26 अक्टूबर को मुंबई में एक लेक्चर देते हुए आरबीआई के डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने इस बात के संकेत दिये कि सरकार आरबीआई के काम में हस्तक्षेप कर रही है और उन्होंने कहा जो सरकार रिजर्व बैंक की स्वायत्ता का सम्मान नहीं करती उसे इसके गंभीर परिणाम भुगतने होते हैं. अगले दिन ये खबर सभी बड़े अखबारों के पहले पेज पर थी. महज 3 दिन पहले सीबीआई की स्वायत्ता को लेकर सरकार की किरकिरी हो चुकी थी. ऐसा भी माना जा रहा है कि सरकार ने रिजर्व बैंक को इस बाते के संकेत दिये हैं कि टकराव की स्थिति में सरकार रिजर्व बैंक एक्ट के सेक्शन 7 का इस्तेमाल कर सकती है जिसके तहत आरबीआई को सरकार की बात माननी ही होगी. विषय की संवेदनशीलता और सरकार की असहज स्थिति को भांपते हुए कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने ट्वीट करके प्रधानमंत्री पर निशाना साधा और इसे राजनैतिक रंग देने की कोशिश की.
तो क्या वास्तव में वर्तमान सरकार संस्थाओं की स्वायत्ता के साथ खिलवाड़ कर रही है? क्या देश में पहली बार कोई सरकार रिजर्व बैंक के साथ टकराव के रास्ते पर है?
सरकार और रिजर्व बैंक के रिश्ते को समझने के लिए थोड़ा इतिहास में पीछे जाते हैं-
भारत में रिजर्व बैंक का गठन अंग्रेजों के दौर में 1935 में हुआ था. ओसबर्न स्मिथ इसके पहले गवर्नर थे. लेकिन गवर्नर बनने के कुछ समय बाद ही उनके सरकार से मतभेद शुरू हो गये. वक्त के साथ मतभेद इतने बढ़े कि अपने कार्यकाल खत्म होने से काफी पहले उन्होंने इस्तीफा दे दिया. इस तरह बैंक के पहले गवर्नर की ही अपनी अंग्रेज सरकार से ठन गयी और इस्तीफा देकर जाना पड़ा.
1949 में सर बेनेगल रामा राउ आरबीआई के गवर्नर बने. सब कुछ ठीक चल रहा था. लेकिन 1957...
26 अक्टूबर को मुंबई में एक लेक्चर देते हुए आरबीआई के डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने इस बात के संकेत दिये कि सरकार आरबीआई के काम में हस्तक्षेप कर रही है और उन्होंने कहा जो सरकार रिजर्व बैंक की स्वायत्ता का सम्मान नहीं करती उसे इसके गंभीर परिणाम भुगतने होते हैं. अगले दिन ये खबर सभी बड़े अखबारों के पहले पेज पर थी. महज 3 दिन पहले सीबीआई की स्वायत्ता को लेकर सरकार की किरकिरी हो चुकी थी. ऐसा भी माना जा रहा है कि सरकार ने रिजर्व बैंक को इस बाते के संकेत दिये हैं कि टकराव की स्थिति में सरकार रिजर्व बैंक एक्ट के सेक्शन 7 का इस्तेमाल कर सकती है जिसके तहत आरबीआई को सरकार की बात माननी ही होगी. विषय की संवेदनशीलता और सरकार की असहज स्थिति को भांपते हुए कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने ट्वीट करके प्रधानमंत्री पर निशाना साधा और इसे राजनैतिक रंग देने की कोशिश की.
तो क्या वास्तव में वर्तमान सरकार संस्थाओं की स्वायत्ता के साथ खिलवाड़ कर रही है? क्या देश में पहली बार कोई सरकार रिजर्व बैंक के साथ टकराव के रास्ते पर है?
सरकार और रिजर्व बैंक के रिश्ते को समझने के लिए थोड़ा इतिहास में पीछे जाते हैं-
भारत में रिजर्व बैंक का गठन अंग्रेजों के दौर में 1935 में हुआ था. ओसबर्न स्मिथ इसके पहले गवर्नर थे. लेकिन गवर्नर बनने के कुछ समय बाद ही उनके सरकार से मतभेद शुरू हो गये. वक्त के साथ मतभेद इतने बढ़े कि अपने कार्यकाल खत्म होने से काफी पहले उन्होंने इस्तीफा दे दिया. इस तरह बैंक के पहले गवर्नर की ही अपनी अंग्रेज सरकार से ठन गयी और इस्तीफा देकर जाना पड़ा.
