें बनाना भी अपने आप में एक चुनौती है. पहले तो उसकी कीमत पर काम करना होगा और दूसरा उसकी उपलब्धता को ध्यान में रखना होगा, जैसा चीन ने किया. यहां सवाल ये उठता है कि आखिर चीन ने ये कैसे किया?
R&D पर चीन ने झोंक दी पूरी ताकत
2000 की शुरुआत से ही चीन ने रिसर्च और डेवलपमेंट पर तेजी से खर्च करना शुरू किया. 2000 में जो चीन रिसर्च पर 9 अरब डॉलर खर्च करता था, वह 2018 आते-आते 293 अरब डॉलर खर्च करने लगा. इसी के साथ वह अमेरिका के बाद रिसर्च और डेवलपमेंट पर दुनिया में सबसे अधिक खर्च करने वाला दूसरा देश बन गया. उसने विदेशी तकनीक से निर्भरता को तेजी से घटाया. जैसे चीन ने 13 साल तक जापान और कोरिया की कंपनियों के साथ मिलकर एलसीडी पैनल बनाए, उसके बाद उसने खुद से एलसीडी पैनल बनाने शुरू किए और 2016 में वह दुनिया में एलसीडी बनाने वाला दूसरा सबसे बड़ा देश बन गया. इसी तरह 2004 में चीन ने बहुत सारी विदशी कंपनियों के साथ मिलकर हाई स्पीड ट्रेन के लिए टेक्नोलॉजी ट्रांसफर पर काम किया और 2017 उसने खुद की ऐसी सुपीरियर टेक्नोलॉजी विकसित कर ली कि वह हाई स्पीड ट्रेन बनाने लगा.
सोलर पावर में हम आगे तो हुए, लेकिन विदेशों की बदौलत
अब भारत ने भी इस साल ये दावा किया है कि हम दुनिया में सबसे सस्ती सोलर पावर एनर्जी पैदा करने वाले देश बन गए हैं. लेकिन ध्यान देने वाली बात ये है कि ये बढ़ोत्तरी 2015-18 के बीच में हुई है. ये वही समय है, जब...
भारत अपने ट्रांसपोर्ट सेक्टर को प्रदूषण मुक्त करने की दिशा में काम करते हुए ई-कारों की ओर स्विच कर रहा है. हालांकि, इस लक्ष्य को हासिल करना इतना आसान नहीं होगा. ई-कारों को जिन लीथियम आयन बैट्रीज से एनर्जी मिलती है, उन्हें बनाना भी अपने आप में एक चुनौती है. पहले तो उसकी कीमत पर काम करना होगा और दूसरा उसकी उपलब्धता को ध्यान में रखना होगा, जैसा चीन ने किया. यहां सवाल ये उठता है कि आखिर चीन ने ये कैसे किया?
R&D पर चीन ने झोंक दी पूरी ताकत
2000 की शुरुआत से ही चीन ने रिसर्च और डेवलपमेंट पर तेजी से खर्च करना शुरू किया. 2000 में जो चीन रिसर्च पर 9 अरब डॉलर खर्च करता था, वह 2018 आते-आते 293 अरब डॉलर खर्च करने लगा. इसी के साथ वह अमेरिका के बाद रिसर्च और डेवलपमेंट पर दुनिया में सबसे अधिक खर्च करने वाला दूसरा देश बन गया. उसने विदेशी तकनीक से निर्भरता को तेजी से घटाया. जैसे चीन ने 13 साल तक जापान और कोरिया की कंपनियों के साथ मिलकर एलसीडी पैनल बनाए, उसके बाद उसने खुद से एलसीडी पैनल बनाने शुरू किए और 2016 में वह दुनिया में एलसीडी बनाने वाला दूसरा सबसे बड़ा देश बन गया. इसी तरह 2004 में चीन ने बहुत सारी विदशी कंपनियों के साथ मिलकर हाई स्पीड ट्रेन के लिए टेक्नोलॉजी ट्रांसफर पर काम किया और 2017 उसने खुद की ऐसी सुपीरियर टेक्नोलॉजी विकसित कर ली कि वह हाई स्पीड ट्रेन बनाने लगा.
