मेधा पाटकर को आखिर क्या चाहिए? तीन दशकों से यह औरत सड़कों पर है. हरसूद में 1989 की रैली के समय पहली बार मेधा का नाम देश के स्तर पर सुना गया था. वे इंदिरा सागर बांध की डूब में आ रहे गांवों के मसले को लेकर हरसूद आई थीं. एक बड़ी रैली में देश भर के हजारों सामाजिक कार्यकर्ताओं समेत कई जानी-मानी हस्तियां यहां जुटी थीं. इनमें मेनका गांधी, बाबा आमटे, सुंदरलाल बहुगुणा और वीसी शुक्ला वगैरह भी थे. हरसूद को हर हाल में बचाने के संकल्प की याद में एक विजय स्तंभ वहां स्थापित किया गया था. वरिष्ठ पत्रकार एनके सिंह तब इंडिया टुडे में थे. दो पेज की उनकी स्टोरी का हेडलाइन था- हार न मानने वालों का हौसला!
बाद में मेधा बेसहारा विस्थापितों की आवाज बन गईं. विकास की परियोजनाओं की चपेट में आकर बेदखल हो रहे लोगों ने उन्हें हर कहीं अपने बीच पाया. शहरों की गंदी बस्तियों में रहकर अपनी आजीविका कमा रही आबादी हो या गांव-पहाड़ों में खदानों और हाईवे के निर्माण से उखड़ने वाले गुमनाम लोग. मेधा ऐसी हर जगह पर पहुंची, जहां मानवीय विस्थापन सरकार के अमानवीय तौर-तरीकों का शिकार बना. तीस साल से नर्मदा बचाओ आंदोलन उनकी पहचान ही बन गया. नर्मदा घाटी में बन रहे बांधों की श्रृंखला ने थोक के भाव में गांव और आबादी बेदखल की. हरसूद जैसी बड़ी बस्ती समेत करीब ढाई सौ गांव इंदिरा सागर में समा गए. निसरपुर जैसे कस्बे के साथ करीब 190 गांव सरदार सरोवर की डूब में हैं. एक बांध मध्यप्रदेश में है. दूसरा गुजरात में. मगर पूरी डूब मध्यप्रदेश की है. ये हजारों करोड़ रुपए की लागत के पावर प्रोजेक्ट हैं, जिनसे पैदा होने वाली बिजली और जलाशयों का पानी बेतहाशा बढ़ती आबादी के लिए बेहद जरूरी है. इनमें सरकारों की पूरी ताकतें लगी हैं. पार्टियां कोई भी हों.
मैं 2004 से इस मसले से लगातार जुड़ा हूं. हमने हरसूद को बहुत करीब से देखा. अब बड़वानी भी देख लिया. इस बीच मध्यप्रदेश में व्यवस्था परिवर्तन का नारा बुलंद करके सत्ता में आई बीजेपी की सरकारें ही रहीं. केंद्र में ज्यादा समय यूपीए का झुंड था, जिसे 2014 में नरेंद्र मोदी ने उलट दिया. एक राज्य के दो सौ-ढाई सौ गांवों का दो बार में दस साल के भीतर डूबना किसे कहते हैं? शायद ही किसी राज्य के हिस्से में ऐसी मुसीबत आई हो. बांध सरकार की जरूरत हैं, उससे ज्यादा जिद हैं. मगर इससे जुड़ा मानवीय विस्थापन का सवाल उनके लिए उतना ही मायने नहीं रखता. जबकि सबसे अधिक मानवीय संवेदना की दरकार रखने की जहां जरूरत थी, वहां सरकार की भ्रष्ट मशीनरी ने दोनों मौकों पर क्या किया?
यह काम बहुत बेहतर ढंग से बहुत आसानी से हो सकता था. 2004 में इंदिरा सागर बांध के कारण जो हालात सामने आए थे, बेशक उसके लिए बहुत हद तक दिग्विजयसिंह जिम्मेदार थे, जिन्होंने दस साल सत्ता में रहकर भी वहां कुछ खास नहीं किया और जब बांध अपनी पूरी ऊंचाई पर बनकर खड़ा हुआ तब होश फाख्ता हुए नई मुख्यमंत्री उमा भारती के. मगर वे ज्यादा समय सत्ता में नहीं रहीं. थोड़े समय बाबूलाल गौर मुख्यमंत्री रहे और फिर एकछत्र राज करने के लिए तकदीर ने शिवराजसिंह चौहान का दरवाजा खटखटाया. उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी पर 12 साल पूरे हुए. यह एक युग की अवधि है.
