'हमें दहेज नहीं चाहिए, हां आप अपनी बेटी को जो चाहें दे सकते हैं.' इस एक लाइन के पीछे शादियों में सारा खेल हो जाता है. हमारे यहां सदियों से बेटी के नाम पर ही तो शादी (marriage) में दहेज दिया जाता है. इसमें नया क्या है? मतलब अगर आप यह कानून बना देते हैं कि दहेज का सामान शादी के 7 सालों तक बेटी के नाम पर रहेगा तो इससे क्या बदल जाएगा? बल्कि इससे तो दहेज को मान्यता ही मिलेगी. सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस डीवाय चंद्रचूड़ ने एक याचिका पर सुनवाई करते हुए दहेज को 7 साल लड़की के नाम करने के प्रस्ताव पर सहमति जताते हुए विधायिका पर इस दिशा में गौर करने को कहा है.
सुप्रीम कोर्ट से बाहर आई इस आवाज से ध्वनि तो यही आई, जैसे- दहेज दे तो, बस लड़की के नाम पर देना. क्या लोग देहज लेना छोड़ देंगे, अब भी बेटी के नाम ही दहेज लिया जाता और इसके बाद भी बेटी के नाम पर ही दहेज लिया जाएगा. ऐसे नियम बनाने की क्या जरूरत है? अगर यह नियम बन जाता है कि शादी के वक्त मिले गहने-संपत्ति महिला के नाम हो जाएगी...इस लाइन का क्या मतलब है माने शादी में दहेज दिया ही जाएगा. काश, सुप्रीम कोर्ट इस बारे में अपनी राय जाहिर करने से पहले लड़की के परिवार के बारे में सोच लेता. यदि दहेज देने की परंपरा को किसी भी तरह से सुरक्षित बनाने की कोशिश हुई तो भी वह लड़की के परिवार के नुकसानदेह ही है.
आइए, इस मुद्दे को काल्पनिक उदाहरण (जो सही भी हो सकता है) से समझते हैं- एक लड़की के परिवार से उसका होने वाला ससुराल शादी में फॉर्च्यूनर देने की बात करता है. दलील दी जाती है कि अरे आपकी बेटी भी तो घूमेगी गाड़ी में. अब तक ये गाड़ी दूल्हे के नाम पर दी जाती थी, लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट के सुझाव और विधायिका के आदेश के बाद यदि कुछ बदलेगा तो ये कि वो गाड़ी अब लड़की के नाम पर रजिस्टर्ड होगी. लेकिन, क्या इससे लड़की के परिवार को लगने वाले 25 लाख रु के फटके के बारे में किसी ने सोचा. यह भी सोचा जा सकता है कि गाड़ी भले लड़की के नाम पर आए, उसका मजा कौन लेगा?
शादी के समय मिली संपत्ति महिला के नाम करने की अर्जी
तो सवाल वही है, क्या बेटियों के नाम कर देने से शादी के समय दी जाने वाली संपत्ति सच में उनकी हो जाएगी? शादी में मिली संपत्ति को महिला के नाम करने की अर्जी की बात तो ऐसे की जा रही है जैसे अब तक दहेज उसके सुसराल वाले नहीं बल्कि उसके पड़ोसी लेते थे. यह अर्जी ऐसी लग रही है जैसे लड़की के पिता को दहेज देना ही चाहिए, डायरेक्ट ना देकर भले बेटी के नाम इनडायरेक्ट ही सही. हमारी समझ में यह नहीं आता कि जब दहेज लेना और देना दोनों कानूनी रूप से अपराध है तो फिर इस अर्जी की क्या जरुरत है. हम ये बातें क्यों कह रह हैं, चलिए समझाते हैं.
दरअसल, सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि दहेज मामलों को रोकने वाले कानून को और मजबूत करने की जरूरत है. जिसमें शीर्ष अदालत से शादी के समय दी जाने वाली जूलरी और संपत्ति को 7 साल तक महिलाओं के नाम करने की गुहार लगाई गई है. इस पर सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि यह मामला बेहद गंभीर है, लेकिन याचिकाकर्ता को लॉ कमिशन के सामने यह सुझाव देना चाहिए. इस पर हम फैसला नहीं दे सकते, लॉ कमीशन चाहे तो कानून को सख्त करने पर विचार कर सकता है.