सोलर पावर में हम आगे तो हुए, लेकिन विदेशों की बदौलत
अब भारत ने भी इस साल ये दावा किया है कि हम दुनिया में सबसे सस्ती सोलर पावर एनर्जी पैदा करने वाले देश बन गए हैं. लेकिन ध्यान देने वाली बात ये है कि ये बढ़ोत्तरी 2015-18 के बीच में हुई है. ये वही समय है, जब अमेरिका ने भारत में क्लीन एनर्जी के लिए अरबों डॉलर के प्रोग्राम चलाए थे. साथ ही, यही वो समय है, जब रीन्यूएबल एनर्जी में चीन का निवेश तेजी से बढ़ा. आपको बता दें कि 2017 तक के अनुसार पूरी दुनिया की रीन्यूएबल एनर्जी में करीब 45 फीसदी तो सिर्फ चीन का निवेश है. साथ ही, पिछले साल भारत में जितना सोलर सेल आयात किया गया, उसका 89 फीसदी सिर्फ चीन से आया था. 2015-18 के इसी समय में भारत की सोलर क्षमता बढ़कर 21.5 गिगावॉट हो गई, जो 2015 से पहले 3.7 गिगावॉट थी.
अगर भारत में पूरे साल सूरज नहीं चमकता तो भारत के लिए भी उस समय एनर्जी के बारे में सोचना मुश्किल होता, जब सूरज नहीं चमकता. उसी तरह, जैसे अमेरिका जैसे विकसित देशों में होता है. यहां पर ही लीथियम की जरूरत महसूस होती है. लीथियम हल्का होता है, जो काफी सारी एनर्जी को स्टोर कर सकता है और बहुत अधिक बार रिचार्ज हो सकता है, जो आज की ग्रीन टेक्नोलॉजी के लिए बेहद शानदार है. इसमें कोई शक नहीं है कि 2017 में लीथियम की जितनी मांग थी, उसकी तुलना में आने वाले 6 सालों में इसकी मांग करीब 3 गुना तक बढ़ेगी. चीन दुनिया का सबसे बड़ा लीथियम प्रोड्यूसर नहीं हैं, लेकिन अगर बात आती है लीथियम सप्लाई करने की तो चीन की तकनीक इसे बाकी दुनिया से काफी सस्ता बना देती है. ऐसे में चीन लीथियम सप्लाई करने में दुनिया के बाजार पर एक अच्छी पकड़ रखे हुए है. आपको बता दें कि 2010 में लीथियम आयन बैट्रियों की कीमत प्रति किलोवॉट करीब 1000 डॉलर थी, जो 2024 तक घटकर करीब 100 डॉलर प्रति किलोवॉट रह जाने की उम्मीद है. आपको बता दें कि पिछले साल इसकी कीमत 176 डॉलर प्रति किलोवॉट थी.
लीथियम के लिए विदेशी तकनीक पर निर्भर है भारत
मौजूदा समय में भारत 100 फीसदी लीथियम आयन सेल आयात ही करता है, जिनसे ई-कार की बैट्रियां बनती हैं. हालांकि, भारत ने बोलिवियन सरकार के साथ लीथियम की जरूरत को पूरा करने के लिए समझौता किया है, जो दुनिया का करीब एक चौथाई लीथियम प्रोड्यूस करता है. लेकिन सवाल ये है कि आखिर इसकी तकनीक हासिल किए बिना कब तक विदेशी सप्लाई पर निर्भर रहा जा सकता है? आखिर कब तक भारतीय कंपनियां लीथियम का किफायदी दरों में उत्पादन कर सकेंगी?
देश और विदेश में माइनिंग सेक्टर के अन्वेषण भूविज्ञानी बिप्लब चटर्जी के अनुसार अगर मेटल कंपाउंड से बैटरियां बनानी हैं तो पहले ऐसी तकनीक विकसित करनी होगी, जिस पर सिर्फ आपका ही मालिकाना हक हो. भारत के पास ऐसी तकनीक है ही नहीं. बल्कि पूरी दुनिया में सिर्फ कुछ ही कंपनियों के पास ये तकनीक है. वहीं दूसरी ओर, मिनरल सेक्टर पर सरकार ने अपनी पकड़ बनाई हुई है. वहीं ये भी सच है कि जिसे भूविज्ञानी जियोकैमिकल मैपिंग कहते हैं, जिसके जरिए ये पता लगाया जाता है कि कहां पर नए मिनरल्स हैं, वो काम भी अब तक सिर्फ 20 फीसदी ही पूरा हो सका है. यानी अभी 80 फीसदी बचा है, जिसे करने पर शायद भारत में ही लीथियम का भंडार मिल जाए. या हो सकता है कुछ ऐसा मिल जाए, जिससे भारत दुनिया में सबसे ऊपर हो जाए. यानी एक बात तो तय है कि जब तक भारत ई-कारों की लीथियम आयन बैट्रियां बनाने की तकनीक विकसित ना कर ले, तब तक ई-कारों की ओर स्विच करना, वो भी कम लागत के साथ... ये मुमकिन नहीं लगता.
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