1949 में सर बेनेगल रामा राउ आरबीआई के गवर्नर बने. सब कुछ ठीक चल रहा था. लेकिन 1957 में टीटी कृष्णामाचारी वित्त मंत्री बने और यहीं से टकराव का दौर शुरू हो गया. ऐसा कहा जाता है कि वित्त मंत्री गवर्नर के साथ अक्सर दुर्व्यवहार करते थे. नीतियों को लेकर दोनों के बीच मतभेद रहता था. वित्तमंत्री ने गवर्नर से साफ कहा कि उन्हें ये समझना होगा कि आरबीआई सरकार का एक विभाग है और उसे ऐसे ही काम करना होगा. दोनों के बीच तनाव इतना बढ़ा कि सुलह के लिए प्रधानमंत्री नेहरू ने दोनों को बुलाया लेकिन वहां पर भी वित्तमंत्री ने गवर्नर से बदसलूकी की. गवर्नर ने इस्तीफा दे दिया लेकिन नेहरू ने समझा-बुझा के मना लिया. लेकिन वित्तमंत्री लगातार रिजर्व बैंक के काम में हस्तक्षेप करते रहे. और नेहरू जी ने हमेशा वित्तमंत्री का पक्ष लिया. नेहरू जी ने गवर्नर बेनेगल को चिठ्ठी लिखकर स्पष्ट किया कि रिजर्व बैंक को सरकार के हिसाब से चलना होगा. गवर्नर ने जवाब में नेहरू जी को लिखा कि अगर ऐसा है तो वो इस्तीफा देना पसंद करेंगे. नेहरू जी ने जवाब दिया कि ठीक है आप इस्तीफा दे दीजिये.
इसके बाद से आरबीआई हमेशा सरकार के हिसाब से चलती रही. लेकिन 1975 में फिर टकराव के हालात बन गये. संजय गांधी अपनी मारूति फैक्ट्री के लिए रिजर्व बैंक से क्रेडिट लिमिट बढ़वाना चाहते थे. लेकिन उस वक्त के गवर्नर जगन्नाथन ने ऐसा करने से मना कर दिया. टकराव के चलते जगन्नाथन को समय से पहले इस्तीफा देना पड़ा. जगन्नाथन के बाद केआर पुरी रिजर्व बैंक के गवर्नर बने और उन्होंने सबसे पहला काम मारूति के लिए क्रेडिट लिमिट बढ़ाने का किया.
कहा ये भी जाता है कि जब मनमोहन सिंह आरबीआई के गवर्नर थे तो उस वक्त के वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी से उनके मतभेद थे और वो इस्तीफा देना चाहते थे लेकिन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बीच-बचाव करके मनमोहन सिंह को मना लिया. यही नहीं मनमोहन सिंह रिजर्व बैंक के गवर्नर बनने से पहले जब सरकार के चीफ इकोनॉमिक एडवाइजर थे तो खुद उनके रिजर्व बैंक से मतभेद थे. 1990 में गवर्नर रहे आर एन मलहोत्रा ने उस वक्त के वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा से मतभेद के कारण इस्तीफा दे दिया था.
यूपीए 1 के दौरान गवर्नर रहे वाइ वी रेड्डी और यूपीए 2 के दौरान गवर्नर सुब्बाराव के वित्मंत्री चिदंबरम से गंभीर मतभेद रहे. 2012 में चिदंबरम और सुबाराव के बीच में मानिटरी पॉलिसी को लेकर इतना मतभेद था कि रिजर्व बैंक की मानिटरी पॉलिसी की छमाही घोषणा से 1 दिन पहले वित्तमंत्री ने प्रेस कांफ्रेस करके रिजर्व बैंक पर अपनी बात मनवाने का दबाव बनाने की कोशिश की. अगले दिन अपनी घोषणा में रिजर्व बैंक ने चिदंबरम की लोन दरो में कटौती के सुझाव को नामंजूर कर दिया. चिदंबरम इससे इतने दुखी हुए कि उन्होंने सार्वजनिक तौर पर अपनी नाखुशी का इजहार किया.
दरअसल फेजरल बैंक(रिजर्व बैंक) और सरकार के बीच मतभेद सिर्फ भारत में नहीं बल्कि दुनिया के ज्यादातर लोकतांत्रिक देशों में रहता है. अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने वहां के फेडरल बैंक के चेयरमैन की आलोचना कर चुके हैं. जर्मनी थाइलैंड, टर्की, अर्जेंटीना जैसे दुनिया के तमाम देशों में सरकार और मुख्य बैंक के बीच असहमति की खबरें आती रहती हैं.
दरअसल लगभग सभी मामलों में टकराव की मुख्य वजह फेडरल बैंक की क्रेडिट पॉलिसी होती है. लोकतंत्र में सरकारें राजनैतिक प्रक्रिया के तहत जनता के द्वारा चुनी जाती हैं इसलिये वो जनता के प्रति जवाबदेह होती हैं. उन्हें आर्थिक विकास और रोजगार को लेकर जनता के सवालों का सामना करना पड़ता है. इसलिये सभी देशों में सरकार चाहती हैं कि लोन दरें कम हों जिससे आर्थिक विकास दर और रोजगार सृजन में मदद मिले वही फेडरल बैंक महंगाई और अर्थव्यवस्था के अन्य मूलभूत आधार पर निर्णय लेता है. इसलिये वर्तमान सरकार और रिजर्व बैंक के बीच जो टकराव दिख रहा है वो ना तो पहली बार है और ना ही अंतिम बार. लेकिन बेहतर यही है कि सरकार और रिजर्व बैंक आपसी तालमेल और समन्वय से देशहित और जनहित के लिये काम करें. और एक दूसरे की जिम्मेदारी और भूमिका का सम्मान करें.
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