आज जो कुछ भी सरदार सरोवर बांध के डूब क्षेत्र में मचा है, उसके लिए बिल क्लिंटन, सद्दाम हुसैन या मुअम्मर गद्दाफी जिम्मेदार नहीं हो सकते. जब सरदार सरोवर के विस्थापितों को मुआवजे बट रहे थे, तब इंदिरा सागर के विस्थापन-पुनर्वास की नाकामी का स्वाद बखूबी चखा जा चुका था. पूरी सरकारी मशीनरी की क्षमता और कारनामे उजागर हो चुके थे. एक सबक सीखने के लिए 13 साल कम नहीं होते, बशर्ते मन में वाकई व्यवस्था परिवर्तन की गहरी चाह हो. चुनाव जीतना और बात है, मगर ऐसी कोई चाहत मध्यप्रदेश सरकार में कभी किसी मुद्दे पर दिखाई नहीं दी. वर्ना शिवराजसिंह चौहान चाहते तो सरदार सरोवर के विस्थापन और पुनर्वास को इसी 36 सौ करोड़ रुपए में दुनिया का सर्वश्रेष्ठ मॉडल बना सकते थे. उन्हें पूरा काम अपने हाथ में रखना ही था. लगातार उन 88 स्थानों की मॉनीटरिंग करनी थी, जहां उनके अफसरों ने पुनर्वास के नाम पर 15 सौ करोड़ रुपए फूंके. जिस 900 करोड़ के स्पेशल पैकेज का तोहफा देने के बावजूद इस समय विस्थापितों की गालियां मिल रही हैं, यह रकम भी वहीं के विकास पर लगा देनी थी.
सत्ता में आकर अपनों को कमाने के हजार मौके हैं. सिर्फ एक काम ईमानदारी से देश-दुनिया, राजनीतिक नेतृत्व और सरकारों के लिए नजीर बन जाए, इस सोच के साथ शिवराज अपने किसी भरोसेमंद बिल्डकॉन को ही यह जिम्मा दे देते कि निसरपुर समेत बाकी 88 स्थानों पर शानदार सुविधाओं से लैस टाउनशिप पूरी प्लानिंग से बनाई जाएं. बेहतर सड़कों के नेटवर्क से जुड़ी रिहाइशें, उनके कारोबारी कॉम्पलैक्स, बिजली, पानी, स्कूल, अस्पताल और संचार के साधन प्रदेश में सबसे उम्दा देते. नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण (एनवीडीए) का मुख्यालय आखिरी विस्थापित परिवार के अपने गांव में रहने तक धार और बड़वानी से ही काम करता, भोपाल में नहीं. ग्राउंड पर हर महीने एक रिव्यू सीएम की काफी होती. एक निजी एजेंसी अलग से हरेक हरकत की मॉनीटरिंग करती. एक टाइमलाइन तय होती. फर्जी रजिस्ट्री जैसे कारनामे करने वालों को हमेशा के लिए नौकरी से निकालती तो एक पैसा भी दलाली या रिश्वत में खाने के पहले बाकी लोग हजार बार सोचते.
प्रदेश के मुखिया की ऐसी सक्रिय और विजनरी पहल उनका कद कई गुना बढ़ा देती. इस पूरे काम में नर्मदा बचाओ आंदोलन से मेधा पाटकर और उनकी टीम को भी जोड़ती. सुप्रीम कोर्ट में चीफ जस्टिस खेहर ने मेधा से कहा कि आप बताइए आप विस्थापितों के लिए क्या चाहती हैं, हम उससे ज्यादा के आदेश देने को तैयार हैं. यही अमृत वचन शिवराजसिंह चौहान दस साल पहले बोल देते तो बांध पर 17 मीटर के गेट लगने के पहले यह झमेला खड़ा नहीं होता. गांव के लोग खुशी-खुशी अपने नए घरों में शिफ्ट हो गए होते. पहले से शानदार व्यवस्थित और सुविधा संपन्न घरों को कौन ठुकराता, जहां अगले ही दिन से उनके पास करने को काम-धंधे होते, बच्चों को पहले से अच्छे स्कूल, अस्पताल मिलते?