इस पूरे वाकये को समझने के बाद हमें तो यह लगा मानो जैसे हम जानते हैं कि दहेज देना और लेना भले कानूनन अपराध है लेकिन दहेज तो लड़की के घरवालों से लेना ही है. इसलिए दहेज को लानी वाली महिला के ही नाम कर दो. अब जरा बताइए अब भी तो दहेज लड़की के नाम पर ही मांगा जाता है. माने घर का सारा सामान, गहने आते तो लड़की के नाम पर ही है लेकिन क्या उसका इस्तेमाल लड़की करती है? लड़की जो सामान लेकर आती है उसका लाभ पूरे घरवाले ही उठाते हैं. उसे जो गहने चढ़ाए जाते हैं उसपर भी उसका अधिकार नहीं होता. ऐसा नहीं है कि वह किसी मुसीबत में है तो उन गहनों को बेच सकती है या गिरवी रख सकती है, बिना ससुराल को बताए अगर किसी लड़की ने ऐसा कर दिया तब कमायत ही आ जाएगी.
आपको भी शायद पता होगा है कि कई जगह ससुराल वाले होने वाली बहू को गहनें तभी चढ़ाते हैं जब उन्हें लड़की पक्ष वाले दहेज दें वरना वे भी बहू को गहनें नहीं देते. दूसरी तरफ अगर मायके वालों ने सुसराल पक्ष को दहेज दिया है तो सारी कटौती लड़की के सामान में की जाती है. मतलब लड़की वाले अपनी बेटी को बोल देते हैं कि सारा पैसा तो दहेज में दे दिया तो अब जो है तुम उसी में काम चलाओ. लड़की वालों ने ससुराल वालों को दहेज दिया है तो वे अपनी बेटियों को नाम मात्र का ही गहना देंगे. इस दहेज के चक्कर में पिता पर तो मुसीबत आती ही है लेकिन साथ में बेटी के छोटी-छोटी अरमानों की बलि चढ़ा दी जाती है.
वहीं अगर लड़की वालों ने दहेज दिया है तो वे भी डिमांड करते हैं कि बारात अच्छी आनी चाहिए, बैंडबाजा ऐसा हो कि पूरी शहर देखे और बेटी को कम से कम 3 लाख की जूलरी तो आने ही चाहिए. कई जगह तो ऐसा है कि पैसे वाले खुद लड़के वालों को मुंह खोलकर कह देते हैं कि आपका बेटा डॉक्टर है तो हम इतने लाख देने को तैयार हैं. बेटे वाले भी बिकने के लिए तैयार हो जाते हैं, लेकिन दोनों के बीच में पीसती तो बेटी है.
इन कारणों से गरीब पिता को अपनी बेटी की शादी के लिए परेशान रहता है. नियम को सख्त करना है तो ऐसे करो कि दहेज देना ही नहीं है, क्योंकि बेटी के नाम भी कर दोगो तब भी राज उसके ससुराल वाले ही करेंगे. अब टीवी, फ्रिज, मशीन, एसी को तो लोग दहेज में गिनते ही नहीं हैं. वे कहते हैं कि ये सब तो आप अनपी बेटी को देंगे लेकिन उसका इस्तेमाल को सभी करते हैं. क्या सिर्फ बेटी के कपड़े मशीन में धुलते हैं? नहीं ना...दहेज की वजह से पहले की बेटियां मारी जाती रही हैं. मान लीजिए शादी के बाद अगर महिला को ससुराल वालों ने प्रताड़ित किया तो वह शादी के पुराने सामान को लेकर ही क्या कर लेगी?
वैसे कानून तो यह भी है कि पैतृक संपत्ति में बेटी को भी हिस्सा मिलना चाहिए, लेकिन कितने लोग अपनी संपत्ति बेटियों के नाम करते हैं और कितनी बेटियां अपने पिता और भाई से संपत्ति मांगने जाती है? अगर वे अपने भाई से सपंत्ति लेने की बात कहेंगी तो समाज उनके बारे में क्या सोचेगा... उन्हें मायके में इज्जत मिलनी बंद हो जाएगी. ऐसे में दहेज का सामान 7 साल उसके नाम करने का क्या मतलब है? दहेज को ही क्यों ना पूरी तरह खत्म कर दिया जाता है ताकि कोई बेटी इसकी बलि ना चढ़ सके.
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