तब शिवराज सरकार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बुलाकर विकास का पर्व बड़वानी में मनाती. मैं दावे से कह रहा हूं कि यह संभव हो सकता था. अगर आंदोलन ही नर्मदा बचाओ का पैदाइशी मकसद है तो सरदार सरोवर के गांव ही मेधा और उनकी टीम को बाहर का रास्ता बता देते. कौन पहले से अच्छे घरों और पहले से अच्छे कारोबारी हालात में जाकर रहना नहीं चाहेगा. सिर्फ विजन चाहिए था. सख्ती चाहिए थी. अफसरशाही उसकी जगह पर होनी थी. ऐसा होता तो सरकार को बेशकीमती 13 साल गंवाने और 36 सौ करोड़ रुपए खर्च के बाद ऐसी लानतें न मिलतीं. यह हमारे राजनीतिक और प्रशासनिक नेतृत्व की आपराधिक भूल है, जिसका खामियाजा सरदार सरोवर के 193 गांवों के करीब 40 हजार परिवार इस वक्त भुगत रहे हैं!
12 दिन के धरने के दौरान भी सरकार ने अपने कारिंदों पर ही भरोसा किया. मुख्यमंत्री एसपी-कलेक्टर को मेधा को मनाने के लिए भेजते रहे. फिर कोई भय्यूजी महाराज प्रकट हुए. मेरा मेधा को कोई समर्थन नहीं है. न किसी किस्म के विरोध में कोई रुचि है. मेधा और उनकी टीम पर यह तोहमतें लगती रही हैं कि वे विदेशों से आए पैसे के बूते पर हमारे विकास के प्रोजेक्ट के खिलाफ माहौल बनाती हैं. अगर ऐसा है तो भी क्या दिक्कत थी. अभी कश्मीर में विदेशी फंड की दम पर आतंक फैलाने वाले कई दगाबाज गिलानी-फिलानी अंदर हुए हैं. सरकार के पास अगर ऐसे कोई सबूत थे तो मेधा पाटकर की जगह चिखल्दा गांव के धरने पर नहीं, तिहाड़ में होनी चाहिए थी. सिरदर्द पैदा करने के लिए उन्हें क्यों खुला छोड़ा हुआ है?
नर्मदा बचाओ आंदोलन आज का नहीं है. तीस साल से ज्यादा हो गए घाटी में इस आवाज को गूंजते. बड़े बांधों के औचित्य की बहस बहुत बड़ी है लेकिन एनबीए की आवाज विस्थापन के तौर-तरीकों को लेकर ही गूंजती रही. उन्होंने काश्मीरी नौजवानों की तरह भारत के माथे पर पत्थर नहीं बरसाए, वे नक्सलियों की तरह भी पेश नहीं आए. वे अदालतों में गए. आरटीआई के जरिए असलियतें उजागर कीं. खंडवा, बड़वानी, भोपाल और दिल्ली में धरने-रैली करते रहे. नारे लगाते रहे. ज्ञापन सौंपते रहे. याचिकाएं बढ़ाते रहे. शिकायतें करते रहे.
सिंहस्थ के समय तूफान आया तो मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान बांधवगढ़ नेशनल पार्क में अपने परिवार को छोड़कर रात में उज्जैन पहुंचे और परेशानहाल श्रद्धालुओं को अपने हाथों से चाय पिलाई. उनकी रहमदिली और सहजता के कायल कई हैं. भोपाल में ज्यादा बारिश ने जीना हराम किया तो सुबह सीएम पार्षदों से आगे निचली बस्तियों में दौड़ते दिखे. दस साल में जब भी फसलें चौपट हुईं शिवराज का हेलीकॉप्टर अनगिनत खेतों में उतरा. ऐसे हर स्पॉट से अखबारों में एक हेडलाइन रोचक जुमला ही बन गया, शिवराज ने कहा-मैं हूं न! गांवों के चौकीदारों से लेकर शहरों में काम करने वाली बाइयों तक शायद ही कोई तबका बचा होगा, जिसकी गुहार अपने सरकारी बंगले में पंचायत बुलाकर न सुनी हो. प्रमोशन में आरक्षण के लिए इतने प्रतिबद्ध दिखे कि सुप्रीम कोर्ट में महंगे वकील खड़े कर दिए.
सरदार सरोवर बांध के 40 हजार विस्थापित परिवार किस हाल में हैं, वहां अफसर क्या कर रहे हैं, पुनर्वास स्थल रहने लायक हैं या नहीं, लोग वहां क्यों नहीं जा रहे, उनके कारोबार डूब तो नहीं रहे, वे कमाएंगे क्या, उनके मन में क्या है, सरकार सब कुछ अच्छा ही कर रही है तो वे नाराज क्यों हैं, हाईकोर्ट-सुप्रीम कोर्ट के चक्कर क्यों लगा रहे हैं, यह पूछने न वे गए और न ही उनका कोई काबिल मंत्री. वहां मेधा पाटकर गईं. 12 दिन धरने के बाद एक शाम बंदूकों-लाठियों से लैस तीन हजार पुलिस वालों ने उन्हें जबरन उठा लिया. दो दिन इंदौर के बांबे हास्पिटल में रखकर उन्हें धार जेल भेज दिया गया. डेढ़ महीने पहले किसान आंदोलन ने सरकार के 13 सालों के किए कराए पर पानी फेर दिया था. अब विस्थापितों की सुर्खियां रही-सही कसर पूरा कर रही हैं. मामला हाथ से निकल चुका है.
2004 में हरसूद के हाल पर लिखी मेरी किताब 2005 में छपकर आई थी. इसके दस साल बाद एक फेलोशिप के तहत मुझे इंदिरा सागर बांध के इलाके में फिर जाने का मौका मिला. करीब एक साल तक मैंने हरसूद समेत खंडवा, हरदा और देवास जिले के कई पुनर्वास स्थल देखे और उन परिवारों में वापस गया, जो 2004 में बेदखल हुए थे. बहुत संतुलित भाषा का प्रयोग करते हुए मैं कहना चाहूंगा कि सरकार में आने के पहले हमारे ज्यादातर नेताओं को पता ही नहीं है कि उन्हें जनता के लिए करना क्या है? पार्टियों में उनकी ऐसी कोई ट्रेनिंग नहीं है कि ऐसे विकट हालातों में वे किस विजन और नीयत से पेश आएं. वे पार्टी में छोटे-मोटे पदों से होकर पंच-पार्षद बनते हुए विधायक और सांसदों के टिकट तक पहुंचते हैं. फिर तमाम तीन-तिकड़में और तकदीर उन्हें एक शपथ तक ले आती है.
हमने देखा है कि नेताओं की इस राजनीतिक यात्रा में सफेद झूठ के साथ खरा पैसा पानी की तरह बहता है, जिसे जुटाने के लिए एक के बाद दूसरे और बड़े पद जरूरी होते हैं. जितना बड़ा पद, उतना बड़ा झपट्टा. सरकार में आने या पद के पाने का एकसूत्रीय कार्यक्रम बेहिसाब दौलत कमाना भर है. इसलिए सरकार में आते ही ये नेता पहले से सत्ता का मजा ले रहे उन घाघ अफसरों के चंगुल में जा फंसते हैं, जो एक बड़ी परीक्षा पास करके 30-35 सालों के लिए सिस्टम की छाती पर सवार होते हैं. ऐसी अफसरशाही के सहारे मूर्ख और लालची नेताओं को सत्ता का अवसर जन्नत जैसे अहसास में ले जाता है, जहां पीड़ित जनता की कराह भी वे अफसरों के मुंह से मधुर गीत के रूप में सुनते हैं. बड़ा पद उनके लिए दूल्हे के रूप में घोड़ी की सवारी जैसा है, जिस पर वे अगले पांच साल तक सवार रहेंगे. भाषण देंगे. घोषणाएं करेंगे. शिलान्यास, उदघाटनों की शोभा बढ़ाएंगे. किसी ठोस नतीजे या बदलाव की उम्मीद बेकार है, क्योंकि ज्यादातर के पास वैसा विजन ही नहीं है. नीयत भी नहीं है.
मेरे मध्यप्रदेश में यही व्यापमं की सीख है, यही शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन के खस्ताहाल इन्फ्रास्ट्रक्चर की इबारत है, यही बेमौत मर रहे किसानों से मिला सबक है और यही अब सरदार सरोवर का सार संक्षेप है!
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